प्रदीप सिंह(प्रधान संपादक/ओपिनियन पोस्ट)

पंजाब के बारे में सोचिए तो जीवन में जो कुछ अच्छा हो सकता है सब आंखों के सामने घूम जाता है। पंजाब के जिक्र के बिना आधी से ज्यादा हिंदी फिल्में बन ही न पातीं। देश का यह सीमावर्ती राज्य अपने लोगों के लिए गर्व और देश के दूसरे राज्यों के लोगों के लिए ईर्ष्या का सबब हुआ करता था। पर अब नहीं। पिछले दो ढाई दशकों में सब बदल गया है। देश का सबसे स्वस्थ राज्य बीमार है और उसके बाशिंदे दिन पर दिन बदहाल हो रहे हैं। पूरे देश का पेट भरने वाला पंजाब आज नशे से पेट भर रहा है और उसका किसान कर्ज से। पंजाब को तीमारदारी, सहानुभूति और न जाने किस किस तरह की मदद की जरूरत है। कभी हार न मानने वाले पंजाब का मिजाज बदल रहा है। पंजाब के लोग जीवंतता तो छोड़िए जीवन से ही दूर जा रहे हैं। यों तो देश के दूसरे हिस्सों में भी किसानों की हालत खराब है। मौसम, महाजन और राजनीति की संवेदनहीनता से आहत बहुत से किसानों को जीवन का अंत ही समस्या का अंत नजर आता है। पंजाब की जरखेज जमीनों में आजकल बीमार फसल होती है। जो न तो किसान का पेट भर पाती है और न ही साहूकार का। लोग मर रहे हैं लेकिन नशे का व्यापार फल फूल रहा है। क्योंकि इसके व्यापार में वही लोग शामिल हैं जिनपर इसको रोकने की जिम्मेदारी है। पंजाब में हालत यह है कि नशा करने वाले डरते हैं, नशे का व्यापार करने वाले नहीं। जब भी इस व्यापार के खिलाफ शोर मचता है तो नशे के शिकार लोगों को ही अपराधी के रूप में पेश कर दिया जाता है। राज्य के मर्द आत्महत्या कर रहे हैं और महिलाएं और बच्चे विलाप। उनके विलाप की आवाज सत्ता और राजनीति के गलियारों में नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह दब कर रह जाती है।
पिछले साल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने रेडियो कार्यक्रम मन की बात में पंजाब में नशे की समस्या का जिक्र किया तो सबको उम्मीद बंधी कि अब कुछ होगा। लेकिन उसके बाद प्रधानमंत्री ने चुप्पी साध ली। शायद उसका कारण यह है कि पंजाब में नशे के व्यापार के खिलाफ अभियान चलाने के लिए सबसे पहले शिरोमणि अकाली दल पर निशाना साधना होगा। पंजाब के लोगों की इतना बड़ी समस्या पर राजनीतिक भारी पड़ गई। पिछले करीब नौ साल से ज्यादा समय से पंजाब में लगातार सत्तारूढ अकाली दल की नजर में यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। पठानकोट हमले में नशे के व्यापारियों की संलिप्तता के बावजूद राज्य सरकार के लिए नशा समस्या नहीं है, उससे होने वाली बीमारियां समस्या नहीं हैं, किसानों की आत्महत्या समस्या नहीं है, जमीन और पानी का विषाक्त होना समस्या नहीं है। सवाल है कि फिर सरकार किसे समस्या मानती है। दरअसल सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या सत्ता में वापसी की है। सत्ताएं अक्सर समस्या का हल खोजने की बजाय उसे दबाने-छिपाने में यकीन करती हैं। पंजाब में अकाली दल और भाजपा की सरकार यही कर रही है। समस्या को स्वीकार ही मत करो तो उसके समाधान का रास्ता खोजने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इस मसले पर सरकार मूदहुं आंख कतहुं कछु नाहीं के सिद्धांत पर यकीन करती है। सरकार बताती है कि उसने क्या किया। वह यह नहीं बताती कि उसने क्या नहीं किया। इसलिए समस्या वही है जिसे सरकार स्वीकार करे। अब लोगों के कहने पर सरकार चलने लगे तो हो चुका काम।
सत्तारूढ़ दल नाकारा निकले तो पांच साल बाद उसे हटाने का अधिकार मतदाता के पास है। लेकिन वह लाए किसे। जैसे सरकार सिर्फ यह बताती है कि उसने क्या किया वैसे ही विपक्षी दल यह बताते हैं कि सरकार ने क्या नहीं किया। दोनों आधी बातें छिपा लेते हैं। कुछ महीने बाद पंजाब में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसलिए राजनीतिक दलों को आम लोगों की बहुत चिंता हो रही है। अभी तक पंजाब में दो दलीय व्यवस्था थी। अकाली-भाजपा हटी तो कांग्रेस और कांग्रेस हटी तो अकाली-भाजपा। राज्य की राजनीति में अब एक नया खिलाड़ी आ गया है। आम आदमी पार्टी दिल्ली से पंजाब पहुंचने की तैयारी कर रही है। पुराने दोनों दलों से ऊबे लोग आम आदमी पार्टी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं। लोंगों को लग रहा है एक बार इन्हें आजमाने में कोई हर्ज नहीं है। वैसे भी हम भारतीयों को हर नई चीज आजमाने की आदत सी है। दिल्ली वालों ने यही किया। दिल्ली में आम आदमी पार्टी को वोट देने वालों में से कइयों को अब शीला दीक्षित याद आने लगी हैं। पंजाब में इस समय आम आदमी पार्टी सबसे ज्यादा चर्चा में है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की नजर इस समय दिल्ली से ज्यादा पंजाब पर है। उधर पंजाब के मतदाताओं की नजर दिल्ली पर है। वे जानना चाहते हैं कि केजरीवाल की पार्टी ने दिल्ली में क्या किया है। केजरीवाल और उनके साथी कह रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी उनको काम नहीं करने दे रहे। पंजाब वाले पूछ सकते हैं, हालांकि अभी पूछा नहीं है कि पंजाब में सरकार बन गई तो नरेन्द्र मोदी वहां क्यों काम करने देंगे। पंजाब में चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे राजनीतिक दल चाहते हैं कि मतदाता अपनी समस्या भूलकर उनकी समस्या पर ध्यान दें। उन्हें यकीन है कि इसी से जनतंत्र मजबूत होगा।