कड़ी मेहनत से ही सब कुछ मिला- श्रेयसी सिंंह

बिहार के जमुई जिले के गिद्धौर की मूल निवासी 27 साल की श्रेयसी सिंह को खेलों में मिलने वाले प्रतिष्ठित अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। आॅस्ट्रेलिया में अप्रैल में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स की डबल ट्रैप शूटिंग स्पर्धा में श्रेयसी ने स्वर्ण पदक हासिल किया था। श्रेयसी पूर्व विदेश राज्य मंत्री दिवंगत दिग्विजय सिंह और बांका की पूर्व सांसद पुतुल कुमारी की बेटी हैं। दिल्ली के हंसराज कॉलेज से स्नातक और तुगलकाबाद से शूटिंग का अंतरराष्ट्रीय स्तर का प्रशिक्षण लेने वाली श्रेयसी की नजर अब ओलंपिक गेम्स पर है। शूटिंग स्पर्धा में देश के लिए स्वर्ण पदक जीतना श्रेयसी का लक्ष्य है। अर्जुन पुरस्कार मिलने पर उनसे निशा शर्मा की बातचीत के प्रमुख अंश :

अर्जुन पुरस्कार मिलने पर आपको सबसे पहले ओपिनियन पोस्ट की ओर से बधाई, जब इसकी घोषणा हुई तो आपकी क्या प्रतिक्रिया थी?
बधाई के लिए शुक्रिया। मुझे खुशी है कि खेल मंत्रालय ने मेरे बारे में सोचा और पाया कि मैं अर्जुन पुरस्कार के योग्य हूं। जब मेरा नाम इसके लिए शामिल किया गया था तब मुझे ये उम्मीद नहीं थी कि मुझे यह पुरस्कार मिलेगा। एक महीना पहले नॉमिनेशन हो गया था। जब मंत्रालय की तरफ से सिफारिश भेजी गई और अखबारों में, न्यूज चैनलों में आने लगा तब मुझे थोड़ी उम्मीद जगी। ऐसा नहीं है कि आप गोल्ड मेडल ले आएं तो ये पुरस्कार आपको मिल जाएगा। इसके लिए एक कमेटी बैठती है जो पिछले चार सालों का आपका प्रदर्शन देखती-परखती है। तब कहीं जाकर आपको इस पुरस्कार के लिए चुना जाता है।

कब सोचा कि इस खेल में आना है, इसके लिए कहां से प्रेरणा मिली?
मैंने वर्ष 2008 में शूटिंग शुरू किया था। शूटिंग में आने से पहले ही मेरी खेलों में भागीदारी थी। मेरे पिताजी का एक सपना था कि मेरी एक बेटी शूटिंग में जरूर अपना करियर बनाए। वे नेशनल राइफल एसोसिएशन के उपाध्यक्ष थे। पिताजी से पहले मेरे दादाजी नेशनल राइफल एसोसिएशन के अध्यक्ष रह चुके थे। एक बार मेरे पिताजी राज्यवर्धन सिंह राठौड़ (पूर्व निशानेबाज व मौजूदा खेल मंत्री) के साथ बैठे हुए थे। दोनों शूटिंग को लेकर कुछ बात कर रहे थे। वहां मैं भी थी। मैंने ऐसे ही कह दिया कि मैं भी शूटिंग करना चाहती हूं। यह बात सुनकर मेरे पापा बहुत खुश हुए और कहने लगे कि तुम्हें शूटिंग सीखनी चाहिए। राज्यवर्धन राठौड़ ने भी मुझे काफी प्रोत्साहित किया और कहा कि अगर तुम सीखना चाहोगी तो मैं तुम्हारी मदद करूंगा। मेरे परिवार ने कभी मुझ पर इस खेल को लेकर दबाव नहीं बनाया बल्कि परिवार, मित्रों का सहयोग प्रोत्साहन के तौर पर हमेशा मिला। जैसे-जैसे मैंने शूटिंग सीखनी शुरू की मेरी रुचि इसमें बढ़ती गई।

आप एक नामी राजनीतिक परिवार से ही नहीं ऐसे परिवार से भी ताल्लुक रखती हैं जिस परिवार का शूटिंग एसोसिएशन में दबदबा रहा है, क्या ऐसे में आपको संघर्ष करने की जरूरत पड़ी या फिर सब आसानी से मिल गया?
मैंने वैसे ही संघर्ष किया है जैसे कोई आम शूटर इस खेल में आने के लिए करता है। दूसरा जो आप कह रही हैं कि राजनीतिक प्रभाव के कारण कुछ सुविधाएं मिली हैं, तो मैं आपको बता दूं कि वैसा बिल्कुल नहीं हुआ। जब मैंने शूटिंग में आने की सोची थी तो मेरे पिताजी ने मुझे साफ कह दिया था कि अगर तुम्हें इस खेल में आना है तो तुम्हें अपने बलबूते पर ही आना होगा, न कि मेरे नाम पर। वैसे ही इस खेल के लिए मेहनत करनी होगी जैसे देश के दूसरे बच्चे इस खेल में आने के लिए करते हैं। मैंने जब शूटिंग शुरू की तो मेरे पास अपनी पिस्टल नहीं थी। मैंने अपने वरिष्ठ सहयोगियों से मांग कर दो साल तक निशानेबाजी की प्रैक्टिस की जिसके बाद मैंने पहली नेशनल चैंपियनशिप क्वालीफाई की। अपनी पिस्टल रखने के लिए कुछ नियम कायदे हैं जिसके लिए मैंने कड़ी मेहनत की और उसे हासिल किया। पहले सरकार की एक स्कीम थी जिसका नाम था नेशनल टैलेंट सर्च। इसके तहत जो नेशनल चैंपियन रहता था उसे सरकार की तरफ से फंडिंग होती थी दूसरे देश में जाकर ट्रेनिंग करने की। मुझे मेरी योग्यता के आधार पर ही स्कॉलरशिप मिल पाई। मैंने आवेदन भरा और बाहर जाकर ट्रेनिंग करने का मुझे मौका मिला। मेरी मेहनत से मुझे सब कुछ मिला न कि मेरे पिताजी के रुतबे की वजह से। सबसे बड़ी बात यह है कि जब आप किसी मुकाम पर पहुंचते हैं तो उसके पीछे यह बात नहीं होती कि आप किसी राजनीतिक परिवार से हैं या आप पैसे के बलबूते वहां पहुंचे हैं। वहां सिर्फ आपकी मेहनत और दृढ़ निश्चय ही काम आता है कि आप देश के लिए कुछ करना चाहते हैं।

आपके करियर में माता-पिता में किसका सहयोग ज्यादा रहा?
मेरे माता-पिता दोनों ने बहुत सहयोग दिया। हालांकि पिताजी हमेशा मेरे समर्थन में रहे कि मुझे जो करना है वह करने दिया जाए।

कॉमनवेल्थ खेलों का प्रदर्शन आपके लिए कितना मायने रखता है?
कॉमनवेल्थ खेलों में प्रदर्शन मेरे लिए बहुत मायने रखता है क्योंकि मेरे पिताजी की मृत्यु 2010 में कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान ब्रेन हैमरेज से हुई थी। उनकी इच्छा थी कि कॉमनवेल्थ खेल में मैं मेडल जरूर जीतूं। 2014 में जब मैंने सिल्वर मेडल जीता तो मुझे लगा कि मैंने उनकी इच्छा पूरी की है। लेकिन साथ ही मुझे अंदर से लग रहा था कि वो गोल्ड मेडल नहीं है, तो कहीं न कहीं कुछ अधूरा है। 2018 में जब मैंने गोल्ड मेडल जीता तो मुझे लगा कि अब जाकर उनका सपना पूरा हुआ।

2018 कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले जेहन में था कि गोल्ड ही लाना है?
बिल्कुल, ये दिमाग में हमेशा रहता है कि गोल्ड ही लाना है। आपका प्रदर्शन ऊपर-नीचे हो सकता है लेकिन आपको गोल्ड के लिए दृढ़ निश्चयी ही रहना चाहिए।

इस सफलता का श्रेय आप किसे देती हैं?
मेरी सफलता का पूरा श्रेय मेरी बड़ी बहन और माताजी को जाता है। पापा के गुजर जाने के बाद मैं बहुत टूट गई थी, मेरा हौसला खत्म होने लगा था। मैं अपने पिता के बहुत करीब थी। ऐसे में दोनों मेरे लिए मेरे साथ हमेशा खड़ी रहीं। उन्होंने कभी मुझ पर से अपना विश्वास खत्म नहीं किया। कॉमनवेल्थ गेम्स में जब मैंने गोल्ड मेडल जीता तब भी दोनों मेरे साथ आस्ट्रेलिया में थे। परिवार का सहयोग आंतरिक था लेकिन एक सहयोग और था, वो था मेरे कोच का, क्योंकि जब आप शूटिंग रेंज पर जाते हैं तो जो कुछ भी आप करते हैं वह सिर्फ आप अपने कोच के सहयोग से ही कर पाते हैं। मेरा करियर मेरे पिता के सपने से शुरू हुआ फिर वो मां-बहन के साथ चला और उसमें मेरे न्यूट्रिशियन, साइकॉलॉजिस्ट, फिजिकल ट्रेनर, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कोच, मेरे सहयोगी और मित्र जुड़ते गए। इन सब ने मिलकर इस खेल के लिए मुझे तैयार किया तभी मैं गोल्ड ला पाई।

जब खबरों में छपता है बिहार की बेटी ने मेडल जीता तो कैसा महसूस होता है?
वो बहुत प्रोत्साहित करने वाला क्षण था, ऐसा लग रहा था कि मैं जीती हूं तो बिहार जीता है। जब हम प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतते हैं और बाहरी मुल्क में भारत का तिरंगा ऊंचा होता है तो वह पल बहुत गर्व का पल होता है जिसे महसूस किया जा सकता है, बयां नहीं।

शूटिंग एक महंगा खेल है जिसके लिए हर कोई समर्थ नहीं हो पाता है। ऐसे में इस खेल में आम लोगों की भागीदारी के लिए अगर आपको कुछ करने का मौका मिले तो आप क्या करना चाहेंगी?
सबसे पहले इस खेल के लिए बुनियादी ढांचे की जरूरत है। देश के हर राज्य में शूटिंग रेंज की जरूरत है जो उन लोगों के लिए उपलब्ध हो जो इस खेल में अपना करियर बनाना चाहते हैं। हाल ही में मेरे कोच ने मध्य प्रदेश में एक कोचिंग सेंटर का निर्माण किया है जिसमें पढ़ाई के साथ स्किल ट्रेनिंग भी दी जाती है। ऐसे ही बेहतर कोचिंग सेंटर की जरूरत है जहां पढ़ाई के साथ-साथ स्किल ट्रेनिंग भी दी जाए जिसमें सरकार सहयोग करे ताकि बच्चों को आर्थिक मदद भी मिले और वे अपनी पढ़ाई भी पूरी कर सकें। खेलों को लेकर अभी हमारे यहां वो माहौल नहीं है कि इसे ही करियर बनाया जाए। आज भी माता-पिता खेल में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद पूछते हैं कि खेल तो ठीक है लेकिन अब कमाई के बारे में क्या सोचा है? सरकार भी नगद पुरस्कार तभी देती है जब आप किसी स्तर पर आ जाते हैं जैसे कि राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय पदक जीतते हैं। ऐसे में ऐसी अकादमी की बहुत जरूरत है जहां बच्चे खेलों को करियर के तौर पर अपना सकें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *