मनोहर नायक।

गर्मियां आते-आते हमारा खान-पान बदलने लगता है। गर्मी बढ़ने के साथ ही राहत की तरह आते हैं तरबूज, खरबूज और चिकने, रसीले टपकदार आम। वैसे तो खाने-पीने की हर चीज नियामत है लेकिन फलों का जवाब नहीं। फल खुशी से भर देते हैं। अपने रंग-रूप में ये स्वयं प्रसन्नवदन हैं। इनमें घुली सुगंध मन को खिला देती है। फिर आम का क्या कहना! गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे फलों का राजा कहा था। छोड़िये उस गौरांग अंग्रेज को जिसे तमीज ही नहीं थी आम खाने की। सो उस निखट्टू के होंठों के आसपास फोड़े फुंसियां हो गई होंगी। इसलिए उसने इसे जहरीला फल कह दिया। मगर इस देश के लोगों का तो आम से अटूट नाता है। हम इसे पसंद ही नहीं इससे प्यार करते हैं। इसके लिए प्यार अगाध है जिस पर उम्र का, स्त्री-पुरुष का, छोटे-बड़े का, अमीर-गरीब का कोई बंधन नहीं है। सबको इसका इंतजार रहता है।

आम से प्रेम शायद उसे खाने में, उसके खाने के तरीके में सबसे ज्यादा नुमायां होता है। खाने के असली ढंग में ही खाने की चीज का असल मजा है। असली आम प्रेमी तो वही है जिसके हाथ खाते समय छप-छप, चिप-चिप हो रहे हों और होठों के आसपास का इलाका भी रससिक्त हो रहा हो। आम खाते हुए लोगों के हाव-भाव और भंगिमाओं से ऐसा लगता है कि जैसे उसने पहले इसे कभी खाया ही नहीं या फिर आगे मिलेगा नहीं। यह छवि एक निर्द्वंद्व ललत्ते या चटोरे की बनती है। छुटपन में तो होता यह था कि रस मुंह से बाहर है तो जीभ फेर कर सुड़क लिया और हाथ से बांह की ओर बहने लगा तो चाट लिया। शायद इसी कारण एक और अंग्रेज ने इस फल को बाथरूम में खाने लायक बताया था। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने एक किस्सा सुनाया था। वे सातवीं-आठवीं में पढ़ते थे। पिता ने उन्हें किसी काम से किसी के घर भेजा। जिनके घर भेजा था वे बड़े आदमी थे। उन्होंने उन्हें बैठाया और बिना हाथ छपाए करीने से आम काटा, छोटे-छोटे टुकड़े प्लेट में रखे और चम्मच से खाने को दिए। चम्मच से आम! इस दृश्य को देख अनुपम मिश्र इतना घबरा गए कि उन्होंने कहा, ‘नहीं, नहीं, मैं तो आम खाता ही नहीं। मुझे नापसंद हैं।’

एक दिन घर में मैंने यूं ही कहा कि फैज अहमद फैज कहते थे कि फल तो सिर्फ आम और अंगूर हैं, बाकी तो सब्जियां हैं। यह सुनते ही बीवी-बच्चों ने यह कहने-सुनाने वालों को आड़े हाथ लिया। कहा, फैज साहब की वो जानें। आम-अंगूर लाजवाब हैं पर क्या अमरूद सब्जी है? चीकू, सेब, अनार, संतरा, केला, चेरी सब्जियां हैं? लीची क्या सब्जी है? सब्जी तो बेर भी नहीं है। मैं अवाक सोचता रहा। मारक्वेज गार्सिया से लेकर इब्बार रब्बी तक अमरूद प्रेमी हैं। रब्बी ने अमरूद पर कविता लिखी है ‘अमरूद अमरूद से कुछ कहता है।’ सुदीप बनर्जी ने अमरूद के रूपक से ‘सारे अमरूद खा लिए हैं’ कविता में लूटतंत्र और सब हड़प-गड़प कर जाने वालों पर कैसा तंज कसा है। आम तो खैर राजा है लेकिन और फलों का जवाब नहीं। एक दिन मंगलेश डबराल कह रहे थे, यार वीरेन (घिल्डियाल) ने आम पर कविता नहीं लिखी। वह बेजोड़ लिखता। फल उनकी कविता में खूब है। ‘इलाहाबाद : 1970’ में लिखते हैं, ‘कवि का सौभाग्य है पढ़ लिया जाना, जैसे खा लिया जाना अमरूद का सौभाग्य है।’ पपीता पर उनकी कविता है, ‘उसकी सुडौलता एक धोखा है, घाव जैसी है उसकी कोमलता, असली होते हुए भी नकली लगता है उसका रंग, पेड़ पर रहता है तो भी मुंह लटकाए, बिकता है तो सबसे अलग, खरीदा जाता है बगैर उल्लास के।’ इमली के बारे में लिखते हैं, ‘यह इमली भी अजीब है, फलती है रातोंरात चुप्पा, पत्ते हैं तो समझ लो कि जो पीले-हरे हैं, और दांतों के नीचे बिलकुल मुलायम, वे ही नए हैं।’

सहारनपुर के अपने बचपन और परिवेश को बेहद लगाव के साथ याद करते हुए उन्हें फल याद आते हैं, ‘जामुन था सबसे उम्दा फल या अधपका अमरूद, नाना वैसे शानदार थे और मामा तो बिलकुल लाजवाब, जैसे हो आम सफेदा, तेजस्वी भी मीठा गद्दर रसेदार भी।’ इलाहाबाद में इन मामा घिल्डियालजी से मिलने का कई बार सौभाग्य मिला। वैसे देखें तो अमरूद का भी काफी गुणगान हुआ है। यह है भी एक शानदार-जानदार फल। आलोक धन्वा की तरह अगर कहें तो- जहां भी अमरूद या और कोई फल से प्रेम वहां तक आम जरूर आए होंगे। कथाकार ज्ञानरंजन तो अमरूदों के शहर इलाहाबाद के हैं। भले ही सीताफल वाले जबलपुर में बस गए हों मगर अमरूद के घनघोर आशिक! ज्ञानजी के पास आम के भी कई किस्से हैं। ‘हमारे बच्चों का भविष्य जनतांत्रिक घोड़ों के हाथों में कैद है’ लेख में बचपन की एक याद कुछ इस तरह बयां करते हैं, ‘रात को जैसे सुबह की किसी संभावित खुशी में कई बार नींद टूटी हो और नींद के एक लंबे टुकड़े ने चौंककर देर सुबह को उठाया हो। उस समय धूप बेशुमार थी। चिड़ियों ने तिनके लाना शुरू कर दिया था। मैं भागा सीधा आम के बगीचे की तरफ। यहां शाम को पत्तों के झुरमुट में एक चुरा आम देखा था। कहीं वह लुट न गया हो, इस आशंका से मैंने उस दूरी को तीन डग में नापा। चैन मिला जब देखा कि आम महफूज है। इसके बाद अपना जांघिया कसा और घर लौटे।’ पिता कहानी में उन्होंने लिखा है, ‘लद्द-लद्द, बाहर आम के दो सीकरों के लगभग एक साथ गिरने की आवाज आई। वह जानता है, पिता आवाज से स्थान साधने की कोशिश करेंगे। टटोलते-टटोलते अंधेरे में आम खोजेंगे और एक गमले में इकट्ठा करते जाएंगे। शायद ही रात में एक-दो आम उनसे चूक जाते हैं, ढूंढने पर नहीं मिलते, जिनको सुबह पा जाने के संबंध में उन्हें रात भर संदेह होता रहेगा।’

आम पर अनगिनत रचनाएं हैं। लोकगीत हैं। किस्से हैं। आम ऐसे ही अनमोल नहीं है। यह लंबे समय तक हमारे आसपास विविध रूपों-रंगों में बना रहता है। फागुन से आधे भादो तक पूरे रुआब के साथ। ‘फूटे हैं आमों में बौर, और वन-वन टूटे हैं, होली मची ठौर-ठौर, सभी बंधन टूटे हैं’ या ‘दिन आए फागुन के, आमों के बागों में झांझों की झनझन में, ढोलक की बोली में बंशी की मीड़ों में।’ आने वाले आमोत्सव का आरंभ ही फागुनी उमंग से होता है। आमों में बौर आ जाती है और फिर आमन कूके कोयलिया… जैसे रस और मिठास के आगे होने वाले संचार की पंचम स्वर में कोयल सूचना देने लगती है। आम के पत्तों से लेकर बौर तक, कच्ची अमियों, गुठलियों तक और उसके पेड़ की लकड़ी तक के अनगिनत उपयोग हैं। उसके पल्लवों से वंदनवार बनाते हैं। कलश में उन्हें रखते हैं। कच्चे आम से ही चटनी, अचार, अमचुर, जेली, कलौंजी, पना बनता है। अमरस, अमावट और तरह-तरह के पेय इससे बनते हैं। आम के महोत्सव आयोजित किए जाते हैं। नेता अपने इलाके के आमों की पार्टियां देते हैं। आम भेंट में देकर दोस्ती मजबूत की जाती है।

आम के छिलके काम आते हैं और अकाल जैसे समय में इसकी गुठली का आटा काम आता है। बैसवाड़े (उन्नाव) में कहा जाता है, ‘चार मास अमिया खाई, चार मास अंगुली (गुठली) खाई, चार मास रहित ससुरारा के पसारा में, बात में न बट्टा दुपट्टा में न दाग राखी, करित न ठट्ठा हम रहित व्यासवाड़ा में।’ यानी चार मास आम पर और चार गुठली पर रह लेते हैं। चार ससुराल में काटते हैं। हम बैसवाड़े के लोग हैं, बात के धनी हैं, दुपट्टे में दाग नहीं लगने देते। कवि सूर्यकांत निराला भी बैसवाड़े के थे। कहीं पढ़ा था कि एक बार उनके गांव के लोग इलाहाबाद उनसे मिलने गए और उन्हें वहां के आम दिए। निराला ने वो आम खाए और फिर एक पेड़ का नाम लेकर कहा कि उसके आम नहीं लाए।

विद्यानिवास मिश्र की पुस्तक ‘शब्द सम्पदा’ के लेख ‘आम में बौर आ गए’ में आम का अद्भुत वर्णन है। बौर आने से उसके फूलने-फलने तक, उसके विभिन्न उपयोगों से लेकर खाने की विधि तक और उसके पेड़ का, उस पर चढ़ने के तौर तरीके पर उन्होंने दिलचस्प ढंग से लिखा है। इस पूरी प्रक्रिया के हर चरण का एक अनोखा नाम है। ‘इस साल फिर आम गहगहा गए…और नौरसने लगे। आम वसंत का मीत जो है। जिन पेड़ों के फलने की इस साल बारी नहीं है उनमें नई कोपल निकलने लगीं। पुराने पीले पर्ण तुड़-तुड़ कर सारी अमियारी में सड़ने लगे। बौरों पर पच्चीस आफतें हैं। पुरुवा ने झकझोरा तो ये लसिया कर गिर जाएंगे। आंधी के साथ ओले गिरे, तब तो सत्यानाश ही हो जाएगा। बचे तो सरसई (सरसों के बराबर फल) के गुच्छों से पुलुई (सिरा) तक टहनी-टहनी से लद जाएगा और डालें भार से लचने लगेंगी। सरसई सब नहीं पकतीं, कुछ मर जाती हैं, कुछ कुम्हला जाती हैं। तब टिकोरे लगते हैं, गौध के गौध और तब गांव के लड़कों की ढेलेबाजी शुरू हो जाती है। टिकोरों की कच्ची गंध कच्ची उम्र की लड़कियों को बहुत भाती है और चोरी-चोरी उन्हें कुतरने में बड़ा मजा आता है। टिकोरे बड़े हुए तो अमिया बने और घरनियों का अचार का धंधा जागा। सतुआनि (मेष संक्रांति) के पहले आम खाना वर्जित है। मेष संक्रांति से आम की साइत होती है। आम की बारियों की बड़ी रखवाली करनी पड़ती है। आम के फल वैशाख में गुरम्हाने (गुठली भरने) लगते हैं। जेठ में रोहित नक्षत्र चढ़ते-चढ़ते रोहिनया आम तैयार हो जाते हैं और ढेंसर (अधपके) तो दूसरे भी होने लगते हैं, पर अगले तो एकदम भदरा जाते हैं।’

आम की महिमा न्यारी है। कई देशों में आम फलते हैं पर भारत में यह महज फल नहीं है बल्कि इससे भी कहीं ज्यादा है। यह राष्ट्रीय फल है हमारा। हमारे देश की विविधता जैसी इसकी विविधता है। इसके रूप-रंग-स्वाद पर इसके अनेको नाम हैं। शहर का आदमी तो बस लंगड़ा, दशहरी, चौसा, सफेदा, अलफांसो, तोतापरी, मालदा, हापुस से ही परिचित है। लंगड़ा कहीं बंधु हापुस है। चौसा रईसों के लिए समरबहिश्त है। फजली ही भदौहा है। रंग के हिसाब से सब्जा है, सिंदूरी है, जर्दा है, करियका है, सफेदा, सोनपंखी, र्इंगुरी, गुलाबी, कस्तूरी है तो एक ओर झुका हुआ लंगड़ा है, तोते की चोंच वाला सुग्गाठोर है, गोल गोलवा है। यही नहीं छिलके के अंतर से भी नामभेद है। कागज की तरह पतले छिलके वाला कागजी या कगजइवा, कड़े छिलके वाला बादामी। घी के स्वाद वाला घियहवा, चीनी जैसी मिठास का चीनिया, बेल की तरह बेलवा, महुआ के स्वाद वाला महुअवा। नई कलम वाले नए नाम भी अनेक हैं। कहते हैं औरंगजेब ने आमों के प्रकारों को कई संस्कृत के नाम दिए जैसे कृष्णाभेग, विष्णुभेग, आम्रपाली, मल्लिका, रसिकरंजन, अमृतबाव, बेनशीन, शाहभेग आदि।

अब वह अभागा ही होगा जिसने आम न खाया हो। मिर्जा गालिब का एक किस्सा मशहूर है। हकीम रजीउद्दीन खां उनके मित्र थे जिन्हें आम पसंद नहीं थे। एक दिन वे मिर्जा के यहां बैठे थे। एक गधे वाला गधे के साथ वहां से गुजरा। आम के छिलके पड़े हुए थे। गधे ने उसे सूंघा और आगे बढ़ गया। खां साहब ने कहा, देखा मिर्जा गधा भी आम नहीं खाता। मिर्जा ने हंसकर कहा, हां, गधे आम नहीं खाते। गालिब आमों के बेहद शौकीन थे। आम की तारीफ में उन्होंने लिखा, ‘बारे आमों का कुछ बयां हो जाए, खामा नख्ले रतबफिशां हो जाए।’ उनके दोस्त दूर-दूर से उन्हें उम्दा आम भेजते थे। आफताब हुसैन हाली ने यादगार-ए-गालिब में लिखा है कि उनका एक फारसी खत है जो उन्होंने शायद कलकत्ता प्रवास के दौरान हुगली बंदरगाह के संरक्षक को लिखा था। उन्होंने लिखा, ‘कुछ दिनों से खाना-पीना छोड़ रखा है। कमजोर हो गया हूं। मुझे ऐसी चीज की तलाश है जो दस्तरखान भी सजा दे और मजेदार भी हो। अक्लमंदों का कहना है कि ये दोनों खूबियां आम में पाई जाती हैं और कलकत्ता वालों का कहना है कि आम तो हुगली के बंदरगाह में ही पैदा होता है। हुगली का आम तो ऐसा है जैसे बाग से फूल टूट कर आए। मेरी ख्वाहिश और आपका उदार हृदय! जी यह चाहता है कि मौसम खत्म होते-होते आपके दिल में दो-तीन बार मेरा ख्याल आए और लालच यह कहती है कि अब इतना भी तंग करना अच्छा नहीं।’

एक रोज बहादुर शाह जफर आमों के मौसम में मुसाहिबों के साथ, जिनमें मिर्जा गालिब भी थे, महताब बाग में टहल रहे थे। पेड़ रंग-बिरंगे आमों से लदे हुए थे। ये आम बादशाह के अलावा चुनिंदा लोगों के यहां ही जाते थे। गालिब बीच-बीच में आमों के पास रुकते, गौर से देखते फिर चल देते। बादशाह ने पूछा मिर्जा क्या बात है तो उन्होंने कहा कि बुजुर्ग कहते हैं दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा रहता है। मैं देख रहा हूं कि कहीं मेरा भी नाम लिखा है कि नहीं। बादशाह ने उसी रोज उम्दा आमों की एक बंगही मिर्जा के पास भिजवाई। हाली ने एक और घटना का जिक्र किया है। एक सभा में मौलाना फजल हक, गालिब और कुछ दोस्त जमा थे। हर व्यक्ति आम के बारे में अपनी राय दे रहा था और बता रहा था कि उसमें क्या खूबियां होनी चाहिए। गालिब से भी कुछ बोलने को कहा गया। उन्होंने कहा कि आम में बस दो बातें होनी चाहिए- एक तो मीठे हों और दूसरे बहुत हों।

मीठे हों और बहुत हों, इस पर मिस्टर बाजवा की याद आई। नरसिंह राव जब विदेश मंत्री थे तो पाकिस्तान दौरे पर साथ में बतौर उपहार ढेर सारे आम ले गए थे। वहां से स्टेट्समैन के संवाददाता ने  बाजवा साहब का किस्सा भेजा जो अखबार ने बरसों पहले छापा था। बाजवा साहब की कमजोरी आम थे। आम के आगे उनका वश नहीं चलता था। अफवाह यह थी कि उनकी पत्नी भी आम के सामने उपेक्षित थीं। आमों का शानदार बगीचा उनके पास था। जिले के सबसे अच्छे आम वहां होते थे। अगर उनके इस्तेमाल से बच जाते तो बाजार में उनके आमों की बड़ी मांग रहती। एक बार एक दलाल से उनकी बात हुई। उन्होंने बेचने के लिए उसे आम देने का वादा किया। दूसरे दिन सुबह जब वह दलाल उनके घर पहुंचा तो उसने आमों से लदी एक गाड़ी देखी और पास ही आमों से भरी टोकरी। वह गाड़ी लेकर चला गया। उस दिन बाजवा साहब परेशान उस दलाल को ढूंढते फिरे। दरअसल, वह आम की गाड़ी उनके इस्तेमाल के लिए थी और टोकरी दलाल के लिए।

एक दफा रात में एक फकीर उनके घर आया और शरण मांगी। बाजवा साहब ने खुशी-खुशी एक कमरा उसे दे दिया। फिर उसने कुछ खाने को मांगा। रसोई में कुछ दिखा नहीं। सब सो रहे थे। उन्होंने आम निकाले और कहा- मैं आपको स्वादिष्ट आम खिलाता हूं। उन्होंने एक छांटा उसे काटा, चखा और पूरा खा गए। फकीर देखता रहा। फिर कहा- दूसरा देखता हूं। उसका फिर वही हश्र। इस तरह एक के बाद एक वे चुनते, चखते, पूरा खा जाते। टोकरा खलास हो गया। मन मार के फकीर सो गया। एक बार तो उन्होंने जान मोहम्मद नाम के दोस्त को उपहार में बेहतरीन समरबहिश्त भेजे। दूसरे दिन उन्हें जब खुद खाने में लंगड़ा मिला तो उदास होकर समरबिहश्त के बारे में सोचते रहे और फिर जान मोहम्मद के यहां पहुंच गए। वे थे नहीं तो इंतजार करते बैठ गए। नौकर ने कहा आम खिलाऊं तो बोले, हां। वह लाया और खा गए। इसके बाद तो नौकर समरबहिश्त लाता रहा और बाजवा साहब खाते रहे। फिर तृप्त होकर नौकर से समरबहिश्त के लिए दोस्त को धन्यवाद देने की बात कहकर चले गए।

आमों की कथा अनंत है। उसका यश अथाह और वैभव अगाध है। ‘जो आम में है वो लब ए शीरीं में नहीं रस, रेशों में है जो शेख की दाढ़ी से मुकद्दस, आते हैं नजर आम तो जाते हैं बदन कस, लंगड़े भी चले जाते हैं खाने को बनारस, होठों में हसीनों के जो अमरस का मजा है, ये फल किसी आशिक की मोहब्बत का सिला है, आमद से दसहरी की है मंडी में दस्हेरा, हर आम नजर आता है माशूक का चेहरा, एक रंग में हल्का है तो एक रंग में गहरा, कह डाला कसीदे के एवज आम का सेहरा, खालिक को है मकसूद के मख्लूक मजा ले, वो चीज बना दी है के बुड्ढा भी चबा ले, फल कोई जमाने में नहीं आम से बेहतर, करता है सना आम की गालिब सा सुखनवर, इकबाल का एक शेर कसीदे के बराबर, छिलकों पे भिनक लेते हैं सागर से फटीचर, वो लोग जो आमों का मजा पाए हुए हैं, बौर आने से पहले ही वो बौराए हुए हैं, नफरत है जिसे आम से वो शख्स है बीमार, लेते है शकर आम से अक्सर लब ओ रुखसार, आमों की बनावट में है मुजमर तेरा दीदार, बाजू वो दसहरी से वो केरी से लब ए यार, हैं जाम ओ सुबू खुम कहां आंखों से मुशाबे, आंखें तो हैं बस आम की फांकों से मुशाबे, क्या बात है आमों की हों देसी या विदेसी, सुर्खे हों सरौली हों कि तुख्मी हों कि कलमी, चौसे हों सफैदे हों कि खजरी हों कि फजली, एक तरफा कयामत है मगर आम दसहरी! फिरदौस में गंदुम के एवज आम जो खाते, आदम कभी जन्नत से निकाले नहीं जाते!’