Ayodhya vivad

केंद्र सरकार ने अयोध्या प्रकरण में गैर विवादित भूमि को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत के समक्ष दाखिल अपनी अर्जी के जरिये सटीक सियासी निशाना साधा है. यह कि नई अर्जी पर सुनवाई अगर टले या उसे खारिज कर दिया जाए, तो अदालत मामले की मुख्य अपील पर शीघ्र सुनवाई के लिए बाध्य हो जाए, क्योंकि दोनों ही स्थितियां आगामी चुनाव में उसके लिए लाभप्रद साबित होंगी.

Ayodhya vivadअयोध्या भूमि विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट में बार-बार सुनवाई टल रही है. भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली नरेंद्र मोदी सरकार पर राम मंदिर को लेकर भारी दबाव है. लोकसभा चुनाव सिर पर है, ऐसे में सरकार कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती, क्योंकि उसे पता है कि साधु-संतों और रामभक्त मतदाताओं की नाराजगी लोकसभा चुनाव में भारी पड़ सकती है. इसलिए मोदी सरकार भरोसा दिलाने की कोशिश कर रही है कि वह राम मंदिर को लेकर कितनी गंभीर है! इसी कोशिश का नतीजा है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर अयोध्या में राम जन्म-स्थान से जुड़ी 0.313 एकड़ भूमि को छोडक़र बाकी भूमि वापस करने की मांग की है. अयोध्या में विवादित स्थल के आसपास स्थित 67.703 एकड़ भूमि अधिग्रहीत करने के 26 साल बाद केंद्र सरकार उसे असल मालिकों को लौटा देने की अर्जी लेकर अदालत पहुंची है. सरकार की ओर से दायर उक्त अर्जी में कहा गया है कि सिर्फ 0.313 एकड़ भूमि ही विवादित है, बाकी नहीं. इसलिए बाकी भूमि उसके असल मालिकों को लौटाने की इजाजत दी जानी चाहिए. चूंकि साल 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने विवाद के निपटारे तक पूरी भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था, इसलिए न तो उस भूमि पर कोई निर्माण हो सकता है और न उसे उनके असल मालिकों को लौटाया जा सकता है.

केंद्र सरकार ने जिस भूमि को सौंपने की इजाजत सुप्रीम कोर्ट से मांगी है, वह चार मुख्य हिस्सों में बंटी है. सबसे बड़ा हिस्सा करीब 42 एकड़ भूमि राम जन्मभूमि न्यास के नाम पर थी. बाकी या तो उत्तर प्रदेश सरकार की है या विवादित है या फिर मुकदमा जीतने वाले के लिए सुरक्षित रखी गई है. केंद्र सरकार ने अपनी अर्जी में कहा है कि विवादित भूमि (0.313 एकड़) के आसपास स्थित भूमि का अधिग्रहण इसलिए किया गया था, ताकि विवाद के निपटारे के बाद उस विवादित भूमि पर कब्जे और उपयोग में कोई बाधा न हो. राम जन्मभूमि न्यास अपनी भूमि वापस चाहता है. चूंकि विवादित भूमि के निपटारे में विलंब हो रहा है, इसलिए अदालत को यथास्थिति वाला अपना आदेश वापस लेना चाहिए, ताकि गैर-विवादित भूमि उसके असल मालिकों को वापस लौटाई जा सके. राम जन्मभूमि न्यास ने इसके पहले भी भूमि लौटाने की मांग की थी. बाबरी विध्वंस के बाद तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने ‘सर्टन एरियाज ऑफ अयोध्या एक्ट 1993’ बनाकर लगभग 67.073 एकड़  भूमि का अधिग्रहण किया था, जिसमें मंदिर-मस्जिद वाली विवादित भूमि (जिसे केंद्र सरकार 0.313 एकड़ बता रही है) के साथ-साथ राम जन्मभूमि न्यास की 42 एकड़ भूमि भी शामिल थी. राम जन्मभूमि न्यास ने 6 जून 1996 को अपनी भूमि वापस लेने के लिए केंद्र सरकार को प्रतिवेदन दिया, जिसे सरकार ने 14 अगस्त 1996 को निरस्त कर दिया था. सरकार के इस फैसले के खिलाफ राम जन्मभूमि न्यास ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन न्यास को वहां भी निराशा हाथ लगी थी. अदालत ने 21 जुलाई 1997 को न्यास की याचिका खारिज करते हुए कोई राहत देने से इंकार कर दिया था.

सरकार की अर्जी से उपजे सवाल

सुप्रीम कोर्ट में सरकार की इस अर्जी से पहला सवाल विवादित भूमि के क्षेत्रफल को लेकर उठ सकता है. अर्जी के अनुसार, विवादित क्षेत्र 0.313 एकड़ का है. लेकिन, इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जो अपीलें आई हैं, उसमें 2.77 एकड़ भूमि का विवाद बताया गया है. ऐसे में सवाल यह है कि बाकी गैर-विवादित भूमि 67 एकड़ है या 65 एकड़ ? दूसरा सवाल भूमि पर राम जन्मभूमि न्यास के दावे को लेकर उठ सकता है. केंद्र सरकार ने न्यास को 42 एकड़ भूमि का मालिक बताया है. चूंकि यह भूमि उत्तर प्रदेश सरकार ने न्यास को लीज पर दे रखी थी. इसलिए भूमि की मूल मालिक उत्तर प्रदेश सरकार हुई. दरअसल, 1980 के दशक के अंत में उत्तर प्रदेश के पर्यटन विभाग ने अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के आसपास की 52.90 एकड़ भूमि अधिग्रहीत की थी. इसके अलग-अलग हिस्सों के मालिक 20 से ज्यादा परिवार थे, जिन्हें भूमि के बदले मुआवजा दे दिया गया (हालांकि, मुआवजे की राशि कम बताकर कई परिवार फैजाबाद जिला अदालत की शरण में हैं). मार्च 1992 में यानी बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से कुछ माह पहले इसमें से 42 एकड़ भूमि रामकथा पार्क विकसित करने के लिए राम जन्मभूमि न्यास को दे दी गई. एक अहम सवाल यह कि गैर-विवादित हिस्से में काफी भूमि लीज की है, जो अधिग्रहण के बाद खत्म मानी जानी चाहिए. तो फिर ऐसी लीज वाली भूमि का स्वामित्व तबके मालिकों के पास रहेगा या उत्तर प्रदेश सरकार उसकी मालिक हो जाएगी?

सरकार की अर्जी से एक सवाल और उठ खड़ा हुआ है. चूंकि राम जन्मभूमि न्यास सुप्रीम कोर्ट के सामने मुकदमे में पक्षकार है, जिसकी इस बारे में याचिका 1997 में निरस्त हो गई थी, तो अब अदालत सरकार की इस अर्जी पर कैसे सुनवाई करेगी कि भूमि राम जन्मभूमि न्यास को लौटानी है? इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई से पहले केंद्र सरकार की इस नई अर्जी पर सुनवाई हो सकती है. और, केंद्र की अर्जी पर फैसला सुनाने से पहले अदालत इन सवालों के जवाब ढूंढेगी. केंद्र सरकार ने अपनी अर्जी में कहा है कि केवल मंदिर-मस्जिद वाली 0.313 एकड़ भूमि ही विवादित है, बाकी नहीं. इसलिए उसे वापस किया जाना चाहिए. लेकिन, साल 2003 के असलम भूरे बनाम अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि विवादित और अविवादित भूमि को अलग करके नहीं देखा जा सकता. इसी फैसले में अदालत ने यह भी कहा था कि अधिग्रहीत भूमि उनके मालिकों को वापस लौटाई जा सकती है, लेकिन इसके लिए भूमि मालिकों को अदालत में अर्जी दायर करनी होगी. ऐसे में, अदालत केंद्र सरकार से पूछ सकती है कि जब पांच जजों की संविधान पीठ पहले ही कह चुकी है कि अधिग्रहीत भूमि को विवादित और अविवादित भूमि के रूप में अलग-अलग नहीं देखा जा सकता, तो आज इस अर्जी की जरूरत क्यों आ पड़ी?

शीघ्र सुनवाई की संभावना बढ़ी

प्रत्येक सुनवाई से पहले अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के पक्षधर लोग उम्मीद पालते हैं कि देश की सबसे बड़ी अदालत जल्द ही सुनवाई शुरू करेगी और अयोध्या में भगवान राम के भव्य मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ हो जाएगा. लेकिन, किसी न किसी वजह से अयोध्या मामले की सुनवाई टलती जा रही है. 29 जनवरी को अयोध्या मामले में सुनवाई होनी थी, लेकिन सुनवाई करने जा रही नवगठित पांच सदस्यीय संविधान पीठ के एक जज एसए बोवड़े के उपलब्ध न होने के चलते सुनवाई एक बार फिर टल गई. इस नवगठित पीठ में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के अलावा जस्टिस एसए बोवड़े, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ एवं जस्टिस अब्दुल नजीर शामिल हैं. केंद्र की नई अर्जी आने से अयोध्या मामले में जल्द सुनवाई की संभावना बढ़ गई है. इस अर्जी के बहाने केंद्र सरकार अदालत से कहेगी कि चूंकि मुख्य अपील पर सुनवाई में देर है, इसलिए अविवादित भूमि लौटने वाली याचिका पर पहले सुनवाई कर ली जाए. अगर अदालत इस अर्जी पर सुनवाई से इंकार करती है या इसे खारिज करती है, तो उसे मुख्य अपील पर शीघ्र सुनवाई के लिए तैयार होना पड़ेगा. और, दोनों ही स्थितियां मोदी सरकार के लिए अनुकूल होंगी, क्योंकि अगर नई अर्जी को अदालत ने खारिज कर दिया, तो सरकार राम मंदिर निर्माण समर्थकों के बीच कहेगी कि उसने तो प्रयास किया था मंदिर निर्माण के लिए अतिरिक्त भूमि वापस लेने का, लेकिन अदालत ने इंकार कर दिया. और, अगर मुख्य अपील पर सुनवाई शुरू हो गई, तो लोकसभा चुनाव से पहले जैसे-जैसे सुनवाई होगी, भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में राम मंदिर मय माहौल बना रहेगा. ऐसे में, सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण के फैसले को जिस तरह मोदी सरकार का ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा गया, उसी तरह लोकसभा चुनाव से पहले अयोध्या मामले में सरकार की यह अर्जी ‘रामबाण’ कही जा सकती है.