गुलाम चिश्ती।

इन दिनों त्रिपुरा की मार्क्सवादी सरकार संकट में है। इसकी वजह बहुसंख्यक बंगालियों और स्थानीय जनजातियों के बीच जारी संघर्ष है। वैसे इसे दूर करने के लिए मुख्यमंत्री माणिक सरकार की ओर से पूरी कोशिश की जा रही है। बावजूद इसके हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। 23 अगस्त को बंगालियों और आदिवासियों के बीच हुई हिंसा के बाद स्थिति बिगड़ती जा रही है। आदिवासियों की पार्टी इंडिजीनियस पीपुल्स फ्रंट आॅफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) की एक रैली के दौरान सांप्रदायिक तनाव से अब स्थिति विस्फोटक हो गई है। इससे आम लोगों को दुश्वारियों का सामना करना पड़ रहा है। आईपीएफटी के कार्यकर्ताओं पर आरोप है कि उन्होंने बंगाली समुदाय की एक गर्भवती महिला को धकेलकर घायल कर दिया। इससे मामला और गंभीर हो गया।

पुलिस की मानें तो पश्चिमी त्रिपुरा के हेजामारा में सुबल सिंह क्षेत्र में कुछ आदिवासियों ने पांच सितंबर की रात करीब नौ बजे कमलपुर से अगरतला जा रहे एक यात्री वाहन पर हमला कर दिया। आदिवासियों ने यात्रियों को धारदार हथियार दिखाकर उन्हें वाहन से उतरने और अपना कीमती सामान देने को कहा। वाहन में सवार 12 यात्रियों के गहने, नगदी और अन्य कीमती सामान लूट लिए गए। उनमें से एक यात्री बदमाशों का ध्यान भटकाकर घटनास्थल से भाग निकला और पूरा मामला नजदीक में लगे त्रिपुरा स्टेट राइफल्स की 11वीं बटालियन के शिविर के जवानों को बताया। जवानों के घटनास्थल पर पहुंचने से पहले ही बदमाश वहां से भाग निकले। फिलवक्त किसी अज्ञात हमले या हिंसा से बचने के लिए अगरतला से जनजाति छात्र-छात्राएं पलायन कर गए हैं। स्थानीय एमबीबी विश्वविद्यालय, बीबीएम कॉलेज, प्रगति विद्या भवन और उमाकांत एकेडमी जैसे कई प्रमुख शिक्षा केंद्र हैं जहां के जनजाति हॉस्टल खाली पड़े हैं। दूसरी ओर जिन स्थानों पर आदिवासी अच्छी खासी संख्या में हैं वहां वाहनों को रोककर बंगालियों के साथ मारपीट की घटनाएं घट रही हैं और उन्हें लूटा जा रहा है।
अगरतला के एक शिक्षक सुरंजय मालाकार का कहना है, ‘इस पूरे झगड़े की जड़ मीडिया है जिसने तिल का ताड़ बनाकर 23 अगस्त की घटना को हवा दी। यदि रैली के दौरान किसी वक्ता ने बंगालियों के खिलाफ कुछ आपत्तिजनक बातें कही या किसी पर हमले हुए तो संबंधित व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती थी। साथ ही बातचीत कर मामले को शांत किया जा सकता था मगर अभी तक सरकार या कथित बुद्धिजीवी संगठनों की ओर से कुछ भी नहीं किया जा रहा है। इस मामले में राज्य सरकार की ओर से जो गंभीरता और सजगता दिखाई जानी चाहिए थी वह नहीं दिखाई गई।’

आईपीएफटी के अध्यक्ष विजय कुमार हरंगखवाल का कहना है, ‘समस्या को दूर करने की जगह उसे और हवा दी जा रही है। एक साजिश के तहत मामले को अति संवेदनशील बना दिया गया है। इसकी वजह से राज्य के आदिवासी और गैर अदिवासियों के बीच कटुता बढ़ती जा रही है। हम चाहते हैं कि मामले की जांच सीबीआई से कराई जाए। इसलिए हमने राज्यपाल तथागत राय से मिलकर सीबीआई जांच की मांग की है। हमें राज्य सरकार के जांच तंत्र पर भरोसा नहीं है।’ राज्य सरकार उनके इस तर्क से सहमत नहीं है। आदिवासी कल्याण मंत्री अघोरे देब्बरमा का कहना है कि कुछ असामाजिक तत्व आतंक का माहौल बनाकर आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच शांति, सद्भाव और भाईचारे को बिगाड़ना चाहते हैं। बताते चलें कि राज्य सरकार घटना की मजिस्ट्रेटी जांच की घोषणा कर चुकी है।

मुख्यमंत्री माणिक सरकार के कामों की सभी सराहना करते हैं मगर स्थानीय आदिवासी समाज को यह बात कचोटती है कि बांग्लादेश से आए लोगों के कारण वे अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन गए हैं। उनकी जमीनों और जंगल पर बांग्लादेश से आए लोगों का कब्जा होता जा रहा है। आदिवासी युवक भवतोष का कहना है कि आदिवासी समाज अपने गांव, कस्बे और जिले तक सिमट कर रह गया है। राजधानी अगरतला में हमारी भूमिका नगण्य है। सरकारी तंत्र पर पूरी तरह गैर आदिवासियों का कब्जा हो गया है। अपने ही राज्य में हम अल्पसंख्यक बन गए हैं। हमारे लिए इससे बड़ी दुख की क्या बात हो सकती है? 23 अगस्त के बाद आदिवासियों और गैर आदिवासियों के बीच जो दरार पैदा हुई है उससे त्रिपुरा की शांति, सौहार्द और समृद्धि को नुकसान पहुंचने की आशंका है। यदि मुख्यमंत्री आपसी संदेह को मिटाने में कामयाब नहीं हुए तो त्रिपुरा एक बार फिर अशांति की ओर कदम बढ़ा सकता है। त्रिपुरा में बंगालियों और आदिवासियों के बीच संघर्ष की शुरुआत सत्तर के दशक में हुई थी।

त्रिपुरा की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले दीपांकर घोषाल का कहना है, ‘सीमावर्ती राज्य होने के कारण बांग्लादेश में जब भी कोई आंतरिक हलचल होती है तो त्रिपुरा का प्रभावित होना स्वाभाविक है। चाहे पाकिस्तान से टूटकर बांग्लादेश का गठन हो या सांप्रदायिकता के आधार पर वहां से हिंदुओं को भगाने का, हर बार इसकी मार त्रिपुरा को झेलनी पड़ी। ऐसे मौकों पर बांग्लादेश से बड़े पैमाने पर त्रिपुरा और असम के सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठ हुई। ऐसे में स्थानीय लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है।’ इसी घुसपैठ के खिलाफ अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने 1979 से 1985 तक आंदोलन किया जो ऐतिहासिक असम आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध है। त्रिपुरा में स्थानीय आदिवासियों ने सत्तर के दशक में ही इस तरह का आंदोलन शुरू कर दिया था। बांग्लादेशियों की घुसपैठ के खिलाफ द नेशनल लिबरेशन फ्रंट आॅफ त्रिपुरा (एनएलएफटी) और आॅल त्रिपुरा टाइगर फोर्स (एटीटीएफ) जैसे संगठन अस्तित्व में आए।बावजूद इसके पड़ोसी देश से लोगों का आना जारी रहा। आज स्थिति यह है कि राज्य में बंगालियों की संख्या 14 लाख के करीब है तो आदिवासी मात्र छह लाख पर सिमट गए हैं।अगरतला में तो बंगालियों की आबादी 96 प्रतिशत है। आज जब एक बार फिर आदिवासी और गैर आदिवासियों के बीच तनाव है तो अधिकांश आदिवासी छात्र अगरतला से हॉस्टल छोड़ अपने घर चले गए हैं। हालांकि बंगाली छात्र इससे सहमत नहीं हैं। स्थानीय छात्र रामानुज पाल का कहना है कि महज 20 प्रतिशत छात्र ही यहां से गए हैं परंतु मीडिया इस मामले को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है।

त्रिपुरा के पत्रकार आशीष पाल का कहना है कि भले ही राज्य विधानसभा के चुनाव में अभी दो वर्ष का समय है मगर इन घटनाओं का आने वाले चुनाव पर असर नहीं पड़ेगा, ऐसा कहना वास्तविकता से मुंह फेरने जैसा है। यहां यह जानना जरूरी है कि राज्य में मुख्यमंत्री माणिक सरकार की लोकप्रियता का कारण आदिवासियों और गैर आदिवासी मतदाताओं के बीच सामंजस्य कायम करना है।उन्होंने कृषि खासकर रबड़ की खेती को बढ़ावा देकर राज्य को आर्थिक रूप से मजबूत बनाया। रबड़ की खेती से आदिवासी समाज जुड़ा हुआ है। इससे राज्य के आदिवासियों को आर्थिक मजबूती मिली। साथ ही राज्य सरकार की ओर से उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य क्षेत्र में विकास के लिए कई योजनाएं चलाई गर्इं जिसने उनके जीवन को बदलने में अहम भूमिका निभाई।

आदिवासी और गैर आदिवासी समाज के बीच के तनाव को पाटने में मुख्यमंत्री की अहम भूमिका रही। पूरे पूर्वोत्तर में त्रिपुरा ऐसा पहला राज्य है जो 2012 से पहले सारी आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगाने में कामयाब रहा। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम कई बार अपने भाषणों में त्रिपुरा को आतंक मुक्त राज्य बता चुके हैं। मुख्यमंत्री माणिक सरकार भी कई बार कह चुके हैं कि पूर्वोत्तर में त्रिपुरा एक ऐसा राज्य है जहां आदिवासी और गैर आदिवासी में कोई भेद नहीं है। राज्य की ओर से सभी के विकास पर ध्यान दिया जा रहा है। यहां पर कोई आतंकी संगठन नहीं बचा है। सभी राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़कर काम कर रहे हैं। मगर मौजूदा परिस्थितियों में इस बात की आशंका जताई जाने लगी है कि माणिक का मतदाताओं पर से जादू समाप्त हो रहा है। इस बार आदिवासी भी खुश नहीं हैं और बंगाली मतदाता सीपीआई (एम), तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में बंटते दिख रहे हैं।

पत्रकार अभिषेक सेनगुप्ता का मानना है कि आदिवासी और गैर आदिवासी संघर्ष को राजनीतिक कारणों से महत्व दिया जा रहा है। इसके पीछे तृणमूल कांग्रेस का हाथ माना जा रहा है जो खुद को राज्य में मजबूत करने के लिए आदिवासियों में अपनी पैठ बनाने में जुटी हुई है। दूसरी ओर हिंदू बंगालियों का झुकाव भाजपा और तृणमूल दोनों की ओर है। राज्य में जो लोग कांग्रेस के साथ थे वे फिलहाल तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की ओर बढ़ गए हैं। याद रहे कि तीन महीने पहले कांग्रेस के छह विधायकों ने तृणमूल कांग्रेस का दामन थामकर कांग्रेस की मिट्टी पलीद कर दी थी। दूसरी ओर भाजपा खुद को बांग्लादेश से आए अवैध हिंदुओं का मसीहा के रूप में स्थापित करने में जुटीहुई है। पार्टी नेताओं का कहना है कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पहली केंद्रीय सरकार है जिसने प्रताड़ित हिंदुओं को भारतीय नागरिकता देने की पहल की है। इन बयानों से तो यही लगता है कि आदिवासी-गैर आदिवासी का संघर्ष वर्ष 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी का ट्रेलर है।

दूसरी ओर मुख्यमंत्री को अपनी ही पार्टी के नेताओं और मंत्रियों से अप्रत्यक्षचुनौती मिलने लगी है। बादल सरकार जैसे वरिष्ठ नेता के साथ मुख्यमंत्री की अनबन की खबरें अकसर स्थानीय मीडिया में आती रहती हैं। माणिक सरकार की गिनती देश के सफल मुख्यमंत्रियों में होती है। मगर मौजूदा हालात को अगर वे नहीं सुधार पाए तो अगले विधानसभा चुनाव में सीपीआई (एम) को सत्ता तक पहुंचाना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। वह भी तब जब त्रिपुरा और दिल्ली के बीच पहली ट्रेन की शुरुआत हो गई है। त्रिपुरा बिजली के उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया है। बांग्लादेश के रास्ते ट्रेन चलने से अगरतला और कोलकाता सहित पूर्वोत्तर भारत और कोलकाता की दूरी और कम हो जाएगी जो त्रिपुरा के विकास में अहम भूमिका निभाएगी। इसका ब्लूप्रिंट बनाने में माणिक सरकार की अहम भूमिका रही है। फिर भी वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियां उनके अनुकूल नहीं दिख रही हैं।