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बृजेश शुक्ल।  1991 की बात है। मेरे एक मित्र थे फजुरुलबारी। श्री बारी गोण्डा से विधायक थे। देश भर में रामजन्म भूमि आंदोलन चल रहा था। एक दिन उनसे मिलने गया तो देखा कि वह चिंता में डूबे हुए थे। मैंने पूछ लिया- आज आप बहुत चिंतित दिख रहे हैं। श्री बारी बोले- मैं वीपी सिंह का समर्थक हूं, सामाजिक न्याय का पैरोकार हूं, लेकिन अब मुझे इस देश में सिर्फ एक राजनीतिक दल में ही आशा की किरण नजर आती है। मैंने पूछा- कौन सा दल है वह। श्री बारी ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी। इस देश में जब मुगल आए, तब यह लगा था कि ब्राह्मणों का वर्चस्व समाप्त हो गया है लेकिन मुगल काल में भी ब्राह्मण ऊंचे-ऊंचे पदों पर पहुंच गए। फिर बुद्धिजीवी माने जाने वाले अंग्रेज आ गए। तब लगा कि अब अंग्रेजों को ब्राह्मणों की क्या जरूरत है, वे स्वयं बुद्धिमान हैं। लेकिन यह विडम्बना ही है कि अंग्रेजों के शासन में ब्राह्मण उच्च पदों पर रहे। फिर देश आजाद हुआ और एक आदमी एक वोट समय आया। मैं देख रहा हूं कि ब्राह्मणों की ताकत घटी नहीं। वे येन केन प्रकारेण किसी न किसी रास्ते से सत्ता के नजदीक पहुंच जाते हैं। बसपा के नारों से लगता है कि वह ब्राह्मणों को किनारे कर देगी लेकिन डर लगता है कि कहीं किसी दिन इस पार्टी में भी ब्राह्मण न घुस जाएं। मैं हंसा- भाई साहब यह अनहोनी होगी। जो पार्टी ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है उसमें ब्राह्मणों के लिए जगह कहां?

14 अप्रैल को जब मायावती अपनी रैली में दलित महापुरुषों और दलित गुरुओं की मूर्तियां लगाने व बनाये गए स्मारकों के संबंध में सफाई देती नजर आर्इं, तो मुझे बारी का वह कथन याद आ गया कि जिस दिन पार्टी में ब्राह्मण घुस आएंगे उसी दिन से यह पार्टी आन्दोलन की बजाय सामान्य पार्टी बन जाएगी।

बसपा के सभी नेताओं ने यह मान लिया है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन होने वाला है। उनकी सरकार आएगी यह मान कर बसपा नेताओं द्वारा अभी से बधाइयां ली और दी जा रही हैं। लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती इस तथ्य को समझ रही हैं कि उनका रास्ता बहुत कठिन है। उनकी अपनी ही पिछली सरकार ने उनके रास्ते में जो कांटे बिछा दिये हैं, उन्हें हटा पाना आसान नहीं। अब तक बसपा ने जो कदम आगे बढ़ा दिये थे उस पर अपने कदम पीछे नहीं किये लेकिन इस बार मायावती माफी की मुद्रा में दिख रही हैं। वह लोगों को यह वादा करते नहीं थक रही हैं कि यदि उनकी सरकार आई तो न तो मूर्तियां लगवाई जाएंगी, न पार्क व स्मारक बनवाए जाएंगे। साफ है कि उन्हें अपने मिशन से ही समझौता करना पड़ रहा है और यह उनकी मजबूरी भी है और इसके कुछ कारण भी हैं।

वैसे तो चुनावी सर्वेक्षण के आधार पर दावे किये जा रहे हैं कि बसपा सत्ता के नजदीक पहुंच गई है लेकिन राजनीतिक परिदृश्य को जमीनी स्तर पर देखने वाले यह भूल नहीं कर सकते। इस बार का चुनाव न सिर्फ बसपा बल्कि सभी दलों के लिए खुला हुआ है। यह कहना कठिन है कि सत्ता का पाला कौन छू लेगा। 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ मायावती सत्ता में आई थीं। तब मुलायम सिंह की सरकार थी और लोगों में मुलायम को हटाने का जुनून था। सारे मतदाता एकजुट होकर बसपा के साथ खड़े हो गए। लक्ष्य था कि जो मुलायम को सबक सिखा सके उसे सत्ता में ले आओ। लेकिन पांच साल के मायावती के शासन में अन्य वर्गों का ही नहीं बल्कि दलित मतदाताओं का भी मोह भंग हुआ। इसके कुछ कारण थे। सत्ता में आने के पहले दिन से ही मुख्यमंत्री की सुरक्षा इतनी कड़ी हो गई कि उनके व अवाम के बीच की दूरी बहुत बढ़ गई। अधिकारी निर्णय करने लगे। मायावती ने लोगों से मिलना बन्द कर दिया। लोगों के बीच यह चर्चा का विषय बन गया कि अमेरिका के राष्ट्रपति से मिलना कठिन है या मायावती से।  प्रदेश के दौरों में भी मायावती के बुलेट प्रूफ कार के दरवाजे के शीशे कभी नहीं खुले। दलितों के एक वर्ग के लिए उनके प्रेरणा स्रोत गुरुओं के स्मारक महत्वपूर्ण थे, लेकिन एक बड़ा वर्ग ऐसा था जो यह सपने सजाए हुए था कि जब मायावती की सरकार आएगी तब दलितों का कायाकल्प हो जाएगा। दलित बस्तियों में खुशहाली आएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सत्ता के वही बिचौलिये ज्यादा ताकतवर हो गए, जो धन के बल पर शासन में अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं। उन लोगों के लिए वह सरकार कहीं ज्यादा उदारवादी साबित हुई, जिनके पास धनबल और बाहुबल था। लोगों ने देखा कि जिन सवर्ण और ब्राह्मणवाद के खिलाफ वे जिन्दगी भर लड़ाई लड़ते रहे, नारे लगाते रहे, वहीं ब्राह्मण निचले स्तर पर सत्ता के केन्द्रों पर कब्जा जमाये थे। 2011 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दौरे के दौरान आगरा में रामजी शर्मा मिल गए थे। रामजी शर्मा अपने को कांशीराम का सबसे कट्टर समर्थक बताते थे। एक बसपा नेता से पूछा तो उसने बताया कि जिस दिन से बहिन जी की सरकार आई उसी दिन से सपाई  झंडे के रंग वाला पटका कहीं फेंक दिया और नीला पटका धारण कर लिया है। अधिकारी अब इन्हीं की सुनते हैं। यह आश्चर्यजनक था। मायावती सरकार में वे लोग हावी हो गए, जिनकी इस पार्टी की प्रगति से कुछ लेना देना नहीं था। 2009 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न देखा। बसपा के रणनीतिकारों ने मायावती को यह विश्वास दिला दिया कि उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों की जनता बसपा को वोट देने को उतावली बैठी है। पार्टी को लोकसभा चुनाव में कम से कम 80 सीटें मिलेंगी। लोकसभा में किसी को बहुमत नहीं मिलेगा और कांग्रेस व भाजपा में आपको प्रधानमंत्री बनाने की होड़ मचेगी। उसी बीच ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति चुन लिए गए। मायावती को प्रधानमंत्री बनवाने में लगे अधिकारी पत्रकारों को फोन कर कर के यह बताने लगे कि दलितों के हाथ सत्ता आने की शुरुआत हो गई है लेकिन अमेरिका के चुनाव परिणामों को भारत में अपनी सुविधा के अनुसार फिट बैठाने वालों को निराशा हाथ लगी। चुनाव में बसपा की पराजय हुई। उत्तर प्रदेश में ही बसपा सपा व कांग्रेस से भी पिछड़ गई।

2012 के विधानसभा चुनाव में परिदृश्य वही था, मुद्दे वही थे, बस अन्तर इतना था कि इस बार लोग मुलायम की जगह मायावती को हटाने पर उतारू हो गए। बसपा 80 सीटों पर ही सिमट गई। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा के प्रति लोगों की धारणा नहीं बदली। मायावती की पार्टी को लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न मिलना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में अजूबा माना जाएगा। साफ था कि मायावती प्रतिदिन यह साबित करने की कोशिश करती रहीं कि मोदी पिछड़े नहीं हैं, लेकिन जनता ने उनकी एक नहीं सुनी। मायावती शायद यह भूल रही हैं कि जिस हथियार के बल पर उन्होंने अपनी पार्टी को इतना बढ़ाया वही हथियार दूसरे भी इस्तेमाल कर सकते हैं। 2009 के बाद बसपा एक भी चुनाव नहीं जीत सकी। दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र और बिहार में पार्टी का जनाधार और भी सिकुड़ गया है। इन राज्यों में मायावती का खाता तक नहीं खुला।

2017 के विधानसभा चुनाव बसपा के लिए निर्णायक होने वाले हैं। यदि बसपा इस लक्ष्य को चूक गई तो पार्टी के बिखरने का खतरा भी पैदा हो सकता है। जमीनी सच्चाई यही है कि जिस जनाधार के बल पर 2007 में बसपा सत्ता में आई थी, उसमें दरारें आ चुकी हैं। एक तरफ मतदाताओं में अखिलेश यादव को हर कीमत पर हटा देने की जिद नहीं दिख रही है, दूसरी ओर बहुजन समाज पार्टी सत्ता में आ जाए, यह अकुलाहट मतदाताओं के मन में नहीं है। 2014 लोकसभा चुनाव में हार के बाद अखिलेश यादव ने अपनी रणनीति में बदलाव किया। विकास कार्यों को गति दी। उससे भी बड़ी बात यह है कि मतदाताओं के तमाम शिकवा शिकायतों के बावजूद अखिलेश यादव सबसे मिल लेते हैं, लोग अपनी बात सोशल मीडिया के जरिये भी उन तक पहुंचा देते हैं, उस पर कार्रवाई भी हो जाती है। अखिलेश यादव की उपलब्धता विपक्षियों के लिए कठिनाई पैदा करती है। दूसरी ओर बहुजन समाज पार्टी के पास उसका आधार मतदाता दलित वोट है लेकिन उसमें भी कुछ बिखराव है। जाटव मतदाता तो मजबूती से मायावती के साथ खड़ा है, लेकिन अन्य दलित जातियां अपने अपने जातीय समीकरण या सुविधा के अनुसार वोट कर सकती हैं। पिछड़े मतदाता बसपा से छिटक चुके हैं। बसपा की कोशिश है कि किसी तरह मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में लाया जाए लेकिन इसके लिए मायावती वह खुला खेल नहीं खेल सकतीं जैसा समाजवादी पार्टी खेल सकती है। सपा के पास मुस्लिम नेताओं की फौज है। पिछले दिनों बसपा नेता नसीमुद्दीन मुस्लिम धर्म गुरुओं से मिले थे। लेकिन इन प्रयासों से मुस्लिम वोट बसपा के खाते में चला जाएगा यह कहना कठिन है।

तमाम शिकवा शिकायतों के बावजूद अभी भी मुसलमानों को लगता है कि बसपा से समाजवादी पार्टी उनके लिए कहीं ज्यादा बेहतर है।  कांग्रेस के प्रति भी मुसलमानों का नरम रुख है, जबकि बसपा के बारे में यह भ्रम बना रहता है कि वह कब सत्ता के लिए भाजपा के साथ बैठ जाए। सवर्ण मतदाता मोदी से प्रभावित हैं। फिलहाल वह भाजपा के साथ खड़ा नजर आता है। आने वाले छह महीने बसपा के लिए बहुत निर्णायक हैं। बसपा ने अपनी 2007 की रणनीति पर अमल करना शुरू कर दिया है। वह ज्यादातर मुसलमानों और ब्राह्मणों को टिकट दे रही है, लेकिन कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भी रुहेलखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में मुसलमानों को मैदान में उतारने जा रही है। यह कहना जल्दबाजी ही होगा कि मुस्लिम वोट बिखर जाएगा। लेकिन जहां तीन तीन मुस्लिम प्रत्याशी होंगे वहां पर सबसे कठिन रास्ता बसपा के लिए ही होगा। मायावती लखनऊ में डेरा डाल चुकी हैं। रणनीतिकारों के साथ उनकी बैठकें हो रही हैं। टिकटों को अंतिम रूप दिया जा रहा है। कई स्थानों पर टिकट बदले भी गए हैं। वह अब ज्यादातर समय उत्तर प्रदेश में गुजारेंगी। मायावती जानती हैं कि उनका काम पूर्ण बहुमत से ही बन पाएगा। यदि बसपा सबसे बड़ी पार्टी बनती भी है, तब भी बसपा के लिए राह कठिन होगी। यदि वह जीतती है तो आगे अन्य राज्यों के बारे में भी बड़े सपने देख सकती हैं। यदि हारेगी तो फिर पार्टी के लिए अपना अस्तित्व बचाने का संकट पैदा हो जाएगा। 