प्रदीप सिंह/संपादक/ओपिनियन पोस्ट

अहंकार तो रावण का भी नहीं रहा। सार्वजनिक जीवन में अहंकार ही अंतत: व्यक्ति, संस्था या संगठन के पतन का कारण बनता है। आम आदमी पार्टी के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का अहंकार उनके जनादेश से भी बड़ा हो गया है। उन्हें लगता है कि सारा जमाना उनके खिलाफ साजिश कर रहा है। ऐसे व्यक्ति को कठोर सचाई भी नजर नहीं आती। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को 2015 फरवरी में सत्तर में सड़सठ सीटों का प्रचंड बहुमत मिला। दिल्ली के मतदाताओं ने बाकी दोनों पार्टियों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस का सफाया कर दिया। भाजपा को तो तीन सीटें मिल भी गर्इं लेकिन कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल पाया। आम आदमी पार्टी को पचास फीसदी से ज्यादा वोट मिले। इतना बड़ा जनसमर्थन पार्टी और उसके नेताओं की घोषित नीतियों और उनकी नीयत पर भरोसे की मुहर थी। 2013 के विधानसभा चुनाव के बाद बहुमत न मिलने पर कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाकर पार्टी ने चुनाव से पहले किसी से समर्थन न लेने और किसी को समर्थन न देने का वादा तोड़ दिया। लोग नाराज हुए और 2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी दिल्ली में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत पाई। उसके बाद केजरीवाल महीनों तक घूम घूम कर दिल्ली के लोगों से माफी मांगते रहे। दिल्ली के मतदाताओं ने 2015 में उन्हें एक और मौका दिया। पर पार्टी ने सत्ता में आते ही सबसे पहले लोगों का भरोसा तोड़ा। गाड़ी, बंगला, सुरक्षा के बारे में जो कुछ कहा था सबसे पलट गए। वही सब किया जो उससे पहले के सत्ताधारी करते थे। आम आदमी पार्टी के नेताओं और खासतौर से अरविंद केजरीवाल को लगने लगा कि सत्तर में सड़सठ सीट जीतने के बाद उनको रोकने टोकने का किसी को अधिकार नहीं है। वे यह भूल गए कि सत्तर में छत्तीस (साधारण बहुमत की संख्या) सीट जीतने वाली पार्टी की सरकार को जो अधिकार मिलते हैं वही सड़सठ सीट जीतने वाली को भी।

केजरीवाल को दूसरी गलतफहमी यह हुई कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद उन्हें प्रधानमंत्री को गाली देने का लाइसेंस मिल गया है। उन्हें लगा कि उनका अश्वमेध का घोड़ा विश्वविजय पर निकल पड़ा है। वह जहां जाएगा सत्ता उसके अधीन होगी। पंजाब में पार्टी की लोकप्रियता देखकर तो केजरीवाल ने मान लिया था कि वहां सरकार बन ही गई है बस शपथ लेने की देर है। वह लोगों को आश्वासन देने लगे कि पंजाब में सरकार आने दो। और मीडिया के एक वर्ग को तो धमकी भी देने लगे कि पंजाब में पुलिस हमारे पास होगी। पंजाब ने केजरीवाल को बड़ा झटका दिया। इससे पहले योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और उनके साथियों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाकर केजरीवाल ने सुनिश्चित कर लिया कि पार्टी में ऐसा कोई न रहे जो उनसे सवाल कर सके। इसके साथ ही पार्टी के विधायकों की इन नेताओं के समर्थन में आवाज उठने की आशंका को खारिज करने के लिए थोक के भाव रेवड़ियां बांटीं। यह सोचे बिना कि ऐसा करने का संवैधानिक अधिकार उनके पास है कि नहीं। उन्हें लगा कि उनके फैसले पर कौन सवाल उठाएगा। उन्होंने इक्कीस संसदीय सचिवों की नियुक्ति कर दी। जिस प्रदेश में सात से ज्यादा मंत्री नहीं हो सकते वहां इक्कीस संसदीय सचिव बन गए। केजरीवाल सरकार ऐसे चला रहे थे मानो वह दिल्ली के मुख्यमंत्री नहीं दिल्ली के राजा हों।

अपने राजनीतिक विरोधियों को गाली देते देते उन्हें संवैधानिक संस्थाओं को भी गाली देने की आदत पड़ गई। पार्टी के बीस विधायकों की सदस्यता रद्द होने के बाद पार्टी का पूरा नेतृत्व एक स्वर से तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त पर हर तरह का आरोप लगा रहा है। यह कि उन्होंने अपने कार्यकाल के आखिरी दिन फैसला क्यों दिया और यह भी कि उन्होंने जल्दबाजी में फैसला दिया। दोनों बातें अतार्किक हैं। पहली बात यह कि अगर मुख्य चुनाव आयुक्त रिटायरमेंट से पहले फैसला न देते तो पूरे मामले की सुनवाई फिर से होती। क्योंकि उनके अलावा इस मामले की सुनवाई करने वाले चुनाव आयुक्त रिटायर हो चुके थे। दूसरी बात रही जल्दबाजी की तो यह फैसला दो साल बाद आया है। जया बच्चन के मामले में आयोग का फैसला एक महीने में ही आ गया था। जिस दिन आम आदमी पार्टी की सरकार ने विधानसभा में संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद के दायरे से बाहर रखने और इस संशोधन को पिछली तारीख से लागू करने का प्रस्ताव पास कराया, उसी दिन उसका केस खत्म हो गया था। अब पार्टी जो कर रही है उसे बेवजह की हुज्जत कहते हैं। उसके पास कोई तर्क या तथ्य नहीं है इसलिए वह चुनाव आयोग पर हमला कर रही है।

आम आदमी पार्टी को चाहिए कि उसके नेता बैठकर सोचें कि आखिर वे कब रास्ते से भटक गए। केजरीवाल की पार्टी की एक और उपलब्धि है कि इतने कम समय में किसी पार्टी के नेताओं के खिलाफ मानहानि के इतने मुकदमे दायर नहीं हुए। कुछ में तो उसके नेताओं ने माफी मांगकर जान बचाई। पर कई मुकदमे अभी चल रहे हैं। योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और कपिल मिश्र के बाद अब केजरीवाल के निशाने पर पार्टी के संस्थापक सदस्य कुमार विश्वास हैं। उन्हें राज्यसभा में न भेजकर पार्टी ने उनसे ज्यादा अपना नुक्सान किया है। केजरीवाल एक समय फैसले लेने की प्रक्रिया का विकेन्द्रीकरण करने की वकालत करते थे। पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र के भी वे बड़े पैरोकार थे। पर ये सब ज्ञान की बातें तभी तक के लिए थीं जब तक वे सत्ता में नहीं आ गए। हिंदी की एक मशहूर फिल्म थी चलती का नाम गाड़ी। उसके एक गीत की दो पंक्तियां हैं- ‘हम थे वो थी और समां रंगीन समझ गए ना, जाते थे जापान पहुंच गए चीन समझ गए ना।’ अरविंद केजरीवाल के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। या हो सकता है कि हम लोगों के समझने में ही गलती हुई है। केजरीवाल जहां जाना चाहते थे वहीं पहुंचे हैं। हमने बेवजह उनकी बातों पर भरोसा करके मान लिया कि वे वहीं जाना चाहते हैं जहां कह रहे थे।
अरविंद केजरवाल और आम आदमी पार्टी का भविष्य क्या होगा यह तो पता नहीं पर भारतीय राजनीति का उन्होंने बहुत नुक्सान किया है। बीस विधायकों के अयोग्य होने के बावजूद उनके पास स्पष्ट बहुमत है। उनकी सरकार को फिलहाल कोई खतरा नहीं है। सरकार अपना बचा हुआ कार्यकाल पूरा कर पाएगी या नहीं यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि बीस सीटों के उपचुनाव के नतीजे क्या आते हैं। इन उपचुनावों में पार्टी अगर बुरी तरह हारती है तो राजनीतिक अनिश्चितता और अस्थिरता का दौर शुरू हो जाएगा। पर यदि पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो उसके दो साल निष्कंटक रहेंगे। इस सबके बावजूद केजरीवाल को अपनी राजनीतिक शैली पर फिर से विचार करने की जरूरत है। बात विरोधियों की नहीं है। बात उनके ही राजनीतिक हित की है। 2015 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद से पार्टी को कोई अच्छी खबर नहीं मिली है। पंजाब के अलावा वह जिन प्रदेशों में विधानसभा चुनाव लड़ने गई वहां कामयाबी तो दूर उसके उम्मीदवारों के लिए जमानत बचाना भी मुश्किल हो गया। एक ऐसी पार्टी और नेता जिसमें सिर्फ चार साल पहले देश के एक बड़े वर्ग को राष्ट्रीय विकल्प की संभावना नजर आ रही थी उसकी यह दुर्दशा दुखद ही कही जाएगी। आम आदमी पार्टी आज जिस हालत में है उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अरविंद केजरीवाल जिम्मेदार हैं। केजरीवाल अब भी नहीं संभले तो यह उनके राजनीतिक करियर के अंत की शुरुआत हो सकती है। 