बाजार के दबाव में हिंदी भले ही जनभाषा के तौर पर स्वीकार्य हो गई हो, अभी-भी उसे कायदे से राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन होने का इंतजार है। उच्च न्यायपालिका में हिंदी को स्थापित करने की अभी मांग को कायदे से सुना भी नहीं जा रहा कि भाषा और बोली के विवाद खड़े होने लगे हैं। राजनीतिक कम, संवैधानिक ज्यादा हैसियत हासिल करने की कोशिशों में क्षेत्रीय बोलियों को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग उठने लगी है। जिसका एक वर्ग विरोध भी कर रहा है। भाषा बनाम बोली के इस विवाद के बीच जाने-माने पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी बनारसी दास चतुर्वेदी का 1981 में आकाशवाणी को दिए एक साक्षात्कार को याद कर लेना चाहिए। इस साक्षात्कार में उन्होंने बोलियों और भाषा को लेकर बड़ी बात कही थी। उन्होंने कहा था- ‘ये जो बोलियां हैं, अवधी है, ब्रजभाषा है, मैथिली है, खड़ी बोली की माता हैं। खड़ी बोली इनसे निकली है, ये खड़ी बोली की सौत नहीं हैं। प्रवासी, अभ्युदय, विशाल भारत, मधुकर जैसे हिंदी का इतिहास रचने वाले अखबारों-पत्रिकाओं के संपादक रहे बनारसी दास चतुर्वेदी की यह बात भाषा विज्ञानी सुनीति कुमार चटर्जी की उस स्थापना के विरुद्ध है, जो यह मानती है कि खड़ी बोली, अवधी, ब्रज आदि बहनें हैं और अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से विकसित हुई हैं। अकादमिक जगत में इस तथ्य को भले ही स्वीकर नहीं किया गया पर व्यावहारिक रूप से देखें तो बनारसी दास चतुर्वेदी की यह स्थापना ही कहीं ज्यादा मुफीद नजर आती है।

बनारसी दास चतुर्वेदी की इस स्थापना पर विचार करने की जरूरत आज कहीं ज्यादा है। जिसे भारत का व्यापक हिंदी समाज माना जाता है, उस पूरे क्षेत्र की कई बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग लगातार बढ़ रही है। इसमें सबसे बड़ा बोली क्षेत्र भोजपुरी परिवार है। राजधानी दिल्ली में अजीत दुबे की अध्यक्षता वाला अखिल भारतीय भोजपुरी समाज आए दिन मांग पत्र देता रहता है तो संतोष पटेल की अगुआई में जंतर-मंतर पर धरना तक दिया गया। यह मांग लोकसभा में कई बार उठ चुकी है, जिस पर पहली बार 17 मई 2012 को सरकार ने प्रतिक्रिया दी थी। उस दिन भोजपुरी का सवाल तब कांग्रेस और अब भारतीय जनता पार्टी के सांसद जगदंबिका पाल ने उठाया था। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के सांसदों ने उसका समर्थन किया था। उनके सवाल का जवाब तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने भोजपुरी में देकर सबको चौंका दिया था। चिदंबरम ने कहा था कि वे भोजपुरी इलाके के सांसदों की भावनाओं को समझते हैं। तब उन्होंने भरोसा दिलाया था कि मशहूर साहित्यकार और भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में गठित समिति के मुताबिक कार्यवाही करेंगे। तब इसका जहां भोजपुरी समाज के बड़े हिस्से ने स्वागत किया था तो एक वर्ग ऐसा भी था जिसे यह कदम हिंदी की राह में रोड़ा बनता नजर आया था।

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इस पर क्या कार्रवाई हुई, इस पर चर्चा बाद में… लेकिन पहले यह जान लेते हैं कि भारत के जाने-माने भाषा वैज्ञानिक सुनीति कुमार चटर्जी ने भारतीय भाषाओं को लेकर क्या व्यवस्था दी है। उनके मुताबिक राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ मूलत: हिंदीभाषी क्षेत्र हैं। लेकिन हकीकत यह है कि हर राज्य या क्षेत्र में अपनी अलग-अलग बोलियां हैं और भाषाएं भी। इन अर्थों में कहें तो हिंदी, जिसका प्रतिनिधित्व खड़ी बोली करती है, भाषाओं और बोलियों का ना सिर्फ समुच्चय है, बल्कि उनके आपसी संवाद का माध्यम भी है। हालांकि पहले भाषा विज्ञानी सैद्धांतिक रूप से भाषा और बोली में फर्क करते रहे हैं। उनके मुताबिक शिष्ट साहित्य के बिना कोई बोली भाषा नहीं बन सकती और जिस बोली में शिष्ट साहित्य की परंपरा नहीं है, वह भाषा नहीं हो सकती। इसी तर्क के आधार पर विशाल भूभाग और जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली भोजपुरी अब भी संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान बना पाने से वंचित है। कुछ यही हाल राजस्थानी का भी है। हालांकि राजस्थानी को लेकर भी लड़ाई जारी है जिसे अब केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो चुके अर्जुन राम मेघवाल ने जारी रखा है तो भोजपुरी की लड़ाई को जगदंबिका पाल, राष्ट्रीय जनता दल के पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह आदि का समर्थन है। इसके साथ कई और छोटे-छोटे समूह भी अपने-अपने इलाकों में स्थानीय स्तर पर इसकी मांग कर रहे हैं।

भाषा और बोली के इस विवाद में स्लोवेनिया के ल्जूब्लजाना विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान पढ़ा रहे प्रोफेसर अरुण प्रकाश मिश्र बोली और भाषा के पारंपरिक तर्क को सिरे से खारिज करते हैं। उनका मानना है कि दुनिया में आज तक न कोई भाषा बोली बनी है और न बनेगी। उनका कहना है कि बोली से भाषा बनती है, भाषा से बोली नहीं बनती। अपने तर्क को साबित करते हुए कहते हैं कि संस्कृत कुरु-प्रदेश की कौरवी बोली (कुरु-प्रदेश में बोली जानेवाली बोली) से भाषा बनी, हिंदी खड़ीबोली से भाषा बनी। वैसे भाषा वैज्ञानिक मानते हैं कि भाषा का विकास राजनैतिक-प्रशासनिक और व्यापारिक कारणों से होता है। अगर हिंदी का भी व्यापक प्रसार हो रहा है तो उसकी बड़ी वजह राजनैतिक-प्रशासनिक और व्यापारिक केंद्र हैं। अरुण प्रकाश मिश्र के मुताबिक इस प्रक्रिया को न रोका जा सकता है और न बढ़ाया जा सकता है।
अरुण प्रकाश मिश्र के मुताबिक हिंदी की सभी बोलियां अब ‘भाषा’ बन चुकी हैं। उनकी अब अपनी राष्ट्रीयताएं हैं। दिल्ली-आगरा की खड़ीबोली की भाषा लघुजाति के स्तर को पार कर महाजाति बनने की प्रक्रिया में है। भाषा को लेकर जो अकुलाहट-बौखलाहट-चरमराहट दिखाई दे रही है, वह इसी की प्रतिक्रिया है। हालांकि भोजपुरी समाज के अजीत दुबे इससे दूसरी तरह से इत्तफाक रखते हैं।

भाषा विज्ञान के प्रोफेसर रहे और डॉ. विद्यानिवास मिश्र के अधीन पीएचडी और डीलिट की उपाधि हासिल कर चुके डॉ. रघुवंशमणि पाठक कहते हैं कि हिंदी को उसके विशाल क्षेत्र की संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम, इसकी बोलियों को इसके भीतर जगह देकर ही बनाया जा सकता है। वैसे बोलियों को भाषा परिवार के तौर पर मान्यता दिलाने के आंदोलन को राष्ट्रवादी विचारक हिंदी के विरुद्ध मानते हैं। उनका मानना है कि अगर बोलियों को ताकत मिल गई तो हिंदी कमजोर होगी। हालांकि अजीत दुबे, बनारसी दास चतुर्वेदी की तरह इस तर्क से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि इस तर्क के सहारे विशाल भोजपुरी परिवार को उसके वाजिब हक से दूर नहीं रखा जाना चाहिए।

बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध करने वालों का तर्क है कि आठवीं अनुसूची में शामिल होते ही बोलियां स्वतंत्र भाषा के तौर पर गिनी जाने लगती हैं और उन्हें बोलने वाले हिंदीतर भाषी के रूप में पहचाने जाने लगते हैं। चूंकि हिंदी के राजभाषा बने रहने का बड़ा आधार उसका संख्या बल भी है। लिहाजा हिंदी समर्थकों को आशंका है कि जैसे ही हिंदी का संख्या बल क्षीण होगा, अंग्रेजी को एकमात्र राजभाषा बनाने की मांग जोर पकड़ लेगी। हिंदी और बोलियों के विवाद में हिंदी समर्थकों का मानना है कि इससे विखंडनवाद बढ़ेगा। बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने वालों के उत्साह को यह वर्ग मूर्तिभंजक और घातक मानता है। यहां याद दिलाने की जरूरत है कि यह तर्क बनारसी दास चतुर्वेदी की सोच के ठीक विपरीत है। भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के विरोध को वरिष्ठ साहित्यकार विवेकी राय भी सही नहीं मानते। उनका भी कहना है कि भोजपुरी के विशाल लोक साहित्य के संरक्षण के लिए यह संवैधानिक दर्जा कहीं ज्यादा जरूरी है।

हालांकि शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के अतुल कोठारी का मानना है कि हिंदी के बिना उसकी बोलियों को भी प्राणवायु नहीं मिल सकेगी। वे कहते हैं कि बोली और भाषा का विवाद व्यर्थ का है। कोठारी के मुताबिक बोलियों का विकास होगा तो हिंदी का भी विकास होगा। हिंदी के जाने-माने लेखक हजारीप्रसाद द्विवेदी खुद हिंदी के समर्थक रहे। लेकिन उन्हें भी मलाल रहा कि उन्होंने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ भोजपुरी में नहीं लिखी। यह बात और है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में शायद ही कहीं भोजपुरी शब्दों का प्रयोग किया है। स्थानीय बोली के भाषा से घालमेल को लेकर डॉ. द्विवेदी कितने चिंतित थे, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने कहा था, ‘भोजपुरी बड़ी मीठी भाषा है पर इसे अपने घर में रखिए।’ उनका संदेश साफ है कि प्रगति का तकाजा राष्ट्रीयता को गरियाने में नहीं, सांस्कृतिक परंपरा के सशक्त प्रतीकों को समझने और उनके सुदृढ़ीकरण में है। वास्तव में बोलियों और भाषा के बीच स्वस्थ आदान-प्रदान और सहयोग से हिंदी के जातीय स्वरूप और प्रकारांतर से भारत की बहुजातीय राष्ट्रीयता की संरक्षा की जा सकती है।