कश्मीर अचानक हिंसा की आग में क्यों झुलसने लगा? एक दहशतगर्द की मौत पर कश्मीर का आवाम क्यों भड़क उठा। अपने ही सुरक्षा कर्मियों पर उनके हाथ पत्थर फेंकने के लिए क्यों उठे? इसके पीछे की वजह घाटी के भीतर ही थी या सरहद पार से मिली कोई शह? आखिर धरती के इस स्वर्ग पर अमन और खुशहाली कैसे बहाल हो? कश्मीर पर खास समझ रखने वाले विशेषज्ञों ने इन तमाम सवालों पर हमारे विशेष संवाददाता सुनील वर्मा से अपनी राय साझा की।

कश्मीर को कभी धरती का स्वर्ग कहा जाता था। ये वो दौर था जब यहां न तो बंदूकें दिखती थीं और न तोपें गरजती थीं। लेकिन धरती के इसी स्वर्ग के नौजवान अब बंदूकें थामे घूम रहे हैं। जिसकी फिजां में कभी केसर महकता था आज वहां बारूद की गंध पसर रही है। ऐसा वर्षों से हो रहा है। पिछले कुछ महीनों से कश्मीर घाटी में फिर से गोलियों की गूंज सुनाई दे रही है। घाटी में प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा में 33 लोगों से अधिक की मौत और करीब डेढ़ हजार लोगों के जख्मी होने की वजह को कश्मीर को करीब से देखने वाले पूर्व पुलिस अधिकारी ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। इन सुलगते सवालों पर कश्मीर पर संजीदा समझ रखने वाले पूर्व पुलिस अधिकारियों ने अपनी राय बेबाकी से पेश की।

 कश्मीरियों को समझना जरूरी

रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के पूर्व प्रमुख अमरजीत सिंह दुल्लत का कश्मीर से पुराना नाता रहा है। दुल्लत जब खुफिया ब्यूरो (आईबी) में बडेÞ ओहदे पर थे तब भी कश्मीर देखते थे और जब रॉ के मुखिया बने तब भी कश्मीर से जुडेÞ कई आॅपरेशंस को उन्होंने सफलता पूर्वक अंजाम दिया। आज भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड में इसी काबिलियल और समझ के बूते दुल्लत को खास तरजीह दी जाती है। दुल्लत ने कश्मीर और इसके सवालों को जितने करीब से समझा है उतना शायद देश के किसी दूसरे नौकरशाह ने नहीं। दुल्लत कहते हैं, ‘कश्मीर पूरी तरह एक राजनीतिक समस्या है जिसे राजनीतिक तौर पर ही हल किए जाने की जरूरत है। गोली से इसका समाधान कभी हो ही नहीं सकता। इसका इस्तेमाल तो कई सालों से हो रहा है। इससे फौरी तौर पर भले ही लोगों के विद्रोह को शांत किया जा सकता है लेकिन कुछ समय बाद यह प्रतिरोध और प्रवाह के साथ सामने आता है। नई दिल्ली में चाहे किसी भी राजनीतिक दल की सरकार हो कोई यह समझने को तैयार नहीं है कि कश्मीर की समस्या को आप बंदूक से नहीं सिर्फ बातचीत और कश्मीरियों को अपनेपन का संदेश देकर खत्म कर सकते हैं।’

दुल्लत के मुताबिक, ‘अब दिल्ली में बैठी सरकार को कश्मीर के बाशिदों के दिमाग को पढ़ना होगा, उन्हीं की तरह सोचना होगा कि आखिर समस्या क्या है? सरकार को गंभीर रुख अपनाकर उनसे बात करनी चाहिए। सरकार अगर उत्तर पूर्वी राज्यों के विद्रोहियों से बातचीत कर सकती है तो कश्मीर के विद्रोहियों से बातचीत करने में क्या हर्ज है। मैं ये नहीं कहता कि सरकार बातचीत नहीं करती या इसकी कोशिश नहीं करती। असल में बड़ा सवाल यह है कि जब आप बातचीत को आगे बढ़ाते हैं तो दूसरे पक्ष से किन लोगों को आप भरोसे में लेते हैं और किन बुनियादी मसलों को सुलझाने की कोशिश करते हैं। मतलब साफ है कि कश्मीर की समस्या जिन लोगों से बातचीत करके सुलझ सकती है उनको बातचीत में जरूर शामिल किया जाना चाहिए। दूसरा यह कि जब आप कश्मीर में अमन बहाली के लिए आगे बढ़कर कोई पहल करते हैं तो आप वहां की समस्या को किस नजर से देखते हैं, दिल्ली की नजर से या कश्मीर की नजर से। एक बात बहुत साफ है जो मेरी समझ में आती है वह यह कि कश्मीर की समस्या को कभी भी दिल्ली का चश्मा लगाकर नहीं सुलझाया जा सकता।’

Supporters of the moderate faction of All Parties Hurriyat Conference attend a rally in Srinagarदुल्लत का कहना है, ‘आज तक एक बात समझ नहीं आई कि केंद्र सरकार कश्मीर समस्या किसे मानती है। क्या वहां के नौजवानों के आतंक के रास्ते पर जाने कोे समस्या माना जाता है, क्या नौजवानों के अपने मुल्क के खिलाफ नारे लगाने को या फिर अपने सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने को समस्या माना जाता है। या फिर कश्मीर समस्या यह है कि पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर को हासिल किया जाए। मुझे तो लगता है कि इनमें से किसी भी तरह की समस्या पर दिल्ली में बैठी सरकार ने कभी गंभीर प्रयास नहीं किए। अगर गंभीरता होती तो कश्मीर में पिछले दिनों जब अलगाववाद की घटनाओं में कमी आई तब भी सरकार ने अलगाववादियों से स्थायी शांति बहाली के लिए कोई बातचीत नहीं की। कोई ऐसे उपाय नहीं खोजे कि कश्मीर के नौजवानों के दिलों से नफरत कम हो पाती। मैं तोे यही समझता हूं कि दिल्ली की सरकार कश्मीर में यथास्थिति बनाए रखने में ज्यादा दिलचस्पी रखती है। फिर चाहे वह कांग्रेस की सरकार रही हो या फिर नरेंद्र मोदी सरकार।’

हालांकि दुल्लत मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कश्मीर को लेकर गंभीर जरूर दिखे हैं। कश्मीर के विकास कार्यों में तेजी और बार-बार उनका कश्मीर जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि उनके दिमाग में समाधान खोजने की कोई योजना है। उनका कहना है, ‘सरकार को यह बात बखूबी समझ लेनी चाहिए कि कश्मीर एक ऐसी समस्या है जिसे सुरक्षा बलों के सहारे नियंत्रित तो किया जा सकता है लेकिन वे हालात से निपटने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। सरकारें यह बात समझने की कोशिश क्यों नहीं करतीं कि अगर किसी आतंकी की हत्या या जनाजे में शिरकत करने के लिए लोग घरों से बाहर निकले और आजादी के नारे लगाते हुए विरोध में अपने ही सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंक  रहे हैं तो मान लेना चाहिए कि कहीं न कहीं समस्या तो है। इसे सिर्फ यह मानकर नहीं भुलाया जा सकता कि इसके पीछे पाकिस्तान की शह है। दरअसल, यह एक तरह का स्थानीय विद्रोह है जिसे बाहर से सिर्फ शह मिल रही है। इसकी फसल हमारी धरती पर ही पैदा हुई है। कहीं न कहीं चूक इस बात को समझने में हो रही है कि जो व्यवस्था कश्मीर को संंचालित करने के लिए बनाई गई है वह पूरी तरह ठीक है। ये विद्रोह साफ संकेत देता है कि कश्मीर में मुखर हो रही भारत विरोधी भावानाओं को रखने वाले कश्मीरी इस व्यवस्था को या तो बदलना चाहते हैं या इसमें सुधार चाहते हैं। सरकार जब इसे समझेगी, इस पर आगे बढेÞगी तभी इस समस्या का हल होगा। इसकी पहल सिर्फ एक मजबूत राजनीतिक तंत्र ही कर सकता है। इस पहल में अलगाववादियों को शामिल करना जरूरी है। इसके लिए पहले सरकार को कुछ संकेत देने होंगे। मसलन, जिन इलाकों में क्टटरपंथी गतिविधियां कम या अपेक्षाकृत शांति है वहां आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट (अफस्पा) की जरूरत खत्म कर देनी चाहिए। या ऐसे उपाय करने चाहिए कि अफस्पा को फिर से परिभाषित किया जाए।’

पूर्व रॉ प्रमुख कहते हैं, ‘सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाले किसी नौजवान को कडेÞ कानून या सरकारी नियमों में जकड़कर उसके भविष्य कोे नियंत्रित कर देंगे तो इसके चलते उसके मन में विद्रोह ही पैदा होगा। 2001 के बाद से कश्मीर में ऐसा ही हुआ है। पत्थर फेंकने वालों को दहशतगर्द बना दिया गया। ऐसे में पाकिस्तान तो मौके का फायदा उठाएगा ही। वह सीमा पार से अपने लोग भी भेजेगा, पैसा और हथियार भी भेजेगा ताकि हालात और बदतर हों क्योंकि यह पाकिस्तान का एजेंडा है। लेकिन पहले हमें अपनी नीति दुरुस्त करनी पडेÞगी ताकि हमारे अपने ही लोग हमारे खिलाफ खडे न हों।’

अनुच्छेद 370 में हो बदलाव

प्रो.भीम सिंह जम्मू-कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी के मुख्य संरक्षक तो हैं ही सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता भी हैं। जम्मू कश्मीर में किसी भी पार्टी की सरकार हो प्रो. स्ािंह उन नेताओं में हैं जो मानवाधिकार हनन को लेकर सभी सरकारोें को कठघरे में खड़ा करते रहे हैं। उनका कहना है, ‘आतंकी बुरहान की मौत के बाद जम्मू-कश्मीर में जो हालात बने हुए हैं वो आज के नहीं हैं। हकीकत यह है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ भारत सरकार ने हमेशा खिलवाड़ किया है। यहां के लोगों के साथ सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि उन्हें संविधान तो दे दिया गया मगर उसमें मानवाधिकार का कोई उल्लेख ही नहीं है। अनुच्छेद 370 के नाम पर जम्मू-कश्मीर के लोगों का शोषण 67 वर्षों से हो रहा है। इस शोषण के जिम्मेदार वे केंद्रीय नेता हैं जो दिल्ली में बैठकर जम्मू-कश्मीर के लोगों की आकांक्षाओं, मानवाधिकारों और भविष्य से खिलवाड़ करते हैं।’

उनके मुताबिक, ‘कश्मीर में जब कोई बुरहान या दूसरा नौजवान गोली का शिकार होता है तो उसे विदा करने के लिए लोग निकलते ही हैं। लेकिन अपने सुरक्षाकर्मियों को देखते ही वे हिंंसक क्यों हो जाते हैं। इस पर विचार करने की जरूरत है कि कश्मीर की वादी में लोग खुद को क्यों असुरक्षित महसूस कर रहे हैं जबकि सरकार भी अपनी है और नेता भी अपने हैं। अगर सरकार वाकई जम्मू-कश्मीर में हालात बदलना चाहती है तो कुछ जरूरी सुधार किए जाने चाहिए। सबसे पहले कश्मीर को भारत के साथ संवैधानिक रूप से जोड़ना होगा। सरकार को पहले यह साफ करना होगा कि जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ रिश्ता क्या है? मेरा मानना है कि अनुच्छेद 370 में जल्दी से जल्दी बदलाव हो। ऐसा सिर्फ दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही संभव है। अनुच्छेद 370 के बदलते ही जम्मू-कश्मीर के लोगों को अपने मानवीय अधिकार मिल जाएंगे। इससे दिल्ली की हुकूमत पर कश्मीर का भरोसा बढेÞगा। कश्मीर के लोग अपने मौलिक अधिकारों से वंंचित हैं। इसी वजह से सैकड़ों निर्दोष वर्षों से जेलों में सड़ रहे हैं। इसी उत्पीड़न और भेदभाव से कश्मीरी नौजवानों के मन में विद्रोह पनप रहा है। यही कारण है कि बुरहान जैसे आतंकवादियों को कश्मीरी नौजवान अपना हीरो, अपना आदर्श मानते हैं। बुरहान की मौत उनके भीतर की आग को और सुलगा देती है।’

भीम सिंह कहते हैं, ‘पाकिस्तान कश्मीर का भला कतई नहीं कर सकता। न ही ऐसा करने की उसकी नीयत है। लेकिन जब कश्मीरी लोगों के उत्पीड़न को और विशेष अधिकार के नाम पर सुरक्षा बलों द्वारा किए जा रहे अत्याचार की घटनाओं को सरहद पार से हवा मिलती है तो कश्मीरियों को पाकिस्तान में अपने हमदर्द की तस्वीर दिखाई देती है। आम कश्मीरियों की इन्हीं भावनाओं को भड़काने के लिए सरहद पार से इमदाद और हथियार दोनों ही मुहैया कराए जाते हैं। पाकिस्तानी हुकूमत को इस बात का बखूबी इल्म है कि कश्मीर के नौजवानों को भारत के खिलाफ किस तरह उकसाना है? उन तमाम मुद्दे को हवा देने का पाकिस्तान को बखूबी इल्म है जिससे कश्मीरी आवाम नाराज है। बस केंद्र में बैठी सरकारें यही नहीं समझ पाती कि इसका जवाब कैसे देना है। बंदूक से लेकर बातचीत तक की सारी कवायदें इसीलिए हर बार नाकाम रहती हैं।  जम्मू-कश्मीर की ताजा हुकूमत कश्मीर के हालात को काबू करने में पूरी तरह विफल रही है। मौजूदा सरकार न तो घाटी में हिंंसा रोक सकी न लोगोें का दिल जीत सकी। लिहाजा राज्य में राज्यपाल का शासन लागू करके संकट से गुजर रहे कश्मीर में संवैधानिक उपायों से हालात सुधारे जाएं।’ बकौल भीम सिंह उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में कश्मीर में राष्ट्रपति शासल लगाने की अर्जी दी है जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया है।

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रोजगार व विकास को मिले बढ़ावा

बीएल बोहरा 1997 से लंबे समय तक कश्मीर में बीएसएफ के आईजी रहे हैं। कश्मीर को करीब से जानते समझते हैं। बोहरा कहते हैं, ‘कश्मीर में जो भी हिसंक खुुराफातें होती हैं उसके पीछे निश्चित तौर पर पाकिस्तान की साजिश होती है। पाकिस्तान कभी चाहता ही नहीं कि कश्मीर में शांति हो, वहां का युवा तरक्की करे। इसलिए कश्मीर में पाकिस्तान के पाले हुए कुछ अराजक संगठन व उनके लोग मौका देखते ही माहौल बिगाड़ने की कोशिश करते हैं। पिछले साल जब कश्मीर में बाढ़ आई थी तब भी ऐसे ही लोगों ने वहां राहत के काम में बाधा डालने की कोशिश की थी। मतलब पाकिस्तान नहीं चाहता कि भारत सरकार कश्मीर में कोई विकास का काम कर सके या शांति बहाल कर सके । इससे पाकिस्तान के दो मकसद हल होते हैं। एक तो वह कश्मीर के असंतुष्ट अवाम को यह कहकर भड़काने में सफल हो जाता है कि भारत सरकार उनके लिए कुछ करना ही नहीं चाहती इसलिए आप बंदूक के बल पर अपना हक लो। दूसरा इससे पाकिस्तान की एजेंसियों को कश्मीरी नौजवानों के मन में भारत के प्रति जहर भरकर पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ बंदूक थमाने का मौका आसानी से मिल जाता है।’

उनके मुताबिक ‘कश्मीर में अस्थायी तौर पर पहले भी हिंसा के दौर आते रहे हैं। यह पाकिस्तान की रणनीति है कि वह बहाने ढूंढकर कश्मीर में बैठे अपने खुराफाती संगठनों के सहारे हिंसक कार्रवाई करवाता रहे। इस बार बुरहान वानी का बहाना मिल गया। हो सकता है कि सुरक्षा एजेंसियों से इस स्थिति को हैंडल करने में कोई चूक हुई हो लेकिन कारण जो भी हो सरकार इसकी जांच कराकर जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कदम उठाए। दरअसल, पिछले कुछ महीनों में सुरक्षा बलों ने काफी सख्त कदम उठाए और बड़ी सख्या में आतंकवादियों का खात्मा भी किया है। बुराहान वानी भी उनमें से एक था। स्थानीय लोगों में बुरहान के प्रति भावुक लगाव का कश्मीर में बैठे पाकिस्तानी तंत्र ने फायदा उठाया और लोगों को उकसाकर हिंसा करवा दी। पाकिस्तान के इशारे पर काम करने वाले ऐसा करते रहे हैं और शायद भविष्य में भी करेंगे।’

बोहरा कहते हैं, ‘भले ही कश्मीर धीरे-धीरे शांत हो रहा हो मगर मेरा मानना है कि कश्मीर में शांति बहाली का यह स्थायी हल नहीं है। वहां शांति का एक ही मंत्र है कि वहां विकास हो और लोगों को रोजगार मिल सके। अनावश्यक रूप से सुरक्षा बलों के जो असीमिमत अधिकार हैं उन्हें नियंत्रित किया जाए।’ उनका यह भी मानना है कि कश्मीर में विकास और अमन का रास्ता वहां चुनी गई सरकार कभी तैयार नहीं कर पाएगी क्योंकि उसके पीछे वोटों की सोच हावी होती है। बल्कि कश्मीर में कम से कम पांच साल के राष्ट्रपति शासन से इसका रास्ता ढूंढा जा सकता है। राष्ट्रपति शासन में बिजली, पानी, सड़क, चिकित्सा, शिक्षा और सुरक्षा जैसे सभी क्षेत्रों के लिए ऐसे पुराने अनुभवी और सेवानिवृत्त लोगों को प्रशासनिक सेवा में लिया जाए जो अवाम को ठीक से समझा सकें कि विकास से ही कश्मीर में शांति बहाली और उनका विकास संभव है। मेरा मानना है कि अगर हमने अपने कश्मीरी युवा को रोजगार तथा विकास की राह दिखा दी तो अलगाववाद और आतंक से उनका नाता अपने आप ही टूट जाएगा। कश्मीर में शांति स्थापित करने का यही एक रास्ता है।’

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सैन्य तंत्र पर घटे निर्भरता

विभूति नारायण राय 1992 से 2001 के बीच केंद्रीय प्रतियुक्ति पर लंबे वक्त तक कश्मीर में अर्द्ध सैनिक बल में तैनात रहे। पूर्व आईपीएस अधिकारी राय कहते हैं, ‘2010 में भी कश्मीर में ऐसा ही दौर आया था। उस वक्त करीब सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे। इसे आप इस तरह देख सकते हैं कि कश्मीर में जब भी शांति का एक लंबा दौर आता है तो उसके बाद अचानक एक खास मुद्दे को लेकर हिंसा भड़कती है और लंबे समय तक के लिए माहौल अशांत हो जाता है। जब भी कोई विवाद खड़ा होता है तो उसका कारण होता है किसी लोकप्रिय कश्मीरी नेता की गिरफ्तारी या स्थानीय कश्मीरी का पुलिस उत्पीड़न या कोई फर्जी एनकाउंटर। यानी कहीं न कहीं ऐसी कोेई चूक है जिसका संबंध हमारे सुरक्षा और सैन्य तंत्र से है। आप कई दशक से सेना का और पुलिस तंत्र का इस्तेमाल कर वहां शांति बहाली करने की कोशिश में लगे हैं। क्यों ऐसा नहीं किया जाता कि वहां प्रशासनिक नेतृत्व को ज्यादा हावी किया जाए, उसे विकास के काम को आगे बढ़ाने के लिए कहा जाए। मेरा मानना है कि ऐसा करके आप धीरे-धीरे अपने सैन्य तंत्र पर निर्भरता कम कर सकते हैं।’

राय कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि जब तक कश्मीर के नौजवान को यह समझ में नहीं आएगा कि दिल्ली की सरकार हमारी दोस्त है, हमारी अपनी है, तब तक वहां न तो स्थायी शांति आएगी न विकास होगा। ऐसा तभी हो सकता है कि जब आप वहां से अफस्पा हटाएं। सुरक्षा बलों के विशेष अधिकार खत्म करें। दिक्कत यह है कि कश्मीर में दिल्ली ने हमेशा कठपुतली सरकारें बनाने का काम किया है। इस कारण जनता सरकार से दूर होती गई। 1989 के बाद तो हालात ऐसे बने कि एक तरह से सशस्त्र विद्रोह का दौर शुरू हो गया। बुरहान वानी के मारे जाने के बाद जन उबाल का जो नया दौर शुरू हुआ है उससे संवेदनशील तरीके से निपटने की जरूरत है। किसी आतंकवादी के मरने पर उसके समर्थक कोशिश करते हैं कि जनाजे में ऐसी स्थिति पैदा की जाए कि भीड़ पर सुरक्षा बलों को गोलियां चलानी पड़े और फिर उसमें मृत लोगों के जनाजों में यही कहानी दोहराई जाए। हर जनाजे से घाटी में भारत का समर्थन घटता जाता है। सुरक्षा बलों को यह याद रखना होगा कि दिल्ली की नीतियों के विरोध में पाकिस्तान के सर्मथन में नारे लगाने का मकसद ये कतई नहीं है कि सब पाकिस्तानी सर्मथक हैं। ये प्रतीक मात्र हैं।’