उमेश सिंह

अयोध्या अपने गर्भ में विकास की विराट संभावनाओं को धारण किए हुए है। यहां की उर्वर जमीं पर कौन नहीं रीझा। हिंदू, बौध, जैन, सिख, मुस्लिम सब इसके आंगन में पले-पुसे-बढ़े। वैश्विक सांस्कृतिक केंद्र बनने का जो भी सांस्कृतिक-आर्थिक व्याकरण है, उस सबको अयोध्या अपनी गोद में लिए है, फिर भी उसके इस रूप को उभारने की संवेदनशीलता के साथ ईमानदार कोशिश नहीं हुई। काशी, मथुरा, उज्जैनी आदि नगरी समय के साथ कदम-ताल करते हुए बढ़ते गए लेकिन अयोध्या जहां थी, वहीं ठिठकी पड़ी है, ठहरी है, उदास है, बेबस है। इसके बदन पर वक्त के क्रूर थपेड़ों के जहां-तहां निशां हैं। यह मानो अपने त्राण के लिए किसी विक्रमादित्य का इंतजार कर रही है। दरअसल आज अयोध्या में जो कुछ भौतिक रूप से दिखता है, उसमें राजा विक्रमादित्य का बहुत बड़ा योगदान है। त्रेतायुग में राम पैदा हुए जिसे अयोध्या ने वनवास दे दिया लेकिन आज के राम को सियासत ने ‘दूसरा वनवास’ दे दिया। त्रेता के राम तो 14 वर्ष बाद जंगल से अयोध्या लौट आए थे लेकिन आज के राम ‘लोहे के जंगलों’ में कैद हो गए हैं।

विवाद के ढाई दशक पर हम गौर फरमाएं तो सत्ता में हाशिए पर रहे लोग इसी अयोध्या को सीढ़ी बना सत्तासीन हो गए। इससे जुड़े दोनों पक्ष बड़े हो गए लेकिन जिस अयोध्या का प्रयोग कर वे बड़े होते हुए आदमकद जैसे हो गए, वह अयोध्या और ज्यादा छोटी-ठिगनी हो गई। एक रुकी, ठहरी, बेबस और उदास अयोध्या। जो अक्स इसे देखने के बाद जेहन में कौंधता है उससे लगता है कि धर्मनगरी आज भी सपनों में जी रही है। सपना राम के मंदिर के निर्माण का तो है ही, साथ ही आधुनिक विकास का भी है। अयोध्या को लेकर ढाई दशक तक जो ‘वाक-पाखंड’ हुआ, लगता है उसे भुला अब अयोध्या आगे निकल आई है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब से केंद्र में भाजपा सरकार आई है, वह राममंदिर मुद्दे पर तो रहस्यमयी चुप्पी साधे हुए है लेकिन अयोध्या को ‘विकास के आधुनिक मंदिरों’ से सज्जित-सुसज्जित करने में मिशन की तरह लग गई है। विवाद वाले स्थान को छोड़ अयोध्या की सांस्कृतिक अस्मिता के जो भी चिह्न जहां-तहां हैं, सबके सब उसके एजेंडे में लगते दिख रहे हैं। यदि सभी परियोजनाएं साकार रूप ले लेती हैं तो अयोध्या के ‘दूसरे विक्रमादित्य’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हो सकते हैं। लेकिन अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी क्योंकि अभी समय के गर्भ में बहुत कुछ है।

केंद्र व प्रदेश सरकार में छीना-झपटी

अयोध्या के मुद्दों को लेकर केंद्र और प्रदेश सरकार में छीनाझपटी जैसा माहौल है। दोनों ही अयोध्या को लेकर खास तौर पर सक्रिय हो गए हैं। केंद्र सरकार राममंदिर मुद्दे से दूरी बना दूसरे नजरिए से यहां का विकास करना चाह रही है। फैजाबाद के भाजपा सांसद लल्लू सिंह ने कहा कि केंद्र अयोध्या का उसकी गरिमा के अनुकूल विकास करने की दिशा में प्रयासरत है। रामायण सर्किट योजना, मेडिकल कालेज का शिलान्यास, फैजाबाद-जगदीशपुर फोरलेन का शिलान्यास तथा चौरासी कोसी परिक्रमा पथ को राष्टÑीय राजमार्ग और सरयू पर बैराज बनाने आदि की घोषणा हो चुकी है। राम वनगमन मार्ग और रामजानकी मार्ग की दिशा में कार्य शुरू हो गए हैं। जबकि अयोध्या के सपा विधायक व वन राज्य मंत्री तेज नारायन पांडेय ‘पवन’ कहते हैं, ‘साढ़े चार साल में अयोध्या में विकास के लिए उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने बहुत से काम किए। राम की पैड़ी को नया लुक दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ‘एम्फी थियेटर’ का शिलान्यास कर चुके हैं जिसमें एक साथ पांच हजार लोगों के बैठने की व्यवस्था होगी। जब यह बनकर तैयार होगा तो इससे अयोध्या के सांस्कृतिक माहौल में नई रवानी आएगी।’ लेकिन साथ में यह भी कहा कि अयोध्या में साल भर भंडारा होता है, पत्तल-दोने सड़क पर फेंक दिए जाते हैं, इस दिशा में अयोध्या को जागरूक किए जाने की जरूरत है। शीघ्र ही इस मुद्दे पर साधु-संतों के साथ बैठक करेंगे।

देश के कमोबेश सभी धर्मों की जड़ों को अयोध्या की उर्वर भूमि से खाद-पानी मिला है। लेकिन वक्त के थपेड़ों ने इस पर गर्द चढ़ा दी है जिसे साफ करने की जरूरत है। जब अयोध्या सबसे जुड़ेगी, तभी यहां पर्यटकों की आमद ज्यादा होगी। डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विवि के इतिहास एवं पुरातत्व विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. अजय प्रताप सिंह ने कहा, ‘सांझी संस्कृति-सांझी विरासत’ अयोध्या की पहचान है। यहां की धरती पर कौन नहीं रीझा। सात जैन तीर्थंकर यहीं जन्मे। अश्वघोष की भी पैदाइश भूमि यहीं है। महात्मा बुद्ध ने कई चातुर्मास यहीं बिताए। सिख गुरुओं ने भी साधना की, धूनी रमाई। फिर भी यहां उदासी-बेबसी क्यों है? क्योकि यहां का पानी ठहर गया है। ऐसे स्थानों का अर्थशास्त्र पर्यटकों की आवाजाही पर टिका रहता है। पर्यटकों को लुभाने के लिए इधर दो वर्ष में कई बड़े प्रोजेक्ट आए हैं। उम्मीद है कि अयोध्या फिर पहले की तरह खिलखिलाएगी।

दरअसल उद्योग-व्यापार का केंद्र न होने से यहां के स्थानीय लोगों के जीवन में ‘आर्थिक-बसंत’ तभी आएगा जब पर्यटकों की आमद ज्यादा होगी। रामजन्मभूमि के प्रधान अर्चक आचार्य सत्येंद्रदास ने कहा, ‘अयोध्या का धार्मिक और सांस्कृतिक विकास किए जाने की जरूरत है, तभी यह अन्य धार्मिक नगरियों के समानांतर खड़ी हो पाएगी।’ अयोध्या के विकास का ‘आर्थिक-रीढ़’ पयर्टन हो सकता है। काशी, मथुरा, हरिद्वार, उज्जैन आदि धार्मिक केंद्रों की उभरती शक्ति व विकास के पीछे वहां पर जाने वाले पर्यटकों की अच्छी खासी तादाद की मुख्य भूमिका है। अयोध्या स्थित साकेत महाविद्यालय के शिक्षक विशाल श्रीवास्तव ने कहा, ‘केवल तीर्थ, व्रत, मंदिर, मस्जिद से विकास नहीं होने वाला है। बहुआयामी विकास करने की जरूरत है। अयोध्या को उसकी रूढ़ छवि ‘धर्म की नगरी’ में सीमित कर देना ठीक नहीं है। बनारस भी ‘धर्म की नगरी’ है लेकिन वह अपनी नई छवियों के कारण जीवित है। काशी में धर्म का वह चेहरा नहीं है जो कि अयोध्या में दिखता है।’ अयोध्या का अर्थशास्त्र मुख्यत: भोग-प्रसाद, कंठी, माला, खड़ाऊ आदि धार्मिक कर्मकांडों से जुड़ी वस्तुओं पर ही निर्भर है। यहां एक कहावत बहुत प्रचलित है कि अयोध्या न लोगों को मरने देती है और न ही मोटाने देती है। कमोबेश यहां का दृश्य इसी कहावत के ईद-गिर्द नजर आता है। कालिकुलालयम पीठ के संस्थापक डॉ. रामानंद शुक्ल ने कहा, ‘आध्यत्मिक विभूतियों की दृष्टि से अयोध्या संपन्न है लेकिन उसी के सापेक्ष भौतिक नजरिए से विपन्न है। बीते ढाई वर्ष से विकास के नाम पर केंद्र सरकार की ओर से जो प्रयास किए जा रहे हैं उससे लगता है कि अयोध्या का परंपरा के साथ आधुनिकता का श्रृंगार किया जा रहा है, लेकिन राममंदिर को बिसार देना भी ठीक नहीं है।’ अयोध्या की अंतर्धारा साफ संकेत करती है कि लोग विवाद को बिसार कर आगे की सुधि लेना चाह रहे हैं। शास्त्रीय संगीतज्ञ देवप्रसाद पांडेय ने एक शेर सुनाते हुए कहा, ‘दोष किसका है इसे बाद में तय कर लेंगे/ पहले इस नाव को तूफां से बचाया जाए/ जलते एहसास को लोगों के जगाया जाए/ आज का गीत जमाने को सुनाया जाए।’

भाजपा की नजर अयोध्या की सांस्कृतिक परिधि पर
अयोध्या से चारों ओर चार जिलों में अयोध्या की सांस्कृतिक परिधि मानी जाती है। आरएसएस से लेकर विहिप तक सब लोग धर्मनगरी की सांस्कृतिक सीमा को लेकर वर्षों से संवेदनशील रहे हैं। गाहे-बगाहे यह भी कहते रहे हैं कि मस्जिद स्वीकार है, पर अयोध्या की सांस्कृतिक परिधि के बाहर। दरअसल इसी परिधि में सैकड़ों की संख्या में ऋषियों-महर्षियों-मुनियों की साधना स्थली है। मान्यता है कि इन ऋषियों ने अपने तप से इस क्षेत्र को आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न किया। वक्त के थपेड़ों ने साधना के इन केंद्रों को भी नहीं छोड़ा। इन कुटियों के दिन बहुरेंगे तो श्रद्धालु यहां तक जाएंगे और कई दिनों तक टिकेंगे। चौरासी कोस का परिक्रमा पथ 275 किलोमीटर लंबा है जिसमें 35 किमी. कच्चा मार्ग है। सरयू नदी पर दो पुल भी बनेंगे। इस मार्ग पर व इसके आस-पास पुत्रकामेष्टि यज्ञस्थल मखौड़ा, श्रृंगी ऋषि आश्रम, दुग्धेश्वर महादेव, आस्तीक, जनमेजय कुंड, रुद्रावली, गौतम ऋषि आश्रम, सुमेधा ऋषि की साधना स्थली कामाख्या भवानी, भौरीगंज, राजापुर, सूकर क्षेत्र, नरहरिदास की कुटी, ऋषि यमदग्नि की तपस्थली जमथा, अष्टावक्र आश्रम, ऋषि पाराशर की तपस्थली परास गांव और शौनडीहा आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा पथ से थोड़ा सा ही दूर हटने पर ही तकरीबन सौ स्थान ऐसे हैं, जहां पर्यटक जाएंगे। इनमें योगिराज भरत की तपोस्थली नंदीग्राम, श्रवण कुमार की तपोस्थली बारुन, चिर यौवन बने रहने की कला बताने वाले ऋषि च्यवन का आश्रम, तंत्र शास्त्र को पुष्ट करने वाले ऋषि वामदेव तथा अगस्त्य और रमणक जैसे ऋषियों से जुड़ा स्थान है। केंद्र सरकार सांस्कृतिक परिधि के प्रति कितना संवेदनशील है इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि 21 दिसंबर को यहां आए केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के सामने जब सांसद लल्लू सिंह ने इसे राजमार्ग घोषित करने की मांग की तो एनएच के अधिकारियों ने मंत्री को बताया कि बहुत मुश्किल है क्योंकि गांवों से होकर यह मार्ग गुजरता है और कहीं-कहीं पर तो सड़क भी नहीं है। मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि राम का काज है, कोई अड़चन भी होगी तो उसे राम जी दूर कर देंगे। ‘राम-राज’ पर बोलते-बोलते भावुक हुए नितिन गडकरी ने कहा, ‘लल्लू सिंह आप मांगते-मांगते थक जाओगे, लेकिन मैं देते-देते नहीं थकूंगा।’