राज खन्ना की अमेठी से विशेष रिपोर्ट

अमेठी अनमनी है। कसमसा रही है। उसे शोहरत और सुर्खियां दिलाने वाला गांधी परिवार सत्ता से बाहर है। राहुल गांधी तीसरी बार अमेठी से संसद में पहुंचे हैं। दो मौकों के दस साल में केंद्र की सत्ता पर उनका  नियंत्रण था। तब उनके पास उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार  न होने का कवच था। अब हमलों के लिए खुला मैदान है। वह अपने निर्वाचन क्षेत्र की उपेक्षा के नाम पर केंद्र की सरकार को घेरने का कोई मौका नही  छोड़ते। पहले उनके अमेठी दौरे  अमूमन स्वयंसहायता समूह की बैठकों  या फिर कभी किसी दलित की झोपड़ी में रात  गुजारने के बीच सिमटते थे। चुनाव के दिनों को  छोड़कर उनके सार्वजनिक कार्यक्रमों और उनमें आम कार्यकर्ताओं व जनता की सीधी भागीदारी कम ही होती थी।
तो  क्या लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद  राहुल बदले नजर आ रहे हैं? देश के मतदाताओं ने उनकी पार्टी को  जबरदस्त शिकस्त देकर अपना फैसला सुनाया तो उनके परिवार की  समझी- जाने वाली अमेठी ने  स्मृति ईरानी को तीन लाख से ज्यादा वोट  देकर अमेठी को अपनी  जागीर न समझने का संदेश भी दे दिया। इस सीख को शायद अगले चुनाव तक के लिए भुला दिया जाता लेकिन पराजित पक्ष हर मौके पर सामने खड़ा है। अमेठी से गांधी परिवार के रिश्ते चालीस साल पुराने हैं। इस बीच कई चर्चित चेहरे इस परिवार को अमेठी में असफल चुनौती  देने के बाद अमेठी को  भूलते रहे। इस बार बात थोड़ी अलग है। अपने चुनाव अभियान में स्मृति ईरानी ने वादा किया था कि’ हारूं या जीतूं, हमेशा अमेठी  में बनी रहूंगी। स्मृति  ने अमेठी को लेकर अपने वायदे को अब तक निभाया है। जीते राहुल सत्ता से दूर हैं तो पराजित स्मृति प्रधानमंत्री मोदी की विश्वासपात्र और केंद्र के भारी भरकम मंत्रालय की मंत्री हैं। असलियत में अमेठी नए अनुभवों से दो- चार हो रही है।  यह शायद पहला मौका है जब गांधी परिवार से हारने  वाला कोई  बाहरी चर्चित चेहरा नियमित रूप से अमेठी के मतदाताओं से रिश्ते बनाये हुए है। यह चेहरा  वहां के लोगों को इसलिए भी  भा रहा है क्योंकि अपने संक्षिप्त  चुनाव प्रचार अभियान में उन्हें अमेठी के तमाम लोगों के नाम याद हो गए हैं।  स्मृति उन्हें नाम लेकर पुकारती हैं और लोग गदगद हो जाते हैं। मुलाकातियों को वह अपरिचय का अहसास नही होने देतीं। अमेठी पहुंचने पर वे चुनाव के दिनों जैसी सरल और सहज दिखती हैं । तब उनसे मुलाकात भी आसान होती है। दिल्ली पहुंचने वाले अमेठी के लोगों की भी वे और उनके प्रतिनिधि उनके कामों को लेकर फ़िक्र करते हैं। स्मृति अमेठी को अब तक कुछ   खास भले न  दे सकी हों लेकिन कभी अग्नि पीड़ितों के बीच सहायता सामग्री  पहुंचा कर तो दीवाली के मौके पर अमेठी की पांच हजार महिलाओं तक साड़ियां भेजकर वे ख़ुशी हो या गम के मौकों पर साथ दिखने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हैं। प्रधानमन्त्री की जनधन योजना के धारकों का बीमा और  फिर अमेठी की पच्चीस हजार महिलाओं के लिए प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के प्रीमियम चुका कर वे गरीब आबादी से सीधा सम्पर्क बनाने में जुटी हैं। स्मृति  अगस्त महीने में राहुल की अमेठी से वापसी के सिर्फ चार दिन बाद वहां पहुंचीं तो पिछली बार अमेठी  की रद्द की गई मेगा फ़ूड पार्क  योजना को लेकर सरकार पर  हमलावर राहुल गांधी पर पलटवार के  लिए उन्होंने अमेठी का रुख किया। अपने हाल के दौरे में उन्होंने राहुल पर सबसे बड़ा हमला बोला और अमेठी में बन्द  पड़े सम्राट  बाइसिकिल कारखाने की 65 एकड़ जमीन को गांधी परिवार के कब्जे वाले राजीव गांधी ट्रस्ट द्वारा खरीदे जाने को किसानों की जमीन हड़पने से जोड़ दिया।
गांधी परिवार  से रिश्तों के कारण अमेठी से निकले संदेश दूर तक पहुंचते हैं। अब तक गांधी परिवार के खिलाफ ख़म ठोंकने वाले चुनाव नतीजों के बाद इलाके को भूलना बेहतर समझते थे। अगले चुनाव में अमेठी में कौन आमने- सामने होगा, इस सवाल पर  अभी से माथापच्ची निरर्थक है। लेकिन ये साफ़ है कि भाजपा राहुल को लगातार अमेठी में घेरे रखने की  रणनीति पर काम कर रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव  को लेकर  भाजपा काफी गम्भीर है। लोकसभा चुनाव में गांधी परिवार को जीत दिलाने वाली अमेठी विधानसभा चुनाव में अलग राह चुन लेती है। अभी भी अमेठी के पांच में तीन विधायक सपा के हैं। अमेठी में स्मृति की सक्रियता ने भाजपा को कितनी ताकत दी है, इसका पहला इम्तिहान अगले विधानसभा चुनाव में होना है। स्मृति के हर दौरे में उमड़ती भीड़ इलाके में पस्त पड़ी भाजपा को प्राणवायु दे रही है। उधर  स्म्रति ईरानी  गांधी परिवार की अमेठी से विदाई तक लड़ाई जारी रखने  की चुनौती देकर अपने समर्थकों में जोश भर रही हैं।
इन चुनौतियों से राहुल बेख़बर नही हैं। अब उनके अमेठी के दौरों  में  कार्यकर्ताओं को पहले के मुकाबले ज्यादा तरजीह मिलती है। राहुल उनकी सुनते भी हैं और  मोदी सरकार के खिलाफ उनमें गुस्सा भरने  का कोई मौका नहीं छोड़ते। कोशिश होती है कि वे ज्यादा लोगों तक पहुंच सकें और सुरक्षा की पाबंदियों के बीच मुलाकातियों की तादाद बढ़ सके। पहले राहुल अमेठी में राजनीतिक मुद्दों  पर कम ही बोलते थे। अब ऐसा नही है। चर्चा अमेठी  के साथ सौतेले सलूक के साथ शुरू होती है और फिर मोदी सरकार पर वह चुन- चुन कर हमले करते हैं। दिक्कत ये है कि  राहुल के इन दौरों और भाषणों की मीडिया में भले चर्चा हो लेकिन अमेठी का आम आदमी आम तौर पर इनसे उदासीन रहता है। इसकी वजहें हैं। जब वे अमेठी की बदहाली और उपेक्षा की बात करते हैं या फिर मेगा फ़ूड पार्क रद्द करने और  सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान पर लटकती तलवार का जिक्र करते हैं तो  सवाल  उठते हैं कि सत्ता में रहते ये काम क्यों पूरे नहीं कराये? अमेठी की दो तस्वीरें है। एक उनके दिमाग में जिन्होंने अमेठी के बारे में सिर्फ सुना है। उसकी असलियत  देखी नहीं है। ऐसे लोगों  को अमेठी से रश्क होता है। उन्हें लगता है कि गांधी परिवार के जुड़ाव ने अमेठी की काया पलट दी है । वे अपने इलाकों को उस अमेठी जैसा देखना चाहते हैं जिसके बारे में उन्होंने सिर्फ सुना है। पर अमेठी का सच कड़वा है। उसकी असली तस्वीर निराश करती है। देश के शिखर राजनीतिक परिवार से  लम्बे जुड़ाव के बाद भी अमेठी देश प्रदेश के.बाकी निर्वाचन क्षेत्रों से कुछ अलग नहीं है। बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी तमाम बुनियादी  जरूरतों  के मामले में अमेठी की हालत खराब है।राजीव गांधी के जमाने में लगी तमाम औद्योगिक  इकाइयां ठप हो चुकी हैं। राहुल  यूपीए की दस  साल की सत्ता के दौरान इस दिशा में कुछ नहीं कर सके। नाममात्र की जो इकाइयां चल रही हैं, उनमें स्थानीय लोगों के लिए रोजगार की कोई गुंजाइश बन नहीं पाती।
रोजमर्रा की जरूरतों के लिए जद्दोजहद करते आम लोगों  की उम्मीदें तब आसमान पर होती हैं जब उनके प्रतिनिधि का नाम बड़ा होता है। पर बड़े नाम हमेशा  काम के नहीं होते, ऐसा मानने वालों की तादाद अमेठी में लगातार  बढ़ रही है। लोगों को सवालों का समाधान चाहिए। अपने  पिछले दो संसदीय कार्यकाल में राहुल लगातार प्रदेश में अपनी सरकार न होने की मजबूरी बयान करते रहे। इससे पहले के पांच साल अमेठी के सांसद के रूप में यही जबाब उनकी मां सोनिया गांधी के मुख से अमेठी के लोग सुनते रहे। इस मजबूरी को संघर्ष की धार के जरिये मजबूती में बदला जा सकता था। राज्य या केंद्र की सरकारें अगर अमेठी की उपेक्षा कर रही हैं तो वहां के प्रतिनिधि  ने इसके खिलाफ क्या किया? यहां राहुल का बड़ा राजनीतिक कद आड़े आ जाता है। उनके क्षेत्र की अधिकांश समस्याओं का निदान  या कमी राज्य सरकार के जरिये मुमकिन है लेकिन लोगों को नहीं  पता कि उनके सांसद ने कभी उ.प्र. के किसी मुख्यमंत्री से मुलाकात करके उनके सामने अमेठी की जरूरतों या कठिनाइयों को पेश किया हो। वे मिलते भी नहीं और विपक्षी के रूप में लड़ते भी नजर नहीं आते। कम से कम अमेठी की बदहाली को लेकर फिलहाल उनकी सीधी लड़ाई राज्य सरकार से होनी चाहिए लेकिन राजनीतिक बाध्यताएं उन्हें निशाने पर मोदी सरकार को लेने पर विवश करती हैं। राहुल की मजबूरी है कि इस समय  उनकी पार्टी सत्ता से दूर है। अपने मतदाताओं की मांगों को पूरा करने के मामले में उनके हाथ खाली हैं। ले- देकर अन्य सामान्य सांसदों की तरह उनके पास भी पांच करोड़ की सालाना सांसद निधि है। मुश्किल ये है कि उसके प्रस्ताव भेजने के मामले में भी  वह तेजी नहीं दिखा पाते। उनका अमेठी का दफ्तर लोगों की शिकायतें और मांगपत्र  इकट्ठा करके दिल्ली भेज देता है। बहुत कम सौभाग्यशाली हैं जो जबाब पाते हैं। फरियादियों की बड़ी संख्या ऐसी होती है जिनके मसले स्थानीय पुलिस- प्रशासन से जुड़े होते हैं। राहुल ने स्थानीय स्तर पर ऐसा कोई राजनीतिक तन्त्र नहीं खड़ा किया है जो कि अपने सांसद के भरोसे कोई लड़ाई लड़ सके।
अपने चुनाव जीतने के  अलावा राहुल का पार्टी को कामयाबी दिलाने का रिकार्ड निराशाजनक रहा है। फिर भी वे पार्टी की उम्मीदों के केंद्र हैं और उन्हें पार्टी की कमान पूरी तौर पर सौंपने की मांग उठती रहती है। उम्मीद की जाती है कि बड़े नेता जिस राज्य  की किसी सीट को अपने  निर्वाचन क्षेत्र के रूप में चुनते हैं, वहाँ उनकी  मौजूदगी  बाकी क्षेत्रों पर अपना असर   छोड़ती है। 2009 के लोकसभा चुनाव में उ.प्र. में कांग्रेस को 22 सीटें हासिल हुई थीं। अमेठी को छूने वाली सुल्तानपुर, रायबरेली, प्रतापगढ़ के साथ ही बाराबंकी और पड़ोस की गोंडा, बस्ती  बहराइच  और फ़ैजाबाद की सीटें इसमें शामिल थीं। इसे राहुल का करिश्मा माना गया था। बढ़े आत्मविश्वास के साथ राहुल ने  उ.प्र. में पार्टी की वापसी के लिए मिशन 2012 का आगाज किया था। उनकी पार्टी के लिए नतीजे निराशाजनक रहे थे। पूरे प्रदेश में पार्टी धराशायी हुई। साथ ही गांधी परिवार का गढ़ समझे जाने वाले अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर की  जिन पन्द्रह  सीटों पर राहुल के साथ उनकी बहन प्रियंका ने  सघन प्रचार किया, उनमे सिर्फ दो पर कांग्रेस जीती। 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल एक बार फिर फ़िसड्डी साबित हुए। उ.प्र. में  उनकी पार्टी अमेठी और रायबरेली की पारिवारिक सीटों के बीच  सिमट गयी।
लोकसभा चुनाव में पार्टी की तगड़ी शिकस्त के बीच अमेठी और रायबरेली ने उनके परिवार की राजनीतिक लाज बचाई थी। नतीजों के  बाद 21 मई 2014 को राहुल और प्रियंका लोगों का आभार व्यक्त करने  अमेठी आये थे। तब राहुल ने  हताश कांग्रेसियों को हौसला देते हुए  कहा था कि ये संघर्ष का वक्त है। वे इसके लिए तैयार हैं। पार्टी ने उनके इस सन्देश को सुना भी और बीच- बीच में नेता- कार्यकर्ता सड़कों पर उतर भी रहे हैं। 17 अगस्त को लखनऊ में राज्य और केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदेश अध्य्क्ष निर्मल खत्री की अगुवाई में बड़ी संख्या में पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया। विधानभवन की ओर बढ़ते इस प्रदर्शन पर  पुलिस की लाठियां बरसीं। खत्री सहित अनेक नेता कार्यकर्ता जख्मी हुए। अगले दिन अमेठी दौरे के लिए राहुल  दिल्ली से लखनऊ अमौसी एयरपोर्ट पहुंचे। लखनऊ से अमेठी की उनकी यात्रा सड़क मार्ग से होनी थी। उम्मीद की जा रही थी कि राहुल लखनऊ में घायल कांग्रेसियों की मिजाजपुर्सी करने के बाद अमेठी का रुख करेंगे। राहुल वक्त नहीं  निकाल सके। ठीक उसी तरह जब  मायावती राज में तब की  प्रदेश अध्य्क्ष रीता बहुगुणा का घर फूंका  गया था। संयोग से तब भी राहुल अमेठी जाने के लिए लख़नऊ पहुंचे थे और उन्होंने प्रदेश की सत्ता से जूझ रही रीता बहुगुणा के साथ खड़े होकर हौसला देने की जगह सीधे अमेठी का रख किया था। जिन्हें कांग्रेस की राजनीति करनी है, उन्हें राहुल जैसे भी हैं क़ुबूल हैं पर जनता के सामने कहां  ऐसी  मजबूरी होती है?

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खुमार खत्म, टीआरपी की भी हवा निकली
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अमेठी और रायबरेली का रुख करते ही प्रियंका गांधी वाड्रा के सक्रिय राजनीति में शामिल होने  की पुरानी  अटकलबाजी नए सिरे से दोहराई जाने लगती है।बचपन से ही अमेठी आती रहीं प्रियंका ने 1999 में अमेठी में अपनी मां सोनिया गांधी के पहले लोकसभा चुनाव की कमान सम्भाली थी। इस चुनाव में वे अपने पिता को धोखा देने वाले अरुण नेहरू से हिसाब- किताब करने रायबरेली पहुंची थीं। उस चुनाव के उनके भाषण की अभी भी चर्चा होती है जिसमें उन्होंने  कहा था कि उस गद्दार को घुसने कैसे दिया जिसने राजीव जी की पीठ में छुरा  भोंका। चुनाव में अरुण नेहरू तीसरे स्थान पर थे जबकि  वीपी सिंह और अरुण  नेहरू के साथ जुड़ने वाले  संजय सिंह की अमेठी में सोनिया के मुकाबले जमानत जब्त हुई थी। प्रियंका की अमेठी और रायबरेली में धूम 2004 और 2009 के चुनावो में भी बनी रही।  चुनाव के मौके  पर इन इलाकों में पहुंचने वाली घर की बिटिया को देखने, सुनने और मिलने के लिए भीड़ उमड़ती रही। फूल बरसते रहे। आरती उतारी जाती रही और बलैया ली जाती रही। लेकिन अब प्रियंका को लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं  नजर आता। लोग उन्हें सिर्फ चुनाव में आने के लिए उलाहने देते हैं। भाई राहुल की शिकायतें करते हैं। 1999 के चुनाव में उनके लिए अख़बारों की सुखियां थी- ‘ वे आईं, मुस्कुराई और छा गईं।’ उनकी मौजूदगी उनके परिवार से इलाके के रिश्तों को मजबूती देती और लोग उनके पिता राजीव गांधी को याद करके जज्बाती हो जाते।
लेकिन अब पैरों के नीचे की सच्चाई ने दिलोदिमाग पर सवार भावनाओं के ज्वार को उतार दिया है। 2012 के विधानसभा चुनाव में इसकी पहली बानगी दिखी। प्रियंका ने रायबरेली, अमेठी और सुल्तानपुर में एक पखवारे तक अपने प्रत्याशियोंके लिए प्रचार किया। फिर भी रायबरेली में उनके पांचों प्रत्याशी हारे। अमेठी में पांच में सिर्फ दो जीत सके और सुल्तानपुर में पांचों  की जमानत जब्त हो गयी। 2014 के लोकसभा चुनाव में अमेठी में प्रियंका की कड़ी  मेहनत के बावजूद राहुल की जीत 2009 के चनाव के मुकाबले तीन लाख सत्तर हजार से घटकर एक लाख सात हजार पर जा गिरी।
कांग्रेसी आज भी प्रियंका को तुरुप का इक्का मानते हैं।उन्हें राहुल के साथ देश भर में सक्रिय करने की मांग उठती रहती है। लेकिन उन्के पारिवारिक इलाकों से निकलने वाले सन्देशों से यही पता चलता है कि सिर्फ चर्चित चेहरे और जज्बाती बातें हमेशा  चुनावों में मददगार नही हो सकते। अब बात अलग है कि बेमौके निगाहें फेरती अमेठी से अपने रिश्तों को मजबूती देने का कोई मौका गांधी परिवार नही छोड़ता। अब तक मम्मा के साथ अमेठी आ रहे प्रियंका के  बेटे रेहान पिछले दिनों अपने दो दोस्तों के साथ अमेठी आये।एक किसान के घर खुलें आसमान के तले मसहरी लगा कर रात बिताई। वहीं खाना खाया और  गांव की जिंदगी को नजदीक से समझने की कोशिश की।
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ऐसे बने थे वोट जुगाड़ू रिश्ते
अमेठी से परिवार के  जो रिश्ते वोटों की फसल उगाने में मददगार साबित होते हैं, उनकी बुनियाद डालने वाले संजय गांधी का परिवार अमेठी के पास रहते हुए भी उससे दूरी बनाये रहता है। आपातकाल के दिनों में एक श्रमदान शिविर के  जरिये संजय गांधी अमेठी में सक्रिय हुए थे। 1977 की जनता लहर ने अमेठी में उन्हें ठुकरा दिया था। 1980 में कांग्रेस की वापसी हुई थी। संजय भी अमेठी से जीते थे। जल्द ही एक विमान  दुर्घटना में उनकी दुखद  मृत्यु हो गयी। पारिवारिक उत्तराधिकार की कश्मकश में ये सीट राजीव गांधी के हिस्से में गयी और तभी से उनके या उनके परिवार के पास रही।
1984 के चुनाव में मेनका गांधी ने राजीव को अमेठी में असफल चुनौती दी थी। इस हार के बाद वे फिर अमेठी नहीं आईं। 2009 के लोकसभा चुनाव में वरुण गांधी पहली बार पीलीभीत से सांसद चुने गए। लेकिन  थोड़े ही वक्त के भीतर अमेठी से सटी सुल्तानपुर सीट पर उन्होंने दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी। माना गया कि बगल की सीट पर उनकी सक्रियता अमेठी में राहुल को परेशान करेगी। अटकल यह भी लगाई गयी कि देर- सवेर अपनी माँ द्वारा अमेठी की विरासत की छेड़ी गयी लड़ाई का अगला अध्याय वे शुरू करेंगे। लेकिन अब तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है। वरुण सुल्तानपुर से चुनाव जीत चुके हैं। प्रियंका ने उन्हें हराने की अपील करते हुए उनके गलत  जगह होने  का चुनावी तीर छोड़ा था। जबाब में वरुण ने कहा था कि उनकी ख़ामोशी को उनकी कमजोरी  ना समझा जाए। इसी के साथ दोनों तरफ की जुबानी जंग थम गयी।
इस चुनाव में मेनका बेटे की मदद के लिए  आईं। प्रचार के आखिरी दिन नरेंद्र मोदी की अमेठी में रैली थी। वे सुल्तानपुर के अमहट हवाई अड्डे पर उतरे। उनका विमान पहुंचने में हुई देरी के बीच वरुण अपने चुनाव प्रचार के लिए  निकल गए। मेनका रुकी रहीं और मोदी से मिलीं । लेकिन वे भी अमेठी नहीं गयीं। मेनका और वरुण अपने भाषणों में अमेठी से सजंय गांधी और परिवार के रिश्तों का हवाला देते रहे लेकिन न चुनाव के दौरान और न उसके बाद परिवार के इस खेमे ने अमेठी की ओर  कभी रुख नहीं किया।
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बता दीजिए दस कांग्रेसियों के नाम…
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1981 में राजीव गांधी अमेठी से पहला चुनाव लड़े। उन्हें मिले 2,58,884 वोटों के मुकाबले विपक्षी उम्मीदवार शरद यादव के वोटों की संख्या सिर्फ 21,188 थी। मतदान से  मतों तक की गिनती में धांधली की भारी शिकायतें थीं। फ़िलहाल कांग्रेस के नए दोस्त शरद ने  तब नेहरू गांधी परिवार की वंशवादी राजनीति के खिलाफ अमेठी के  लोगों को जगाने का संकल्प व्यक्त किया था। चुनाव बाद वे कई बार अमेठी आये। लोगों को सड़कों पर  उतारने की कोशिशें भी की। निराश होकर  यह कहते हुए कि यहां कोई दरवाजे खिड़कियां खोलता ही नहीं, वे अमेठी का रास्ता भूल गए। उस दौर में  केंद्र व राज्य की सरकारें कांग्रेस की ही थीं। विरोध के स्वर दबाने के लिए हर हथकंडे आजमाये जाते थे। लेकिन 1989 बाद से अमेठी की स्थितियां बदली हैं। अब राहुल को किसी बैठक में ही कोई कायर्कर्ता दस कांग्रेसियों के नाम बता देने  की  चुनौती दे देता है। कोई  सीधे उनसे प्रियंका को आगे लाने की मांग कर देता है तो कोई प्रियंका पर सिर्फ चुनाव में नजर आने के लिए तंज कस देता है।
गांधी परिवार के जुड़ाव ने अमेठी को नाम भी दिया है और पहचान भी। यह कारण अमेठी में गांधी परिवार को सबसे ज्यादा मजबूती देता है। लेकिन परिवार की मजबूरी है कि विधानसभा चुनाव में बाकी उ.प्र की तरह  पारिवारिक इलाकों में भी वह पार्टी की  नैया डूबने से नहीं बचा पाता। 2007 के विधानसभा चुनाव में अमेठी की पांच में दो सीटें विपक्षियों के पास थीं। इस चुनौती से  निपटने के लिए 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रियंका आगे आईं। उन्होंने अपने प्रत्याशियों के लिए वोट मांगे। बात फिर भी नहीं बनी।  विपक्ष की सीटें दो से बढ़कर तीन हो  गयीं। ऐसा क्यों हो रहा है? लोगों को  काम चाहिए । प्रदेश की सत्ता से बाहर हुए कांग्रेस को जमाना गुजर गया। दूसरी तरफ वह विपक्ष के तेवर भी नहीं दिखा पाती। अमेठी को लेकर पार्टी के  छोटे- बड़े  सभी फैसलों में 10 जनपथ की मंजूरी जरूरी होती है। राहुल के दौर में एक ओर स्थानीय नेताओं- कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है तो आम लोगों से भावनात्मक स्तर पर रिश्ते कमजोर हुए हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव ने इसकी झलक दिखी और उसने आगे के लिए सचेत किया। हारकर भी स्मृति ईरानी के हौसले बुलन्द हैं। चुनाव बाद के उनके अमेठी दौरों में भीड़ का उत्साह बताता है कि आने वाले दिनों में गांधी परिवार के लिए चुनौतियां बढ़ेंगी।
हिस्से में सिर्फ सुर्खियां
राजनीति अमेठी को देश- दुनिया में  पहचान देती है और यही राजनीति उसकी राह में रोड़े बिखेरती है। मायावती ने अमेठी से गांधी परिवार की पकड़ ढीली करने के लिए पहली बार 2003 में अमेठी को अलग जिला बनाने का  दांव चला। मुलायम की अगली सरकार ने चन्द महीने के भीतर इसे खत्म किया। 2010 में एक बार फिर मायावती ने अमेठी को क्षत्रपति साहू जी महाराज नगर नाम से अलग जिले का दरजा दे दिया। फिर अलग जिले के विरोधियों और हिमायतियों के बीच अदालती लड़ाई चली। हाईकोर्ट ने जिले की अधिसूचना रद्द की लेकिन सरकार के लिए नई अधिसूचना जारी करने का विकल्प खोले रखा। अखिलेश सरकार ने जिले को बरकरार रखा ।लेकिन क्षत्रपति साहू जी महाराज नगर की जगह गौरीगंज को जिला मुख्यालय बनाकर जिले को अमेठी नाम दिया। एक तहसील सलोन को अलग करके रायबरेली में फिर से शामिल कर दिया गया। फ़िलहाल अमेठी संसदीय क्षेत्र तीन जिलों में फैला है। उसके 26 गांव सुल्तानपुर में,एक विधानसभा क्षेत्र रायबरेली में और चार विधानसभा क्षेत्र अमेठी जिले का हिस्सा हैं।

वही रफ्तार बेढंगी
और जिले का हाल?वैसा ही जैसा उ. प्र. में नए बनाये गए जिलों का है। जिला मुख्यालय बनाये जाने के पहले गौरीगंज को टाउन एरिया का भी दरजा नही मिला था। अब नगरपालिका दी गयी है। ये पालिका ब्लाक के दो कमरे में  कागजों पर चलती है। अमेठी टाउन एरिया के अधिशासी अधिकारी को इसका अतरिक्त प्रभार  दिया गया है। चार दशकों के गांधी परिवार के साथ और पांच साल पहले जिला मुख्यालय का रुतबा मिलने के बाद भी गौरीगंज के पास एक अदद बस अड्डा नहीं है। नया जिला बना लेकिन एक भी  नई बस नहीं चली। परिवहन साधनो के अकाल के  कारण गरीब लोगों के लिए  जिला मुख्यालय पहुंचना टेढ़ी खीर है। उत्तरी हिस्से का मुख्यालय से रेल सम्पर्क नहीं है। सुल्तानपुर और रायबरेली के समीपवर्ती क्षेत्रों की आबादी सरकार और अदालत दोनों से फिर से पुराने जिले से जोड़ने की गुहार लगातार कर रही है। उ.प्र. में नए जिलों की घोषणा पहले और उनके आधारभूत ढांचे के बारे में बाद में सोचा जाता है। अधिकारी तैनात कर दिए गए फिर उनके दफ्तर कहां चलेंगे और वहां तैनात लोग कहां रहेंगे- ये उनकी समस्या है। अमेठी की भी यही कहानी है।
नेताजी के पास वक्त कहां?
कलेक्ट्रेट,दीवानी,जेल,अस्पताल,विकास,निर्माण और पुलिस प्रशासन सहित तमाम विभागों के लिए भूमि की तलाश या फिर अधिग्रहण की कोशिशें जारी हैं ।अभी तो जिले को बने सिर्फ पांच साल हुए हैं।जमीन मिलने के बाद की कठिनाइयों के बारे में अभी से क्यों सोचा जाए। जनता को कितनी तकलीफ है इसकी किसे फ़िक्र है।सपाई जिला बनाने के लिए अपनी पीठ ठोंक रहे है और राहुल जी के पास ऐसे छोटे सवालों के लिए वक्त कहाँ?
यह रहा उद्योगों का सच
हर मोरचे पर बदहाल अमेठी उद्योगों के मामले में भी खस्ताहाल है। चार दशकों का साथ और परिवार के चार सदस्यों का प्रतिनिधित्व भी अमेठी की औद्योगिक सेहत सुधार नहीं सका। एचएएल, बीएचई एल,इंडोगल्फ़  फर्टिलाइजर्स और एसीसी सहित सिर्फ चार  इकाइयां गांधी परिवार की कोशिशों की लाज रखे हैं। बेशक यह इलाका
उन्हीं के जरिए औद्यागिक मानचित्र में स्थान पाये हुए है लेकिन भारी भरकम ये इकाइयां सिर्फ इक्कीस से चौबीस सौ के बीच लोगों को रोजगार दे रही हैं। स्थानीय लोगों की उसमे भागीदारी नगण्य है।
राजीव गांधी के  दौर में अमेठी में पांच औद्योगिक क्षेत्र विकसित किये गए।कुल3703.4 एकड़ भूमि का अधिग्रहण हुआ जिसमें से 2538.7 एकड़  भूमि विकसित की गयी। 966 प्लांट बने और उनमे 929 का आबंटन हुआ। इकाइयां कितनी चल रही हैं?उद्योग विभाग इसका सीधा जबाब देने की जगह 148 इकाइयों को पंजीकृत होने की जानकारी देता है। इनमें निजी जमीन और भवनों में चलने वाली इकाइयां शामिल हैं।इनमे 33 चावल मिलें या अन्य कृषि उत्पाद पर आधारित हैं। चार आरा मशीनें और लकड़ी फर्नीचर की इकाइयां हैं। 79 रिपेयर और जॉब वर्क से जुड़ी हैं। 37 अन्य में हस्त शिल्प और कम्प्यूटर केंद्र शामिल हैं।  अगर ये सभी इकाइयां  चलें तो उनसे रोजगार पाने वालों की संख्या सिर्फ 593 है।

उद्योग क्षेत्र बनाम कब्रिस्तान
इलाके का सबसे चर्चित औद्योगिक क्षेत्र जगदीशपुर है। इसे उद्योगोंके कब्रिस्तान के रूप मे अब जाना जाता है। शुरुआत में लगभग सवा सौ इकाइयां लगीं। अब  बीस- पच्चीस बची हैं। इसी इलाके में 702 एकड़ में.फैला मालविका स्टील का कारखाना है।वर्षों की बन्दी के बाद राहुल गांधी की कोशिश से स्टील अथॉरिटी ने उसका अधिग्रहण किया। दो साल के  भीतर उत्पादन शुरू करने के वायदे के साथ 2009 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले उसका  पुनुरुद्धार कार्यक्रम हुआ जिसमे तब के मंत्रियों के साथ गांधी कुनबा शामिल था। तबसे 6 साल से ज्यादा वक्त गुजर गया। वक्त तो ठहरता नहीं लेकिन कारखाने का काम वहीं ठहरा है।  फ़िलहाल राहुल गांधी किसानों की जमीन बचाने के सबसे बड़े पैरोकार हैं।बन्द पड़ी इकाइयों  जिनके शुरू होने की सम्भावना नहीं दिखती, ,की जमीन किसानों से रोजगार के वादे के साथ अधिग्रहीत की गयी थी। बन्द पड़े सम्राट बाइसकिल कारखाने  से जुड़ी 65 एकड़ जमीन जिसे गांधी परिवार के वर्चस्व वाले राजीव गांधी ट्रस्ट ने नीलामी में ले लिया है,  वह भी ऐसे ही वादे के साथ सरकार ने ली थी। त्रिशुंडी में तीन दशक पहले अधिग्रहीत 625 एकड़ भूमि में केवल 10 एकड़ भूमि  यूपीआईडीसी ने विकसित की। काऊहर की 205.78 में सिर्फ 79.8 एकड़ और टिकरिया में 240.16 में केवल 188.4 एकड़ भूमि उद्योगों के लिए विकसित की गयी। एक ओर तमाम अधिग्रहीत भूमि खाली पड़ी हैं तो दूसरी ओर गांधी परिवार की हमेशा राज्य से प्रस्तावित उद्योगों के लिए जमीन उपलब्ध न करने की शिकायत रही है। अमेठी के उद्योगों की बदहाली के बारे में उससे जुड़े पक्षों की अपनी दलीलें है। इन दलीलों में एक यह भी है कि राजनीतिक कारणों से उसके विकास की कोशिशें हुई और  राजनीति ही उन्हें ले डूबी।
न कारखाना चला और न चली साइकिल

लम्बे समय से बन्द सम्राट बाइसकिल कारखाने की राहुल गांधी के  परिवार के प्रभुत्व वाले राजीव गांधी  चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा की गयी खरीद ने भाजपा को उन पर हमले का बड़ा मौका दे दिया है। इस इकाई से 65.57एकड़ जमीन जमीन जुड़ी है। स्मृति ईरानी ने पिछले दिनों अपनी अमेठी की बड़ी सभा में इस मुद्दे को जोरशोर से उठाया और राहुल पर  किसानों की जमीन हड़पने का आरोप जड़ दिया।
स्मृति द्वारा इस मुद्दे को उठाये जाने के बाद आरोप- प्रत्यारोप के बीच  राजनीति तो गरमाई ही है, उद्योग  के नाम पर हुए  गोरखधंधे और पट्टे की जमीन के मालिक बन जाने के एक पुराने किस्से की परतें भी उघड़ी हैं। राजीव गांधी के प्रधानमन्त्री रहते केंद्र और राज्य सरकारों के साथ ही उद्यमियों के बीच भी अमेठी में कुछ करके  उनके नजदीक पहुंचने की होड़ थी। दिल्ली  के जैन  भाइयों ने अमेठी के लोगों को रोजगार देने के वादे के बीच वहां साइकिल कारखाना लगाने की पेशकश की। राजनीतिक वरदहस्त ने उनका काम आसान किया। उ.प्र. औद्योगिक विकास निगम  ने कौहार (अमेठी) स्थित 65.57 हेक्टेयर भूमि 8 अगस्त, 1986  को सम्राट बाइसकिल्स लि. के नाम पट्टे पर आबंटित की। अन्य किस्म की छूट और सहूलियतें भी हासिल हुईं। कारखाने का भवन बना । मशीनें आईं। अनेक स्थानीय लोगों को नौकरियों की चिट्ठियां भी मिलीं। लेकिन मशीनें कभी चली नहीं। कारखाने की कुछ पूरक इकाइयां भी लगीं। इनमे मडगार्ड और पहिये की तीलियां बनाने वाली  एक इकाई अशोक साइकिल  कम्पोनेन्ट थी। बैंक अधिकारी की नौकरी छोड़ कर उद्यमी बने अशोक दुबे ने सम्राट  बाइसकिल के मालिकों के झांसे में अपनी और परिवार की  पूंजी गंवाई और कर्जे का बोझ अलग से सिर पर आ गया।  वह उस दौर को भूल जाना चाहते हैं। दुबे के अनुसार सम्राट कारखाने की मशीनें पुरानी और दिखावटी थीं। वे कभी नहीं चलीं। बाहर से साइकिल के कल- पुर्जे ला कर कुछ मौकों पर असेंबलिंग जरूर हुई लेकिन इन्हें लेकर सुवह निकलने वाला ट्रक शाम को फिर साइकिलों सहित वापस आ जाता था। उनकी बनाई मडगार्ड और तीलियों की सम्राट कारखाने ने एक बार भी खरीद नहीं की। वे बाजार में भी नही बिक सकती थीं क्योंकि उनका आकार सम्राट  के  साइकिल माडल का था और इस माडल की साइकिल बनाने के पहले ही कारखाने में ताला लग गया। नौकरी की चिट्ठियां हासिल करने वाले बहुत दिनों तक गांधी परिवार के सदस्यों के अमेठी दौरों में उनसे मुलाकात करके कारखाने को चलवाने की पैरवी करते रहे । फिर थक कर बैठ गए।
कम्पनी की समापन कार्यवाही के बाद विभिन्न प्रकार के बकायों की वसूली के लिए डीआरटी ने 24 फ़रवरी, 2015  को इसकी कौहार स्थित सम्पति की 20.10 करोड़ में नीलामी करा दी।  राजीव गांधी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र के युवाओं को रोजी- रोटी देने के लिए कारखाने के लिए प्रेरणा और सहयोग किया। वे अपने नेक उद्देश्य में भले सफल नहीं हुए लेकिन उनके टूटे सपनों के अवशेष (बन्द कारखाने)के लिए सबसे बड़ी बोली उनके नाम पर परिवार द्वारा संचालित राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम पर छूटी। ट्रस्ट ने  इसके लिए ई स्टैम्पिंग के जरिये एक करोड़ पचास हजार की स्टैम्प ड्यूटी भी चुकता की।
गांधी परिवार के नाम इस सम्पति के.हस्तांतरण और उसके कारण शुरू हुई राजनीतिक बयानबाजी के बीच जमीन के स्वामित्व के विवाद ने इसमें एक नया कोण जोड़ दिया है। उ.प्र. औद्योगिक विकास निगम के क्षेत्रीय प्रबन्धक आर एस पाठक के अनुसार सम्राट बाइसकिल लि. को जमीन पट्टे पर दी गयी थी लेकिन उसने अवैध तरीके से राजस्व अभिलेखों  में कारखाने में इसे अपने स्वामित्व में दर्ज करा लिया। पाठक के अनुसार उनके विभाग को इस फर्जीवाड़े की जानकारी 2010 में हुई। 2011में  उप जिलाधिकारी गौरीगंज के न्यायालय में इस मामले.में मुकदमा दायर किया गया। राजीव गांधी ट्रस्ट द्वारा नीलामी   में यह सम्पत्ति लिए जाने के बाद क्षेत्रीय प्रबन्धक ने 2जून, 2015 को अमेठी के जिलाधिकारी को जमीन के अधिग्रहण से लेकर  उसे पट्टे पर दिए जाने और फिर पट्टाधारक द्वारा की गयी अवैध कार्यवाही की तफ़सील से जानकारी दी । इस पत्र में कारखाने की जमीन पर निगम के स्वामित्व, उसे निगम के नाम दर्ज करने और  क्रेता (राजीव गांधी ट्रस्ट) का नाम दर्ज न करने की गुजारिश की गयी। कोर्ट ने पिछले हफ्ते ही इस पर जमीन पर निगम का स्वामित्व दर्ज करने का आदेश दिया। लेकिन कांग्रेस की प्रतिक्रिया से लगता नहीं कि यह विवाद यहीं खत्म हो गया है।