दलित उत्पीड़न पर दोहरा स्वर अनुचित

अभिषेक रंजन सिंह।

पिछले दिनों बिहार के अररिया जिले में महादलित समुदाय के कुछ लोगों को दबंगों ने निर्ममता से पिटाई की। मुख्यधारा की मीडिया कहे जाने वाले किसी राष्ट्रीय समाचार चैनलों से यह खबर गायब रही। लेकिन सोशल मीडिया में बुरी तरह जख्मी उन महादलितों की तस्वीर मध्ययुगीन बर्बरता की कहानी बयां करने के लिए काफी थी। बिहार में दलितों के साथ हुई यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी सैकड़ों घटनाएं हुई हैं। कुछ घटनाएं खबरों का हिस्सा बनती हैं, तो कुछ नहीं। अररिया की घटना की जड़ में भूमि विवाद था। महादलित परिवार जिस जमीन पर वर्षों से रह रहे थे वह सीलिंग की जमीन थी। जबकि दबंगों द्वारा उस जमीन को कब्जाने की कोशिश कर रहे थे। बिहार के संदर्भ में यह तथ्य जानना आवश्यक है कि यहां भूमि विवाद, दलित उत्पीड़न और नरसंहारों की मुख्य वजह जमीन से जुड़े विवाद हैं। आजादी से पहले इस राज्य में छोटी-बड़ी कई इस्टेट थे। जमींदारी उन्मूलन के बाद सीलिंग एक्ट लागू हुआ, जिसके तहत अधिशेष भूमि राज्य सरकार के अधीन आ गई। सीलिंग एक्ट का मकसद था बड़े-बड़े जमींदारों से अतिरिक्त जमीनें लेकर भूमिहीनों के बीच वितरित करना। लेकिन राज्य में कई सरकारें आईं, लेकिन यहां न तो किसी प्रकार का भूमि सुधार हुआ और न ही भूमि वितरण। दुख इस बात का है कि जिस बिहार में सर्वोदयी नेता और भूदान आंदोलन के जनक आचार्य बिनोबा भावे में बिहार में सबसे अधिक भूमि मिली, वहां आज तक उसका सही वितरण नहीं हुआ। जिन बड़े जमींदारों ने अपनी स्वेच्छा और बिनोबा जी प्रभावित होकर अपनी जमीनें दान में दी। उन जमीनों पर आज अपराधियों और दबंगों का कब्जा है। कुछ ऐसा ही हाल सीलिंग से हासिल हुई जमीनों का है। बिहार में भूदान यज्ञ कमिटी भी है और राज्य में इस बाबत कानून भी बने हैं, लेकिन अपनी जमीनों से बेदखल हुए लोगों को इससे कोई फायदा नहीं है। एक अध्ययन के मुताबिक, बिहार में होने वाली हत्याओं में अस्सी फीसद की मुख्य वजह लैंड डिस्प्यूट है। बावजूद इसके राज्य सरकार की ओर से कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जा रहा है। पिछले साल गुजरात के ऊना कस्बे में मृत गाय की खाल उतारने के सवाल पर कथित गौरक्षकों ने चार युवकों की पिटाई की थी। इस घटना के विरोध का स्वर पूरे देश में सुनाई दिया। सोशल मीडिया से लेकर सिविल सोसायटी तक इस निर्मम घटना के विरोध में प्रदर्शन किया। ऊना की घटना वाकई निंदनीय थी। इस तरह की बर्बरता का सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है। लेकिन यहां सवाल है कि क्या विरोध का भी समाजशास्त्र और चयन होता है। ऊना की घटना के विरोध में गैर-बराबरी के रहबर बने संगठनों ने मोर्चा खोल दिया। जबकि अररिया में महादलितों के साथ जो हुआ, उसके बारे में इन संगठनों ने चुप्पी साध ली। प्रतिरोध के स्वर निष्पक्ष होने चाहिए। पक्षपाती बनने से न सिर्फ व्यक्ति, बल्कि संगठन भी संदिग्ध हो जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *