ऐ ‘बाबा’ मीडिया को गाली देने से हिस्ट्री बदल जाएगी!

अजय विद्युत

बात इतनी सी है कि क्या संजय दत्त की सारी दुर्दशा के लिए मीडिया जिम्मेदार था- जैसा कि उनके जीवन पर बनी बायोपिक ‘संजू’ बताती है… ‘मां’ ‘बहन’ तो पीछे की बात है- नए जमाने की सॉलिड गालियों में कौन सी बची है जो इस महान फिल्म में मीडिया को न दी गई हो।
‘संजू’ में मीडिया को दत्त के खिलाफ दुष्प्रचार पर आमादा दिखाया गया और भीषण अपशब्द सुनाए गए इस पर पुरानी और नई पीढ़ी के कुछ पत्रकारों की बात यहां प्रस्तुत है। लेकिन इससे पहले मुंबई के टेबलाइड ‘डेली’ के रिपोर्टर बलजीत परमार की बात करनी भी जरूरी है। उन्हीं की मार्फत पूरी दुनिया को मुंबई बम धमाकों से संजय दत्त के कनेक्शन का पता चला था। पहले पन्ने पर छपी मुख्य खबर का शीर्षक था-‘संजय हैज एके-56 गन’ परमार ने एक आईपीएस अधिकारी से पूछा कि मुंबई धमाकों के बारे में नया क्या चल रहा है तो उसने कहा कि आपके ही एक एमपी के बेटे का नाम आ रहा है। परमार को नहीं पता वो कौन हो सकता है। कुछ समय बाद उन्होंने एक अन्य पुलिस अधिकारी से कहा कि ‘पुलिस सांसद के बेटे को उठाकर पूछताछ कर रही है’, तो वह बोला कि ‘वो विदेश में शूटिंग कर रहा है, आने पर देखा जाएगा’ अब साफ हो गया कि वह संजय दत्त हैं। 14 अप्रैल को संजय दत्त ने मॉरीशस से परमार को फोन किया। परमार ने बताया कि आप फंसने वाले हैं। आपके घर हथियार रखने की बात ‘सनम’ के प्रोड्यूसर समीर हिंगोरा और यूसुफ नलवाला पुलिस के समक्ष कबूल कर चुके हैं।’ संजय ने परमार से कहा कि वह उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं। फिर पूछा अब क्या करूं? परमार बोले- सरेंडर कर दो। हथियार किसी स्टाफ से पुलिस के पास जमा करवा दो। पुलिस ने हथियार घर से पकड़ा तो टाडा में फंसोगे।’ लेकिन संजय ने हथियार जमा कराने के बजाय नष्ट कराने की कोशिश की।
तो ये होता है पत्रकार जो दूसरे पक्ष की पुष्टि बिना खबर नहीं लिखता। संजू को टाडा से बचने की राह सुझाता है। और हिरानी का ‘बाबा’ उसे गाली देता नहीं थकता।
मीडिया के ‘शिकार’
या ‘लाभार्थी’

शेखर गुप्ता, प्रधान संपादक- द प्रिंट
आकर्षण, हास्य, हैगियोग्राफिक शैली का इतिहास, न कि सिनेमा, निश्चित रूप से निर्धारित नहीं करता है कि संजय दत्त ‘सिस्टम’ और मीडिया का शिकार थे या फिर एक लाभार्थी। टाडा की निचली अदालत ने उन्हें आतंकवाद के आरोपों से बरी कर दिया था। लेकिन यह अजीब है कि सीबीआई ने उच्च न्यायालय में इस पर अपील नहीं की। क्या किसी अन्य आतंकवादी आरोपी ने भी ऐसी उदारता प्राप्त की है? कभी नहीं, जब तक कि ‘सिस्टम’ और मीडिया उसे बचाने की, न कि उस पर निशाना साधने की, साजिश में संलिप्त न हो। उनके स्वर्गीय पिता, जो कांग्रेसी मंत्री और सांसद थे, ने सभी से मदद की गुहार लगाई थी यहां तक कि बालासाहेब ठाकरे से भी।
स्टार या स्टार निर्माता किसी को धन्यवाद-पत्र नहीं भेजते हैं। पत्रकारों को तो कोई भी नहीं भेजता। लेकिन दत्त की पीड़ा के लिए पत्रकारों को दोष देना चौंकाने वाला है और हेकड़ी के साथ एक बेईमानी है। हमारी लोकप्रिय संस्कृति की गुणवत्ता के आधार पर अब भारतीय सिनेमा की स्थिति प्रतिबिंबित होती है। हमारे दो सबसे प्रतिभाशाली और सफल फिल्म निर्माता, विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी द्वारा बनाई फिल्म की शुरुआत राज ठाकरे को धन्यवाद देते हुए होती है और इसका अन्त संजय दत्त (वास्तविक व्यक्ति, रणबीर कपूर के संजू नहीं) के साथ होता है, जो पत्रकारों को संबोधित कर रहे होते हैं ‘तेरी मां की…’
मुझे लगता है कि हम इसे प्रीतिकर समझते हैं।
…हिरानी ने मीडिया पर ‘एहसान’ किया
राजीव रंजन, फिल्म समीक्षक- हिन्दुस्तान
फिल्म संजू को संजय दत्त की जीवनी के रूप में प्रचारित किया गया है। इस लिहाज से यह ऐतबार कर लेना चाहिए कि एके 47 रखने के केस में उन्हें जो मुश्किलें झेलनी पड़ीं, जेल जाना पड़ा, बदनामी झेलनी पड़ी, वह सिर्फ और सिर्फ मीडिया के कारण। मीडिया ट्रायल के कारण ही उन्हें इतना कुछ झेलना पड़ा। इस बात को और जोर देकर बताने के लिए निर्देशक राजकुमार हिरानी ने क्लाइमेक्स के बाद ‘अब बस हो गया बाबा’ एक पूरा गाना भी जोड़ा है। हिरानी ने मीडिया पर एहसान किया कि किसी मीडिया वाले को संजू को अपने घर में एके 47 रखने के लिए उकसाते हुए नहीं दिखाया। इस फिल्म से हमें कोई संदेश मिलता है, तो वो यह है कि संजय दत्त ने जो कुछ भी गलत किया, उसके जिम्मेदार वह खुद नहीं थे, कोई दूसरा था। वे ड्रग्स के आदी बने, क्योंकि उनके दोस्त ने उनको ड्रग्स लेकर दिया। वे ड्रग्स के आदी बने, क्योंकि उनके पिता उनको तवज्जो नहीं देते थे। उन्होंने अपने दोस्त की गर्लफ्रेंड के साथ घपाघप किया, क्योंकि वह कैरेक्टर की ठीक नहीं थी। वगैरह वगैरह। और बाकी उनकी छाती पर मूंग दलने के लिए मीडिया तो थी ही।
ये नायक…वो खलनायक

अमिताभ श्रीवास्तव, कार्यकारी संपादक- इंडिया संवाद
सुभाष घई की फिल्म खलनायक के शीर्षक गीत के बोल थे- ‘नायक नहीं खलनायक हूं मैं’। फिल्मी परदे पर संजय दत्त जिस समय यह गीत गाते दिख रहे थे, उसी समय मुंबई बम धमाकों में उनकी संलिप्तता को लेकर उन पर असली जिन्दगी में विलेन का बिल्ला चस्पा हो चुका था। संजय दत्त की जिन्दगी पर बनी फिल्म संजू उसी बिल्ले को लोगों के दिलो-दिमाग से नोच फेंकने की कोशिश है। संजय दत्त फिल्मी दुनिया की एक ऐसी बिरली हस्ती हैं जिन्होंने नाम भी खूब कमाया है और बदनामी भी। संजू फिल्म ने उनके बिगड़ने की कहानी बताते-बताते उसमें मीडिया को विलन बना दिया है जो फिल्मकार और अभिनेता दोनों के मंसूबों की ईमानदारी पर सवाल उठाता है। अपनी किसी गलती के लिए संजय दत्त जिम्मेदार नहीं थे/हैं, ऐसा भाव है फिल्म का। यहां मीडिया खलनायक है और संजय दत्त उसके शिकार। फिल्म के अंत में सूत्रों के बहाने रचे गए व्यंग्यात्मक गीत में भी मीडिया के चरित्र और कामकाज के तौर तरीकों पर सवाल उठाए गए हैं।
‘संजू’ ने संजय दत्त की जिन्दगी के कई हिस्सों को बहुत असरदार तरीके से दिखाया है लेकिन बहुत सी बातों पर पर्दा भी पड़ा रहने दिया है। संजय दत्त के लिए उमड़ी हमदर्दी से परे जाकर कुछ सीधे सवाल भी पूछे जाने चाहिए-
…क्या माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम की मंडली से संजय दत्त को मीडिया ने मिलवाया था? …क्या वे हथियार मीडिया ने मुहैया कराए थे जिन्हें रखने के जुर्म में संजय दत्त को जेल की सलाखों के पीछे वक्त गुजारना पड़ा? …क्या उन हथियारों को नष्ट करने का आइडिया मीडिया ने सुझाया था?
सच तो यह है कि मीडिया, जिसे राजकुमार हीरानी ने संजय दत्त के जीवन का विलेन बना कर पेश किया है, ने सिर्फ घटनाओं की रिपोर्टिंग और उनके विश्लेषण का अपना काम किया।
बलि का बकरा बनाया मीडिया को
अकु श्रीवास्तव संपादक- नवोदय टाइम्स
मीडिया ने संजय दत्त के मुश्किल समय में उनको बचाने की, उनके पक्ष में सहानुभूति जुटाने और थोड़ी सी छूट देने की भूमिका निभाई है। अगर कोई आतंकवादी घटनाओं में पकड़ा गया है तो मीडिया कहीं भी उसको किसी भी तरह की रियायत देने के मूड में नहीं होता है। लेकिन ये चूंकि संजय दत्त थे इसलिए मीडिया ने कई मौकों पर जैसे जब जब इनको रिमांड की बात आई या जब इनके रिलेशनशिप की बात आई है तो इनको एक छूट दी है। आम तौर पर जब भी किसी फिल्मी हस्ती के बारे में रिलेशंस को लेकर बातें होती हैं तो उसको बहुत खराब तरीके से देखा जाता है। संजय दत्त के साथ ऐसा नहीं हुआ है। जहां तक ‘संजू’ फिल्म की बात है तो उसमें मीडिया को निगेटिव (संजय दत्त के खिलाफ) में इसलिए दिखाया गया है क्योंकि इससे उनको बच निकलने का एक रास्ता मिला है। मीडिया को उन्होंने बलि का बकरा बनाया है।
एक आदमी होश संभालते ही सिगरेट पीना शुरू कर देता है, होश संभालते ही ड्रग्स में आ जाता है, एक व्यक्ति होश संभालते ही इतना असुरक्षित हो जाता है कि रायफल, रिवाल्वर, बंदूकों के जखीरे रखने की बात कर ले… तो उसको आप माफ कैसे कर देंगे। संजय दत्त को इस मामले में वह माफियां मिली हैं ‘अरे ये तो ऐसा हो गया होगा इसलिए ऐसा सोचा गया है।’

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