लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान कांग्रेस के भीतर दो महत्वपूर्ण फैसले लिए गए. पहला फैसला प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाने का था. कांग्रेस के कई नेता प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने और उन्हें कोई पद दिए जाने के फैसले का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. आखिरकार, उनकी तमन्ना पूरी हुई और प्रियंका को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाए जाने के साथ-साथ उन्हें चुनाव प्रचार में पूरी तरह झोंक दिया गया. दूसरा बड़ा फैसला राहुल गांधी को अमेठी के अलावा केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़ाने को लेकर किया गया. इन दोनों फैसलों के पीछे एक ऐसी गहरी साजिश छिपी है, जिससे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ सकता है.

कांग्रेस को सत्ता में रहने की लत पड़ चुकी है. उसके नेताओं को पॉवर चाहिए, जिसके लिए वे किसी भी स्तर पर जा सकते हैं. पार्टी के भीतर भी साजिश रचने से उन्हें परहेज नहीं है. सत्ता सुख से वंचित रहने पर उनका खुराफाती दिमाग षड्यंत्रकारी हो जाता है. येन-केन-प्रकारेण दिल्ली की गद्दी पर विराजमान होने की उनकी चाहत ने कई बार कांग्रेस में गुटबंदी को बढ़ावा दिया है. कुछ ऐसी ही स्थिति इस समय भी कांग्रेस के भीतर है. पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को इस बार जीत की कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है, इसलिए वे अगले लोकसभा चुनाव के लिए किसी करिश्माई व्यक्तित्व को आगे बढ़ाने की योजना बना रहे हैं. इसके लिए उन्होंने अगले पांच साल के लिए एक रणनीति बनाई है और उस पर काम करना भी शुरू कर दिया है. उन्हें राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता, व्यवहार कुशलता एवं गठबंधन की रणनीति पर भरोसा नहीं है. सोनिया और राहुल के बेहद करीबी समझे जाने और उन्हें राजनीतिक सलाह देने वाले कांग्रेस के इस छोटे से गुट ने राहुल को पीछे ढकेलने की अपनी योजना पर काम शुरू कर दिया है. उनके हाथ प्रियंकानामक एक ब्रह्मास्त्रलग गया है, जिसका इस्तेमाल वे पार्टी के भीतर और भाजपा के खिलाफ एक साथ करना चाहते हैं. इस गुट को लगता है कि कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा राहुल गांधी हैं. उन्हें राहुल गांधी की क्षमता पर भरोसा नहीं है. उन्हें साफ दिखाई दे रहा है कि अगर राहुल के हाथ में कांग्रेस की कमान रही, तो इस बार की बात छोड़ दें, साल 2024 में भी कांग्रेस सत्ता से दूर ही रह जाएगी.

उक्त नेताओं को गांधी परिवार की सरपरस्ती तो चाहिए, लेकिन राहुल गांधी नहीं. राहुल के नेतृत्व पर भरोसा न होने के बावजूद उनके साथ काम करना, उनका साथ देना ऐसे नेताओं की मजबूरी है. वजह यह कि कांग्रेस को एकजुट रखने के लिए पार्टी की बागडोर गांधी परिवार के किसी सदस्य के हाथों में होनी जरूरी है. जैसे ही गांधी परिवार को कांग्रेस से अलग करेंगे, पार्टी में बगावत के सुर तेज हो जाएंगे. कई गुट बन जाएंगे और उनकी महत्वाकांक्षाओं के चलते कांग्रेस के भीतर किसी को भी स्वीकार करना मुश्किल हो जाएगा. यही नहीं, गांधी परिवार के संरक्षण के बिना कांग्रेस के सत्ता तक पहुंचने की संभावना भी नगण्य हो जाती है. इतिहास गवाह है कि जब भी कांग्रेस से गांधी परिवार की दूरी बढ़ी, पार्टी कमजोर हो गई. इंदिरा गांधी के समय से ऐसा देखा गया है. साल 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया, लेकिन उसके पीछे कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज की मंशा उन्हें नियंत्रित रखने की थी. लेकिन, इंदिरा गांधी ने जब स्वतंत्र फैसले लेने शुरू किए और पार्टी अध्यक्ष को उनकी हैसियत समझाने की कवायद शुरू की, तो कामराज गुट उनके खिलाफ हो गया. कामराज, निजलिंगप्पा, नीलम संजीव रेड्डी, अतुल्य घोष एवं एसके पाटिल जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने इंदिरा गांधी के खिलाफ कार्रवाई करने की ठान ली. सिंडिकेटकहे जाने वाले कांग्रेस के इस गुट को यह मौका साल 1969 में राष्ट्रपति के चुनाव के समय मिला. इस चुनाव में कांग्रेस ने नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया. चूंकि इंदिरा सिंडिकेटको उसकी हैसियत बताने के लिए बेताब थीं, इसलिए उन्होंने नीलम संजीव रेड्डी के बदले निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरि को परोक्ष तौर पर समर्थन दिया. उन्होंने कांग्रेस के सांसदों एवं विधायकों से अपील की कि वे अंतर्रात्मा की आवाज सुनकर वोट दें. चुनाव में वीवी गिरि की जीत हुई, लेकिन वास्तव में यह इंदिरा गांधी की जीत थी. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा ने इंदिरा गांधी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया. इसके बाद कांग्रेस का विभाजन हुआ और इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर) बनाई और पुरानी कांग्रेस को कांग्रेस (ओ) नाम दिया गया. लेकिन, सत्ता इंदिरा के पास रही और बाद में उनकी कांग्रेस ही असली कांग्रेस बन गई.

कुछ इसी तरह की स्थिति तब आई थी, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभालने से मना कर दिया था. राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर के चलते कांग्रेस चुनाव जीत गई. पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष बने. जब तक कांग्रेस सत्ता में रही, तब तक उसके नेताओं को कोई समस्या नहीं हुई. नरसिम्हा राव के बाद साल 1996 में सीताराम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन सत्ता से दूर होने के साथ ही कांग्रेस के भीतर गुटबाजी शुरू हो गई. गांधी परिवार के करीबी माने जाने वाले माधव राव सिंधिया, राजेश पायलट, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह एवं पी चिदंबरम आदि कांग्रेसी नेताओं ने सीताराम केसरी के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी. इस बीच सोनिया गांधी को मनाने की कोशिश भी जारी रही. केवल दो साल के भीतर विरोध के स्वर इतने बुलंद हो गए कि सीताराम केसरी को पद छोडऩा पड़ा और 1998 में सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बन गईं. हालांकि, सोनिया का विरोध हुआ, प्रधानमंत्री पद पर उनकी उम्मीदवारी को लेकर सवाल उठाए गए और कांग्रेस में विभाजन भी हुआ. 25 मई, 1999 को शरद पवार, तारिक अनवर एवं पीए संगमा ने कांग्रेस से अलग होकर नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) बनाई. लेकिन, विभाजन के बावजूद कांग्रेस की बागडोर सोनिया गांधी के हाथों में आने के बाद पार्टी मजबूत हुई और साल 2004 में फिर सत्ता में आ गई. इस बीच सोनिया गांधी राहुल को राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए आगे लाती रहीं. राहुल को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी बेटी प्रियंका गांधी को कांग्रेस से दूर रखा. राहुल गांधी ने साल 2004 में अमेठी से चुनाव लडऩे की घोषणा की और उसके बाद लगातार तीन बार वहां से चुनाव जीते.

राहुल गांधी को धीरे-धीरे कांग्रेस की कमान सौंपने की कवायद जारी रही. उन्हें कई जिम्मेदारियां दी गईं. छोटी भूमिकाएं देकर उन्हें राजनीति का प्रशिक्षण दिया जाता रहा. आखिरकार साल 2017 में उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया. राहुल गांधी की राजनीतिक एवं रणनीतिक क्षमता से कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता असंतुष्ट तो हैं, लेकिन वे अपनी भावना जाहिर करने से कतराते हैं. गांधी परिवार के किसी सदस्य को दरकिनार करके कांग्रेस में आगे बढ़ पाना उनके लिए असंभव है. दूसरी ओर सोनिया गांधी ने राहुल को कांग्रेस का सर्वेसर्वा बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. उन्होंने पुत्र मोह के कारण बेटी प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति से दूर रखा. हालांकि, प्रियंका राजनीति से पूरी तरह दूर नहीं रहीं. चुनाव के समय सोनिया और राहुल ने उनका भरपूर इस्तेमाल किया. प्रियंका अपनी मां सोनिया के लिए रायबरेली और भाई राहुल के लिए अमेठी में प्रचार करती रहीं. हर चुनाव के दौरान मां-बेटे ने उनकी वाकपटुता, मधुर व्यवहार और जनता-कार्यकर्ताओं के साथ आसानी से संवाद स्थापित कर लेने की क्षमता का इस्तेमाल किया. प्रियंका पर सक्रिय राजनीति से दूर रहने का दबाव बनाया जाता रहा. लेकिन, सोनिया गांधी के लाख प्रयासों के बावजूद राहुल उस स्तर के नेता नहीं बन पा रहे, जो भारतीय जनता पार्टी का जोरदार तरीके से मुकाबला कर सके. साल 2014 में सत्ता छिन जाने के बाद से कांग्रेसी नेताओं के बीच राहुल की क्षमता को लेकर चर्चा जारी है. हालांकि, साल 2014 के बाद राहुल के नेतृत्व में पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत हुई है, लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के बीच इस जीत का श्रेय लेने के लिए हमेशा होड़ मची रही. पंजाब में कांग्रेस की जीत का पूरा श्रेय कैप्टन अमरिंदर सिंह को दिया जाता है, तो राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का फायदा मिलने की बात होती रही. राहुल गांधी की क्षमता पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का शक बना रहा, लेकिन वे विवश थे.

उत्तर प्रदेश की बदलती राजनीतिक परिस्थितियों ने कांग्रेसी नेताओं को एक नई रणनीति पर काम करने का मौका दिया. चूंकि, साल 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और सपा के बीच गठबंधन हुआ था. अखिलेश यादव और राहुल गांधी की जोड़ी को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की कोशिश की गई, लेकिन गठबंधन बुरी तरह हार गया. अखिलेश यादव ने हार का ठीकरा राहुल गांधी पर फोड़ दिया और बार-बार यह इशारा किया कि राहुल कांग्रेस के वोट सपा में ट्रांसफर नहीं करा पाए. विधानसभा चुनाव हारने के बाद अपना अस्तित्व बचाने के लिए मजबूत वोट बैंक वाली दो क्षेत्रीय पार्टियों सपा-बसपा ने गठबंधन के रास्ते तलाशे और फूलपुर, गोरखपुर एवं कैराना के लोकसभा उपचुनाव में इन तीनों सीटों पर उनके उम्मीदवारों की जीत हुई. उसके बाद लोकसभा चुनाव 2019 के लिए गठबंधन की तैयारी शुरू हो गई. सपा और बसपा ने कांग्रेस को दरकिनार करके गठबंधन कर लिया. अखिलेश-माया ने रालोद के साथ बातचीत की और उसे गठबंधन में शामिल किया, लेकिन कांग्रेस को भाव नहीं दिया. कांग्रेस के भीतर बौखलाहट थी, लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं ने इसे राहुल गांधी से छुटकारा पाने के एक मौके की तरह देखा. उन्हें किसी भी तरह प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाना था. सपा-बसपा-रालोद के गठबंधन और कांग्रेस की बेइज्जती का बदला लेने के नाम पर इस गुट ने सोनिया और राहुल को उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लडऩे के लिए तैयार कर लिया. राहुल की नेतृत्व क्षमता से नाराज कांग्रेसी गुट की यह पहली जीत थी, क्योंकि राज्य की सभी 80 सीटों पर चुनाव लडऩा कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती थी. राहुल को पूरी तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति में नहीं झोंका जा सकता था. ऐसे में कांग्रेस के इस गुट ने अपनी अगली चाल चली. सोनिया और राहुल को उत्तर प्रदेश की स्थिति से अवगत कराते हुए उन्हें बताया गया कि 80 सीटों पर चुनाव लडऩे के लिए उम्मीदवार तय करना एक बड़ी चुनौती है और उससे भी बड़ी चुनौती यह प्रदर्शन करने की है कि प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति मजबूत हो रही है. इस मुद्दे पर विचार करने का ढोंग किया गया, क्योंकि राहुल गांधी से नाराज लोगों के पास पहले से ही योजना तैयार थी. उन्होंने तय कर रखा था कि उत्तर प्रदेश की राजनीति का हवाला देकर प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाना है और उसके बाद धीरे-धीरे राहुल का पत्ता साफ करना है. काफी मंथन का नाटक करने के बाद इस गुट ने सोनिया और राहुल को उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी को उतारने की सलाह दी. दोनों को समझाया गया कि प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाकर उन्हें उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी जाए, ताकि एक बड़ा धमाका हो और मीडिया का ध्यान कांग्रेस की ओर आकर्षित हो. सोनिया गांधी को भी इस बात में दम लगा. राहुल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने के बाद उन्हें प्रियंका का खतरा कम होता दिखाई दिया और उन्होंने अपनी सहमति दे दी. इस तरह प्रियंका गांधी को कांग्रेस का महासचिव बना दिया गया और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी भी. हालांकि, उन्हें पूरे राज्य का प्रभार भी दिया जा सकता था, लेकिन उनके साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया को जोड़ दिया गया, ताकि उनका प्रभाव कम करके रखा जा सके. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं और वास्तव में पूरे राज्य में प्रियंका गांधी ही छाई हुई हैं.

दरअसल, सत्ता के भूखे और राहुल से नाराज कांग्रेस के इस गुट को प्रियंका को किसी तरह सक्रिय राजनीति में लाना था और अपनी इस रणनीति में वह सफल भी हो गया. प्रियंका एक सुलझी हुई नेता हैं. उनकी सूझबूझ की चर्चा हमेशा होती रहती है. अमेठी एवं रायबरेली में चुनाव की कमान वह पहले से संभालती रही हैं. वह लोगों के साथ प्यार से मिलती हैं, कार्यकर्ताओं को उत्साहित कर देती हैं, अवधी मिश्रित हिंदी बोल लेती हैं और उनमें राहुल की तरह अक्खड़ता नहीं है. प्रियंका गांधी पहले से मीडिया की चहेती रही हैं और जब भी सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेती हैं, तो मीडिया उनके पीछे भागता नजर आता है. जिस दिन प्रियंका गांधी को कांग्रेस महासचिव बनाया गया, उस दिन अखबारों के बीच उनकी खूबियां बताने की होड़ लगी हुई थी. उनकी राजनीतिक समझ, संवाद शैली, शिक्षा और यहां तक कि बौद्ध दर्शन एवं विश्पश्यना आदि में उनकी रुचि के बारे में अखबारों में विशेष लेख छापे गए. टीवी चैनलों पर प्रियंका ही छाई रहीं. प्रियंका में इंदिरा गांधी की झलक दिखने के बारे में बार-बार चर्चा की गई. यहां तक कि प्रियंका और राहुल के बीच तुलना भी की गई, ताकि बाद में प्रियंका को आगे बढ़ाने में इन तर्कों का सहारा लिया जा सके. अपनी पहली रणनीति सफल होने के बाद इस गुट ने राहुल गांधी को पीछे ढकेलने के लिए एक और चाल चली. राहुल को बताया गया कि अपनी अखिल भारतीय छवि बनाने और दक्षिण भारत में पार्टी को मजबूत करने के लिए उन्हें वहां के किसी राज्य से चुनाव लडऩा चाहिए. राहुल ने उनकी बात मान ली और फिर केरल की वायनाड सीट से उन्हें कांग्रेस का उम्मीदवार बना दिया गया. यही नहीं, चर्चा इस बात की भी है कि अगर राहुल अमेठी और वायनाड से चुनाव जीत जाते हैं, तो वह अमेठी सीट छोड़ देंगे और फिर वहां से प्रियंका गांधी चुनाव लड़ेंगी. इस तरह राहुल गांधी को उत्तर भारत की राजनीति से दूर करके प्रियंका गांधी को सक्रिय कर दिया गया है. चूंकि, इस चुनाव में भाजपा को हरा पाना बहुत मुश्किल दिखाई पड़ रहा है. ऐसे में कांग्रेस को साल 2024 के लिए एक करिश्माई नेता की जरूरत है. राहुल गांधी में ऐसा कोई करिश्मा नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन प्रियंका का व्यक्तित्व ऐसा है. प्रियंका ने उत्तर प्रदेश में एक जगह लोगों से बातचीत करते हुए कहा भी कि उन्हें अगले चुनाव के लिए तैयार रहना है.

अब कांग्रेस का यह गुट अगले पांच साल में प्रियंका को आगे बढ़ाएगा और राहुल धीरे-धीरे पीछे छूटते जाएंगे. संभव है कि पार्टी की कमान प्रियंका गांधी को सौंप दी जाए और संगठन पर उनका कब्जा हो जाए. सत्ता का स्वाद जब तक न लगे, तब तक ठीक है, लेकिन जब एक बार सत्ता का स्वाद लग जाता है, तो फिर पीछे हटना असंभव हो जाता है. प्रियंका गांधी को अब इसका स्वाद लग चुका है. उत्तर प्रदेश के साथ-साथ वह अन्य राज्यों में भी चुनाव प्रचार करने लगी हैं. असम में उन्होंने एक रोड शो किया. उनका दायरा धीरे-धीरे बढ़ रहा है.

क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं के बीच भी वह राहुल से ज्यादा स्वीकार्य हैं. राहुल गांधी ने कई क्षेत्रीय दलों के साथ संबंध खराब कर रखे हंै. दागी नेताओं के चुनाव लडऩे पर रोक लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ मनमोहन सिंह सरकार ने एक अध्यादेश पारित कराया था. लेकिन, राहुल ने उस अध्यादेश की प्रति फाड़ दी थी. इससे कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं के साथ-साथ लालू यादव भी काफी नाराज हुए थे, क्योंकि उक्त अध्यादेश का सबसे ज्यादा फायदा उन्हें ही होने वाला था. चारा घोटाले में फंसे लालू यादव के लिए चुनाव न लडऩा मजबूरी हो गई. लालू यादव ऐसे नेता हैं, जो किसी को माफ नहीं करते. हालांकि, कांग्रेस के साथ गठबंधन उनकी मजबूरी है, लेकिन जिस दिन कांग्रेस में प्रियंका का उभार हुआ, वह उनका साथ देकर राहुल गांधी से बदला लेने से नहीं चूकेंगे. कुछ इसी तरह उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश के साथ है. विधानसभा चुनाव के बाद से राहुल गांधी एवं अखिलेश यादव के संबंध खराब चल रहे हैं. पिछले कुछ समय से राहुल एवं मायावती के संबंध भी खराब हैं. प्रियंका गांधी हमेशा इन विवादों से बचती नजर आती हैं. जब भी उनसे मायावती या अखिलेश के बारे में पूछा जाता है, तो वह सधी हुई टिप्पणी करती हैं. वह क्षेत्रीय नेताओं को नाराज नहीं करना चाहतीं, क्योंकि उन्हें आगे उनका ही साथ लेना है. महाराष्ट्र में शरद पवार एवं उनकी बेटी सुप्रिया सुले हों या फिर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, सबने राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मानने से इंकार कर दिया है. ऐसे में प्रियंका गांधी उनके कंधों का भी सहारा लेने से गुरेज नहीं करेंगी और उनका समर्थक कांग्रेसी गुट इसे आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाएगा. साल 2024 तक मोदी लहर खत्म हो जाएगी. सोनिया गांधी की बीमारी की खबरें लगातार आती रहती हैं. अगले पांच साल में उनकी सक्रियता और भी कम हो जाएगी. ऐसे में प्रियंका गांधी के लिए मैदान खुला होगा और कांग्रेस का सत्तालोलुप गुट राहुल के बदले प्रियंका को तवज्जो देने के लिए तैयार ही बैठा है. इस तरह एक गहरी साजिश के तहत राहुल गांधी को दरकिनार कर दिया जाएगा और प्रियंका को पार्टी की कमान सौंप दी जाएगी.