प्रदीप सिंह/जिरह

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार के चार साल पूरे होने वाले हैं। सरकार की चार साल की उपलब्धियां याद करने की कोशिश करें तो बार बार कानून व्यवस्था की समस्याएं ही स्मृति को घेरे रहती हैं। यह समाजवादी पार्टी का डीएनए है। वैज्ञानिक मानते हैं कि परिस्थितियां भी डीएनए को प्रभावित कर सकती हैं। लेकिन समाजवादी पार्टी के बारे में यह वैज्ञानिक अवधारणा भी निष्प्रभावी साबित हुई है। अराजकता को समाजवादी पार्टी नेता अपना आभूषण मानते हैं। 2012 में पार्टी को सत्ता सौंपते समय मतदाताओं को उम्मीद थी कि अखिलेश यादव के रूप में नया नेतृत्व पार्टी का चरित्र नहीं तो चेहरा तो बदलेगा ही। लेकिन चार साल का शासन देखकर लगता है कि अखिलेश यादव ने या तो यथास्थिति के सामने समर्पण कर दिया है या उन्हें पार्टी की यह शैली भा गई है। वे एक ऐसी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं जिसके राज में एक अबोध बालक के हत्यारे को पकड़ने में उनकी पुलिस उतनी भी गंभीर नजर नहीं आती जितनी मंत्री की चोरी हुई भैंसों को खोजने में। अखिलेश के राज में भैंस की जान इंसान की जान से ज्यादा कीमती है। उत्तर प्रदेश को उन्होंने अंधेर नगरी बना दिया है।
सात फरवरी को राज्य के कैराना में समाजवादी पार्टी के नेता और विधायक नाहिद हसन के यहां हुए जश्न में जमकर हवाई फायरिंग हुई जिसने सात साल के एक बच्चे की जान ले ली। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का नेता होने का अर्थ है कि कानून आप पर लागू नहीं होता। यदि आप विधायक और मंत्री हैं तो फिर कहना ही क्या। उत्तर प्रदेश में गाड़ी पर समाजवादी पार्टी का झंडा लगा देखकर लोग रास्ते से बचकर निकलते हैं। क्योंकि कुछ हो जाय तो अपराध इस बात से तय नहीं होता कि दोषी कौन है। पुलिस गाड़ी पर लगे पार्टी के झंडे वाले के साथ होती है। प्रदेश के एक पूर्व पुलिस महानिदेशक का कहना है कि पुलिस को स्पष्ट आदेश हैं कि किसी यादव या मुसलमान के खिलाफ एफआईआर न लिखी जाय। किसी वजह से लिखना ही पड़े तो गिरफ्तारी किसी हालत में नहीं होनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है। सपा के राज में यह आम बात है और उत्तर प्रदेश के लोग इसे जानते हैं। लेकिन इस बार 2003 से 2007 के मुलायम राज की गुंडागर्दी भी अब कम लगने लगी है।
सात फरवरी को हुए हत्याकांड के आरोपी फरार हैं। राज्य की पुलिस उन्हें खोज नहीं पा रही है। सरकार की पहली प्रतिक्रिया आरोपियों के बचाव में आई। फिर कुछ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के रूप में। आरोपी आजाद घूम रहे हैं। हालत यह है कि इस मामले में विधायक महोदय की प्रतिक्रिया लेने गए न्यूज चैनल की रिपोर्टर को कुछ समय तक बंधक बना लिया गया और कैमरामैन से मारपीट की गई। विधायक नाहिद हसन साहब जवाब देने की बजाय सवाल कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी अपनी इसी कमजोरी के कारण अलोकप्रिय होकर सत्ता से बाहर जाती है। पर आश्चर्य की बात है कि वह इससे कोई सबक नहीं लेती। चुनाव में हार के डर का भी जिस राजनीतिक दल पर असर न हो उससे क्या उम्मीद की जा सकती है। ऐसे माहौल में राज्य सरकार के किसी काम की चर्चा भी नहीं हो पाती। क्योंकि एक घटना का गुबार शांत हो उससे पहले दूसरी घटना हो जाती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक दंगे सरकार रोक नहीं पाई, यह बात पुरानी हो गई है। लेकिन दंगे के आरोपियों की रिहाई से लगता है कि उन्हें अदालत में सजा दिलाने में भी प्रशासन की रुचि नजर नहीं आती।
प्रदेश सरकार की हालत यह है कि लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ता है। इस मामले में तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के एतराज पर सुप्रीम कोर्ट को अपना फैसला बदलना पड़ता है। पूरे मामले से धारणा बनी कि राज्य सरकार इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट दोनों को गुमराह करने की कोशिश कर रही थी। लेकिन मुख्यमंत्री और उनके कुनबे पर सुप्रीम कोर्ट की प्रतिकूल टिप्पणियों का भी कोई असर नहीं पड़ा। राज्य सरकार का भ्रष्टाचार के प्रति रवैया बताने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। प्रदेश के एक आईएएस अधिकारी को भ्रष्टाचार के आरोप में सीबीआई की विशेष अदालत ने तीन साल की सजा सुनाई। वे हाईकोर्ट से सजा के खिलाफ स्थगन आदेश ले आए। अखिलेश यादव की सरकार ने उनको तरक्की देकर प्रमुख सचिव बना दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पूछना पड़ा कि यह कैसे हो सकता है।
अखिलेश के राज में समाज की एक बड़ी आबादी के लिए कानून का इस्तेमाल उनके बचाव की बजाय उनकी आवाज दबाने और आरोपियों को बचाने के लिए होता है। लोगों के सामने समाजवादी पार्टी के अराजक तत्वों के खिलाफ समर्पण करने या अदालत का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। मुलायम सिंह यादव को इस राजनीतिक संस्कृति से जहां तक पहुंचना था पहुंच गए। लेकिन अखिलेश यादव के सामने लम्बा राजनीतिक जीवन है। वे बदलते वक्त के मिजाज को समझ नहीं पा रहे हैं। सपा की मौजूदा राजनीतिक संस्कृति उन्हें आगे नहीं ले जाएगी। उन्हें याद रखना चाहिए कि यह सत्ता उनकी अर्जित की हुई नहीं है, उन्हें पिता से विरासत में मिली है।