यूपी में योगी का सीएम बनना एक नया शुभारंभ

क्या सत्ता पाकर भी योगी-संन्यासी अपने संन्यास की नैसर्गिक सुगंध को बरकरार रख सकेंगे। राजनीति में संन्यासी का आना आध्यात्मिक रूप से कितना उचित है? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ क्या शासन व्यवस्था को लोगों के अनुकूल बना पाएंगे? इन्हीं सवालों को लेकर अजय विद्युत ने ओशो के काफी निकट रहे और ओशो ध्यान विधियों का देश-विदेश में प्रचार में संलग्न स्वामी चैतन्य कीर्ति से बातचीत की।

संन्यास और राजनीति… कोई मेल है?
संन्यासी तो एक तरह से कल्याणमित्र ही होता है सबका। उसके अंतर में तो हर समय यही प्रार्थना चलती रहती है- सर्वे भवंतु सुखिन: …सब सुखी हों, सबका कल्याण हो। संन्यासी अगर राजनीति में आता है तो वह वहां भी अपने संन्यास की सुगंध लाएगा। संन्यास क्या है- सबसे प्रेम, वसुधैव कुटुंबकम्। यह सारा जगत वह परमात्मा का ही परिवार है, उसमें जाति, वर्ण, धर्म आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है। तो योगी-संन्यासी के लिए भी इन सब बातों का कोई अंतर नहीं पड़ता है। वह सबके लिए काम करता है क्योंकि वह पूरी मनुष्यता के लिए होता है।
तो संन्यास का तो मूल आधार वही है कि अब वह सब व्यक्तियों को उसी के अंश के रूप में देखता है जैसे कहते हैं- तत्वमसि। तुम भी वही हो मैं भी वही हूं। तो जिसकी प्रतिभा में ये बातें हैं वह को कल्याण ही करेगा और कल्याणमित्र ही होगा।

संन्यासी का राजनीति में आना जनता के कल्याण की गारंटी है?
संन्यासी राजनीति में आए तब तो कल्याण है ही। लेकिन दूसरी बात भी है जो वास्तविक रूप में लोकतंत्र को जनकल्याणकारी बना सकती है। जैसे कोई व्यक्ति राजनीति में आने पर, सत्ता में आने पर भी संन्यासी की तरह जीए। जैसे कोई राजनीति में ऐसे जीए जैसे कीचड़ में कमल जीता है। दोनों ही बातों में हमें परिणाम एक से मिलेंगे।
संन्यास तो ऊपर की मनोदशा है, भावदशा है जो साधारण स्तर पर नहीं होती है। संन्यासी लोगों के बहुत अंतरतम तक देख पाते हैं और कल्याणकारी होते हैं।
लेकिन आम लोगों के बीच संन्यास को लेकर अवधारणा कुछ इस प्रकार की है कि वह व्यक्ति अब संसार से कोई संबंध नहीं रखेगा।
यह तो संन्यास की एक बहुत पिटी पिटाई भाषा है। त्याग की और पलायन की। आज तो हमें इसे गीता की इस भाषा से रिप्लेस करना चाहिए कि संन्यास पलायन नहीं करना है, त्याग नहीं करना है बल्कि जीवन को सघनता में जीना है। और जीवन की सघनता पॉलिटिक्स से ज्यादा कहां पर मिलेगी। संन्यासी राजनीति को ऐसा बनाएगा जो सभी को सुखी बना सके, सबके हितों का ख्याल रखे। तो अगर कोई इस तरह से चलता है तो वह सच्चा संन्यासी भी है और राजनीतिज्ञ भी। जैसे राजा जनक थे। राजा भी थे और संन्यासी भी थे। समृद्ध भी थे और कल्याणकारी भी थे।

इसी तरह से अगर कोई संन्यासी व्यापार करे, नौकरी करे… तो वह भी ठीक है?
बिल्कुल ठीक है। प्राचीन काल में हमारे जो ऋषि मुनि थे वो तो शादीशुदा भी होते थे। और आश्रम की पूरी व्यवस्था चलाते थे। हजारों गायों का पालन करते थे। उत्पाद बनाते थे, उनका विक्रय होता था। उस समय आश्रम का मतलब यह नहीं था कि आपने जीवन छोड़ दिया। बल्कि आपने जीवन को समृद्ध किया। संन्यास अंतर्जगत की समृद्धि है लेकिन उसका बाहरी जगत से, उसकी समृद्धि से कोई द्वेष, शत्रुता या विरोध नहीं है। जीवन भीतर भी समृद्ध हो और बाहर भी समृद्ध हो यह संन्यास की कामना है। हमारा शरीर और यह भौतिक जीवन और जगत भी परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। आपने कभी कृष्ण को देखा कि लंगोटी पहन कर खड़े हो गए हों और बाकी कुछ नहीं कर रहे हों। वह पूरी तरह से राजनीति में खड़े हैं। और फिर उन जैसा उपदेश देने वाला भी कोई नहीं।
जीवन एकांगी नहीं होता वह सर्वांगीण है, बहुआयामी है। और जीवन का बहुआयामी विकास हो तो उसमें जड़ता या कुंठा नहीं आएगी। संन्यासी की स्टीरियोटाइप छवि को तो हमें नष्ट करना है क्योंकि संन्यासी तो जीवन का परम स्वीकारकर्ता है। जीवन के हर आयाम को स्वीकार करता है और उसमें अपना जो भी योगदान कर सकता है, वह करेगा। सच्चा संन्यासी वही है जो जीवन से भागता नहीं है। जीवन को परमात्मा की अनूठी भेंट समझते हुए उसका परिष्कार और विकास करता है। संन्यासी का मतलब त्यागी नहीं होता है। बल्कि वह जिसने जीवन में संतुलन साध लिया।

यूपी में योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने पर आप क्या कहेंगे?
मैं इसे एक नए शुभारंभ के रूप में देख रहा हूं और बड़ी अपेक्षाओं के साथ देख रहा हूं। संन्यास की अक्षुण्ण शक्ति है। जो योगी व्यक्ति होता है उसके पास आंतरिक शक्ति बहुत होती है। बहुत काम कर सकता है वह। जो योगी होता है वह भीतर से अनडिवाइडेड, अखंडित होता है। न खंडित मन, न चित्त। तो वह अपने को पूर्णरूपेण समर्पित कर सकता है कार्य में। योग: कर्मसु कौशलं। कर्म में कुशलता ही योग है- ये कृष्ण ने साफ कहा। कर्म में कुशलता होगी तो सच्चा योग सध जाएगा। तब फिर और कुछ करने की जरूरत नहीं रहती, न भक्ति, न कुछ और! कर्म तो समर्पित भाव से करना ही सच्चा योग है।

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