Priyanka Gandhi

क्या प्रियंका गांधी वाकई ‘कांग्रेस की आंधी’ हैं? क्या वह कांग्रेस को जिताने में कामयाब रहेंगी? हकीकत जो भी हो, लेकिन एक बात साफ है कि 2019 के चुनाव को लेकर भारतीय जनता पार्टी घबराई हुई है. उसे यह डर सता रहा है कि कहीं 2004 की तरह एक बार फिर हार का मुंह न देखना पड़े. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन से भाजपा को एक बड़ा झटका लगा है. वह इससे उबर पाती कि प्रियंका गांधी का नाम सामने आ गया. भाजपा दहल गई. मीडिया में इतना शोर-शराबा हुआ कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को भी घबराहट होने लगी. चुनावी दंगल में प्रियंका गांधी के उतरने की खबर आई नहीं कि एक के बाद एक, दर्जनों भाजपा नेता टीवी पर कहने लगे कि प्रियंका का कोई असर नहीं होने वाला. इतने सारे नेताओं का एक साथ प्रियंका पर बयान आना बताता है कि भाजपा का आत्मविश्वास डिग चुका है. इसलिए यह समझना जरूरी है कि प्रियंका का उत्तर प्रदेश में कितना असर होने वाला है. क्या वह एक आंधी बनकर कांग्रेस को विजयी बनाने में सफल रहेंगी या फिर विधानसभा चुनाव की तरह कांग्रेस एक बार फिर ऐतिहासिक हार का मुंह देखेगी.

Priyanka Gandhiउत्तर प्रदेश के चुनावी दंगल में कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को उतारा है. उन्हें पार्टी का महासचिव नियुक्त किया गया है. मीडिया गुणगान कर रहा है. चुनाव से पहले और प्रचार के दौरान पार्टी की रणनीति तय करने के साथ-साथ सारे फैसले अब प्रियंका लेंगी, टिकट भी वही बांटेंगी. उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव में प्रियंका का सबसे अहम रोल होगा. टीवी चैनलों पर कांग्रेस के इस कदम को एक मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा है. प्रियंका गांधी का कांग्रेस पार्टी का महासचिव बनना कोई बड़ी घटना नहीं है, न ही मास्टर स्ट्रोक है. यह कोई बड़ी घटना इसलिए नहीं, क्योंकि वर्तमान की कांग्रेस पार्टी गांधी परिवार की एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है. पार्टी पर परिवार का मालिकाना हक है. इसलिए गांधी परिवार के किसी सदस्य का पद धारण करना या न करना कोई मायने नहीं रखता है. कांग्रेस के नेताओं के लिए गांधी परिवार का हर सदस्य हाईकमान ही होता है. जब कोई औपचारिक घोषणा होती है, तो वह किसी रणनीति का हिस्सा होती है. लेकिन, मीडिया में इस खबर को इस तरह से पेश किया गया, जैसे कि वह पहली बार राजनीति में शामिल हुई हों. टीवी कैमरों के लिए कांग्रेस कार्यालयों के सामने कुछ कार्यकर्ताओं को खड़ा किया गया, उनकी बातें सुनाई गईं. राजनीतिक विश्लेषकों ने कसीदे पढऩे शुरू कर दिए. ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की गई कि यह कोई ऐतिहासिक घटना है. अब सवाल है कि क्या प्रियंका उत्तर प्रदेश में कोई कमाल दिखा पाएंगी या नहीं?

प्रियंका ख़ुद को प्रियंका रॉबर्ट वाड्रा लिखती हैं, लेकिन कांग्रेस उन्हें प्रियंका गांधी के रूप में सामने लाना चाहती है, क्योंकि लोगों के मन में यही नाम सालों से चमक रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कुछ लोगों को लगता है कि प्रियंका में इंदिरा गांधी की झलक दिखाई देती है. प्रियंका में एक एक्स फैक्टर है. जबकि हकीकत यह है कि प्रियंका ने बड़ी समझदारी के साथ अपनी मार्केटिंग भी की है. उन्होंने सबसे पहले ख़ुद को दादी इंदिरा गांधी जैसा बताया. सुबूत के तौर पर अपनी नाक दिखाई और कहा कि यह इंदिरा गांधी जैसी है और फिर अपनी साडिय़ों के बारे में बताया कि ये तो उनकी दादी की ही हैं. इतना ही नहीं, साडिय़ां भी वह इंदिरा जी की तरह ही पहनती हैं. प्रियंका ने संदेश दे दिया कि वह न केवल बहादुर हैं, बल्कि विपक्ष का सामना भी कर सकती हैं और देश को बेहतर युवा नेतृत्व दे सकती हैं. चुनावों में वह रायबरेली और अमेठी में प्रचार-प्रसार कई सालों से करती रही हैं. यह बात और है कि पिछले विधानसभा चुनाव में जब अमेठी और रायबरेली की 10 सीटों में से आठ पर कांग्रेस पराजित हुई, तो न किसी मीडिया ने और न प्रियंका में इंदिरा गांधी की झलक देखने वाले विश्लेषकों ने हार के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया. मतलब साफ है कि कांग्रेस पार्टी की हर जीत के पीछे गांधी परिवार का कोई सदस्य होता है, लेकिन हार के लिए स्थानीय नेताओं के सिर पर ठीकरा फोड़ दिया जाता है. पिछले 15 सालों के दौरान हुए हर चुनाव में प्रियंका की एंट्री ठीक उसी तरह से होती है, जैसे कि इस बार हुई. इस बार फर्क केवल इतना है कि वह अब कांग्रेस पार्टी के महासचिव के रूप में मैदान में उतर रही हैं.

प्रियंका 2004 में पहली बार चुनाव प्रचार में उतरीं. उन्होंने अपना सिक्का रायबरेली में आजमाया.वहां कांग्रेस पार्टी की तरफ से गांधी परिवार के करीबी सतीश शर्मा और भाजपा के उम्मीदवार अरुण नेहरू थे, जो किसी जमाने में राजीव गांधी के करीबी थे. प्रियंका के रायबरेली में आते ही चुनावी माहौल बदल गया. उनका पहला भाषण ही इतना प्रभावी था कि उनके विरोधियों के भी होश उड़ गए. रायबरेली की पहली जनसभा में प्रियंका ने कहा, मुझे आपसे एक शिकायत है. मेरे पिता के मंत्रिमंडल में रहते हुए जिसने गद्दारी की, भाई की पीठ में छुरा मारा, जवाब दीजिए, ऐसे आदमी को आपने यहां घुसने कैसे दिया? उनकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई? प्रियंका ने यह भी कहा, यहां आने से पहले मैंने अपनी मां से बात की थी. मां ने कहा कि किसी की बुराई मत करना. मगर मैं जवान हूं, दिल की बात आपसे न कहूं, तो किससे कहूं? प्रियंका गांधी जहां जातीं, वहां इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को याद करना नहीं भूलतीं. रायबरेली के इस चुनाव में प्रियंका ने कहा, मुझे यहां आकर गर्व महसूस हो रहा है. यह इंदिरा जी की कर्मभूमि है. वह केवल मेरी दादी ही नहीं थीं, सारी जनता की मां भी थीं.

प्रियंका 2004 में पहली बार चुनाव प्रचार में उतरीं. उन्होंने अपना सिक्का रायबरेली में आजमाया. वहां कांग्रेस पार्टी की तरफ से गांधी परिवार के करीबी सतीश शर्मा और भाजपा के उम्मीदवार अरुण नेहरू थे, जो किसी जमाने में राजीव गांधी के करीबी थे. प्रियंका के रायबरेली में आते ही चुनावी माहौल बदल गया. उनका पहला भाषण ही इतना प्रभावी था कि उनके विरोधियों के भी होश उड़ गए.

इस चुनाव में अरुण नेहरू (भाजपा) और सतीश शर्मा (कांग्रेस) आमने-सामने थे. चुनाव प्रचार के दौरान दोनों ही एक-दूसरे पर सीधा हमला करने से बचते रहे. अरुण नेहरू की जीत लगभग पक्की थी, लेकिन प्रियंका ने चुनाव से तीन दिन पहले आकर ऐसा माहौल बना दिया कि सतीश शर्मा जीत गए. उस जीत के बाद से ही मीडिया ने यह कहना शुरू कर दिया कि प्रियंका गांधी में जादू है. जनता को उनमें इंदिरा गांधी की झलक दिखती है. 2004 में जो बातें कही गईं, वही आज तक रिकॉर्ड प्लेयर की तरह घूम रही हैं. हर चुनाव से ठीक पहले प्रियंका गांधी को एक करिश्माई नेता बताया जाता है, उन्हें कांग्रेस का तुरुप का पत्ता बताया जाता है. मीडिया में वह ढेर सारी सुर्खियां बटोरती हैं और चुनाव के नतीजे आने के बाद फिर से सार्वजनिक जीवन से गायब हो जाती हैं. यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि अगर वाकई प्रियंका गांधी में कोई एक्स फैक्टर है या जनता में कोई अपील है, तो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पार्टी की हालत इतनी दयनीय कैसे हो गई? दूसरा सवाल यह है कि क्या प्रियंका का जादू केवल उत्तर प्रदेश के कुछ विशेष इलाकों तक ही सीमित है?

कांग्रेस के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव ‘करो या मरो’ की स्थिति जैसा है, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस संगठन की स्थिति अच्छी नहीं है. राहुल गांधी भले ही खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार मान रहे हों और नरेंद्र मोदी से टक्कर लेने का मंसूबा पाल रहे हों, लेकिन हकीकत यह है कि कांग्रेस पार्टी की स्थिति खराब है. पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती 100 सीटें जीतने की है, जो फिलहाल पूरी होती दिख नहीं रही है. उत्तर प्रदेश और बिहार की 120 सीटों पर कांग्रेस के खाते में कुछ खास नजर नहीं आ रहा है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में अखिलेश एवं मायावती का गठबंधन हो गया है और दोनों ने कांग्रेस पार्टी को केवल अमेठी एवं रायबरेली सीटें दी हैं. उसी तरह बिहार में भी लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल ने स्थानीय पार्टियों के साथ गठबंधन का ऐलान कर दिया है और कांग्रेस पार्टी अब तक उस गठबंधन का हिस्सा नहीं बन पाई है. मतलब साफ है कि इन दो अहम राज्यों में केवल संगठन की ताकत पर कांग्रेस चुनाव नहीं लड़ सकती है.

जहां तक बात उत्तर प्रदेश की है, तो इस राज्य में राहुल गांधी पिछले 15 सालों से लगातार कांग्रेस संगठन को मजबूत करने की तमाम कोशिशें कर चुके हैं. लेकिन, संगठन को मजबूत करने में वह विफल रहे हैं. 2004 के बाद युवाओं को पार्टी से जोडऩे की कोशिश हुई. दिग्विजय सिंह ने इसके लिए पूरे राज्य में काफी मेहनत की, लेकिन युवा नहीं जुड़े. किसानों को जोडऩे के लिए राहुल गांधी ने पदयात्रा से लेकर रोड शो तक किए, लेकिन उससे भी कुछ नहीं हुआ. इतना ही नहीं, राहुल गांधी ने दूसरी पार्टियों के कई नेताओं को कांग्रेस में शामिल किया. नेता तो कांग्रेस में आ गए, लेकिन जनता दूर ही रही. पार्टी की हालत यह हो गई कि वह विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन होने के बावजूद सात सीटों पर सिमट गई. मतलब यह कि राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश की जनता सिरे से नकार चुकी है. राहुल गांधी अब इस स्थिति में नहीं हैं कि वह कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में मजबूत कर सकें. इसलिए कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह लगा कि प्रियंका इस स्थिति से निजात दिला सकती हैं. 2004 के अनुभव के आधार पर उन्हें यह विश्वास है कि वह संगठन की कमियों को दरकिनार करके सीधे जनता से संवाद स्थापित करने में पूरी तरह से सक्षम हैं. मजबूत संगठन न होने के नुकसान की भरपाई प्रियंका अपनी छवि से कर सकेंगी. कांग्रेस पार्टी के रणनीतिकारों को लगता है कि जब प्रियंका चुनाव प्रचार में उतरेंगी, तो विरोधियों में भगदड़ मच जाएगी. लेकिन, समझने वाली बात यह है कि प्रियंका गांधी 2014 के लोकसभा चुनाव और 2016 के विधानसभा चुनाव में यह काम कर चुकी हैं और इन चुनावों का परिणाम जो रहा, वह दुनिया के सामने है.

priyanaka gandhi with rahul gandhi2019 में कांग्रेस की चुनौतियां पहले से ज्यादा गंभीर हैं. आगे बढऩे का रास्ता आसान नहीं है. उत्तर प्रदेश में महा-गठबंधन की चर्चा हो रही थी. कांग्रेस पार्टी इस भरोसे बैठी रह गई कि वह अखिलेश यादव एवं मायावती के साथ मिलकर कम से कम 25 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और भाजपा को आसानी से शिकस्त दे पाएगी. लेकिन, तीन राज्यों में चुनाव जीतने के बावजूद कांग्रेस को अखिलेश एवं मायावती ने दरकिनार कर दिया. कांग्रेस को अब उत्तर प्रदेश में अकेले ही चुनाव लडऩा है. केवल प्रचार के जरिये पार्टी को संगठित करना आसान नहीं होगा. चुनाव में अब ज्यादा वक्त भी नहीं बचा है, इतनी जल्दी संगठन खड़ा नहीं किया जा सकता. इसलिए कांग्रेस प्रियंका को सामने लाई. मकसद केवल सवर्ण मतदाताओं में सेंध मारना, चुनाव के नजरिए से पुराना वोट बैंक वापस खींचना, युवाओं के बीच पार्टी को लोकप्रिय बनाना और महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों का विश्वास हासिल करना है. कांग्रेस को लगता है कि ये सारे काम, जिन्हें राहुल गांधी नहीं कर सकते, प्रियंका अपने प्रचार के जरिये कर सकती हैं. लेकिन हकीकत यह है कि प्रियंका वाड्रा के लिए यह सब कर पाना आसान नहीं होगा.

यह एक भ्रम है कि प्रियंका गांधी सक्रिय राजनीति में पहले नहीं थीं. हकीकत यह है कि 2004 के चुनाव से पहले से वह कांग्रेस में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं. सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद से ही वह उनके कैंपेन पर सीधा दखल रखती थीं. वह जनार्दन द्विवेदी के साथ मिलकर सोनिया गांधी के भाषण लिखती थीं. जब तक यूपीए की सरकार रही, तब तक सारे बड़े फैसले 10 जनपथ में हुआ करते थे, जिनमें हमेशा प्रियंका शामिल होती थीं. इतना ही नहीं, दिल्ली में प्रियंका गांधी की अपनी एक टीम है, जो कांग्रेस की रणनीति तैयार करने में अहम रोल अदा करती है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान इस टीम ने प्रशांत किशोर के साथ मिलकर चुनाव प्रचार की रूपरेखा तैयार की थी. उम्मीदवारों को तय करने में भी प्रियंका का काफी दखल रहा. वैसे भी, कांग्रेस पार्टी गांधी परिवार की मिल्कियत है, इसलिए यह कहना है कि गांधी पारिवार का कोई सदस्य राजनीति में सक्रिय नहीं है, केवल एक भ्रामक प्रचार माना जा सकता है. प्रियंका वाड्रा का कांग्रेस पार्टी के संगठन और रणनीति में अच्छा-खासा दखल बहुत पहले से रहा है. अब तक वह पर्दे के पीछे से सब कुछ संचालित कर रही थीं. इस बार फर्क केवल इतना है कि उन्हें संगठन में महासचिव का पद दे दिया गया है.