विवादों के नामवर…

उमेश चतुर्वेदी ।

क्या लोकतांत्रिक समाज में लेखकों को वैचारिक विरोधी दलों की सरकारों का बहिष्कार करना चाहिए। क्या रचनाधर्मिता की एक मात्र विरोधी सत्तातंत्र के खिलाफ हर अच्छे-बुरे मौके पर खड़ा होना चाहिए। क्या सत्तातंत्र को अपने विरोधी विचारधारा वाली साहित्यिक जमात से कोई संवाद नहीं रखना चाहिए। आजादी की 67वीं वर्षगांठ के ठीक एक पखवाड़ा पहले ये सारे सवाल फकत इसलिए उठे क्योंकि हिंदी साहित्य के शलाका पुरुष, जाने-माने आलोचक और विश्वविद्यालयों की हिंदी की दुनिया के बेताज बादशाह प्रगतिशील लेखक नामवर सिंह ने सरकारी संस्था इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की ओर से आयोजित अपने 90वें जन्मदिन समारोह में न सिर्फ शिरकत की बल्कि उन लेखक और संस्कृति संघों के विरोध के बावजूद हिस्सा लिया, जिसके वे सदस्य और सहयोगी रहे हैं।

नामवर सिंह बेशक हिंदी की लालित्य परंपरा के पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य हैं। उनके ही जीवन और समालोचन कर्म पर केंद्रित पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के जरिये हिंदी साहित्य के आकाश में चमके। लेकिन उनकी छवि ज्योतिष परंपरा और संस्कृत साहित्य के ज्ञानी अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी के ठीक उलट वाम आंदोलन के संस्कृतिकर्मी की रही है। 1959 में उत्तर प्रदेश के चंदौली लोकसभा सीट के उपचुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने के चलते उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लेक्चरर की नौकरी तक गंवानी पड़ी थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार जनयुग के वे संपादक रह चुके हैं। वामपंथी विचारधारा के गढ़ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा विभाग के संस्थापक रहे नामवर सिंह जब वामपंथी विचारधारा के ठीक उलट भारतीय जनता पार्टी के अधीन कार्यरत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की ओर से 28 जुलाई को आयोजित कार्यक्रम में हिस्सेदारी लेने की स्वीकृति दें तो विवाद न होना ही अस्वाभाविक होता।

उन्हें इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने से रोकने की वामपंथी कोशिशें हुर्इं। कुछ वामपंथी लेखकों ने विरोध में नामवर के घर के सामने धरना तक देने की परोक्ष तौर पर धमकी भी दी। लेकिन नामवर को न झुकना था और न झुके। ऐसे में प्रतिक्रिया न हो, यह भी संभव नहीं था। जिस प्रगतिशील लेखक संघ के 2012 तक नामवर सिंह अध्यक्ष रहे, उसी प्रगतिशील लेखक संघ ने उनसे किनारा कर लिया। गनीमत यह रही कि उन्हें अपने संगठन से निष्कासित नहीं किया। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव जावेद अली ने बाकायदा बयान जारी करके नामवर सिंह से संघ के अलग होने का ऐलान किया। यह बात और है कि इसका बहाना यह बनाया गया कि संघ के अध्यक्ष पद से अलग होने के बाद से ही नामवर सिंह संघ के किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए हैं।

भारतीय वाम आंदोलन कितना कमजोर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों के साथ उसका कोई कार्यकर्ता खाना भी खा लेता है तो उसकी वैचारिक दीवार में दरार पड़ने लगती है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान माकपा के एक मुखर राज्यसभा सदस्य थे व्रतिन सेन गुप्ता। उन्होंने एनडीए सांसदों के लिए प्रधानमंत्री निवास में आयोजित भोज में शिरकत कर ली। माकपा ने उन्हें न सिर्फ पार्टी से निकाल दिया बल्कि उन्हें अगली बार राज्यसभा का टिकट भी नहीं दिया। अलबत्ता भोज में शामिल होने से पहले तक वे वाम खेमे के सबसे प्रतिभाशाली सांसद माने जाते थे। उन्हीं दिनों जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष कवि त्रिलोचन ने हिंदू प्रतीकों के सम्मान में बयान दे दिया था तो जनवादी लेखक संघ ने उन्हें संगठन से ही निकाल बाहर किया था। तब उनकी वृद्धावस्था का भी लिहाज नहीं किया गया। कुछ ऐसा ही इस बार नामवर सिंह के साथ हो रहा है।

चूंकि वाम आंदोलन में अब वैसा दम नहीं रहा, लिहाजा वैसी कठोरता नजर नहीं आ रही। हिंदी और मैथिली के जाने-माने कवि और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित गंगेश गुंजन वाम आंदोलन की इस संकीर्ण मानसिकता पर कड़ी चोट करते हैं। उनका कहना है कि नामवर सिंह बेशक राष्ट्रवादी खेमे की सरकार द्वारा संचालित संस्था के कार्यक्रम में शामिल हुए हों लेकिन एक लेखक, एक आलोचक और एक अध्यापक के रूप में हिंदी को उन्होंने जो दिया है, कम से कम उसका सम्मान और लिहाज होना चाहिए। गुंजन कहते हैं कि वाम खेमे ने उनकी मेधा का सम्मान नहीं किया।

ऐसा नहीं है कि नामवर के सम्मान को लेकर राष्ट्रवादी खेमे में विरोध नहीं था। यहां भी जमकर विरोध हुआ। राष्ट्रवादी खेमे के लेखकों का दर्द है कि नामवर ने उन्हें जगह-जगह नुकसान पहुंचाया है। राष्ट्रवादी विचारधारा वाली मनीषाओं को विश्वविद्यालयों, अकादमियों और दूसरी प्रतिष्ठित जगहों पर वाजिब स्थान हासिल करने से रोकने, राष्ट्रवादी विचारधारा का विरोध करने में नामवर सिंह पीछे नहीं रहे हैं। चूंकि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष रामबहादुर राय को मौजूदा सरकार ने नियुक्त किया है और जिस संस्कृति संवाद शृंखला के तहत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने नामवर सिंह को सम्मानित किया, उसकी शुरुआत रामबहादुर राय की पहल पर ही हुई है। इसलिए नामवर को सम्मानित किए जाने को लेकर राष्ट्रवादी खेमा भी अंदरखाने नाराज था। लेकिन रामबहादुर राय इससे बेपरवाह रहे। उन्होंने सम्मान के मौके पर नामवर सिंह को हिंदी की थाती बताते हुए कहा, ‘लिखना और बोलना एक तरह की साधना है। प्रोफेसर नामवर सिंह इससे परे जाकर सिद्ध हो चुके हैं।’ इस कार्यक्रम में गृह मंत्री राजनाथ सिंह और संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने भी शिरकत की। जाहिर है कि राष्ट्रवादी खेमे की अंदरूनी नाराजगी का खास असर कार्यक्रम पर नहीं रहा।

प्रोफेसर सिंह के जन्मदिन समारोह को नाम दिया गया था ‘नामवर की दूसरी परंपरा’। सवाल यह है कि क्या नामवर का दूसरी परंपरा में पदार्पण हो रहा है। राष्ट्रवादी खेमे पर वामपंथी खेमा आरोप लगाता है कि उसके पास वामधारा जैसा गहन बौद्धिक समाज नहीं है। तो क्या नामवर सिंह अब इस धारा की थाती बनने जा रहे हैं। वैसे यह पहला मौका नहीं है जब नामवर सिंह ने किसी राष्ट्रवादी धारा द्वारा संचालित सरकारी संस्थान के कार्यक्रम में हिस्सेदारी की है। भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय को जब एक दशक पहले अच्युतानंद मिश्र के कुलपति रहते बजरंगियों का अड्डा कहकर वामपंथी खेमा हंगामा मचा रहा था, तब भी नामवर सिंह वहां के एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे। हिंदी लेखक प्रेमपाल शर्मा कहते हैं कि हिंदी में इस संकीर्णता को खत्म करना चाहिए। लेखक और समालोचक अजय तिवारी सवाल उठाते हैं कि जब रूपंकर कलाओं मसलन संगीत, नृत्य आदि में ऐसी प्रवृत्ति नहीं है, वहां संस्कृतिकर्मी सरकार का विरोध भी करते हैं और उसके आयोजनों में हिस्सा भी लेते हैं तो फिर लेखक ही इस तरह के वैचारिक छुआछूत को क्यों बढ़ावा देते हैं। इस पर अब विचार होना चाहिए।

वैसे अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश जैसे हिंदी लेखकों का एक खेमा जब दादरी में गोमांस को लेकर हुए हंगामे पर पुरस्कार वापसी का अभियान चला रहा था तब इस अभियान का भी नामवर सिंह ने विरोध किया था। इस बार अपने जन्मदिन का विरोध करने वालों को जवाब देते हुए नामवर ने कहा था, ‘क्या विश्वविद्यालयों, अकादमियों में नौकरी करने वाले लोग विपरीत विचारधारा की सरकारें आने के बाद नौकरियां छोड़ देते हैं? तो फिर विपरीत विचारधारा की सरकार द्वारा आयोजित कार्यक्रम में हिस्सेदारी पर सवाल क्यों? ’ वैसे सवाल तो अब पुरस्कार वापसी के अगुआ रहे अशोक वाजपेयी, प्रियदर्शन, रक्षंदा जलील, मंगलेश डबराल, पुरुषोत्तम अग्रवाल, सीमा मुस्तफा और अपूर्वानंद जैसे साहित्यकार और पत्रकार से भी पूछा जाना चाहिए जो हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिले हैं। ये सारे लेखक-पत्रकार बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त पुरस्कार वापसी अभियान में शामिल थे। सवाल यह है कि अगर उनका नीतीश कुमार से मिलना जायज है तो नामवर सिंह का एक राष्ट्रवादी सरकार द्वारा संचालित संस्था द्वारा जन्मदिन मनाना और उसमें हिंदी की थाती का शामिल होना क्यों गुनाह है? इस सवाल का जवाब हिंदी समाज को ही ढूंढना होगा। 

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