आदिवासी नेता सोनी सोरी का कहना है कि जब तक आदिवासियों पर अत्याचार होंगे तब तक नक्सल समस्या घटने की जगह बढ़ेगी ही। उनसे ओपिनियन पोस्ट की बातचीत के प्रमुख अंश :

आदिवासियों के लिए आपकी सबसे अहम मांग क्या है?
माओवादी के पास भी बंदूक है और जवान के पास भी बंदूक है। मेरे आदिवासी के पास क्या है? पीड़ित तो मेरा आदिवासी है। मैं चाहती हूं कि जब आदिवासियों के विकास की बात हो, जब नक्सल समस्या की बात हो तो आदिवासियों से बातचीत की जाए। आदिवासियों के जमीनी नेताओं को बातचीत का हिस्सा बनाया जाए, ताकि वे अपने समुदाय की बात रख सकें। अगर सरकार हमें तीन दिन का समय दे तो हम अपने आदिवासी भाइयों और बहनों को पुकारेंगे कि वे जंगल से बाहर निकलें और अपनी बात कहें।

नक्सली मसले को कैसे सुलझा सकते हैं?
नक्सली मसले को सुलझाना है तो सबसे पहले उस आदिवासी को सुनना होगा जिसे न तो माओवादी बोलने देते हैं और न ही हमारी सरकारें। ऐसा माहौल देना होगा कि वे खुद बताएं कि वे कैसा विकास चाहते हैं। उन्हें क्या परेशानियां हैं? ये बेचारे तो कभी सीआरपीएफ से पिटते हैं तो कभी माओवादियों से पिटते हैं। हम बंदूक की लड़ाई नहीं चाहते हैं, हम तो विचारों की लड़ाई चाहते हैं। संविधान के दायरे में रहते हुए हम शांति वार्ता चाहते हैं।

आप आदिवासियों की बात करती हैं। आपने कहा कि बंदूक की लड़ाई के खिलाफ हैं आप। लेकिन आपकी छवि नक्सली की बन गई है। ऐसा क्यों?
मैं आदिवासियों के साथ हूं। उनके हक की लड़ाई लड़ती हूं। सीआरपीएफ तो पूरे आदिवासियों को माओवादी और नक्सली मानती है। इसलिए वे मुझे भी माओवादी मानते हैं। जबकि कोर्ट मुझे कब का बाइज्जत बरी कर चुकी है। लेकिन यह कलंक अभी तक नहीं जाता। दोरनापाल में जब सहायक अध्यक्ष का अपहरण हुआ था, तो किसी ने कुछ नहीं किया। मैंने माओवादियों से अपील की कि सहायक अध्यक्ष को छोड़ दें। उसे माओवादियों ने रिहा भी कर दिया। तो कहने वालों ने कहा कि अब सोनी सोरी ने अपील कर दी है न माओवादियों से, तो अब तो वह रिहा हो ही जाएगा! जिसे जो सोचना है वह सोचेगा ही। मैं अपनी छवि बनाने के लिए नहीं लड़ रही हूं बल्कि आदिवासियों के लिए लड़ रही हूं।

आपने चुनाव लड़ा। आदिवासियों की एक बड़ी नेता होने के बाद भी आप चुनाव हार गर्इं। ऐसा क्यों?
मैंने कभी जीतने के लिए चुनाव नहीं लड़ा। फिर मैं तुरंत जेल से निकली थी। दरअसल मुझे उस समय धमकियां मिल रही थीं कि मैं बस्तर न लौटूं। इसलिए आम आदमी पार्टी के प्रशांत भूषण ने एक टिकट देकर मुझे यहां आने की जमीन तैयार की जिससे खतरा कम से कम हो। क्योंकि मुझे तो अपना बस्तर चाहिये था। मैं बस्तर से दूर नहीं रह सकती हूं। जेल से तुरंत ही रिहा होने के कारण मैं प्रचार नहीं कर पाई। अपने लोगों के बीच नहीं जा पाई। बावजूद इसके मुझे अठारह उन्नीस हजार वोट मिले। मेरा तो मनोबल ही बढ़ा।

क्या आप दोबारा चुनाव लड़ेंगी? आम आदमी पार्टी से ही लड़ना चाहेंगी या कोई दूसरी पार्टी भी हो सकती है?
नहीं, अभी तो फिलहाल कुछ नहीं सोचा। अभी जो काम कर रही हूं उससे संतुष्ट हूं। कई पार्टियों ने आॅफर तो दिया है। लेकिन अभी कुछ सोचा नहीं। छत्तीसगढ़ जनता पार्टी ने अभी संपर्क किया था। लेकिन अभी मैं बिल्कुल भी चुनाव लड़ने की नहीं सोचती हूं। राजनीति में जाने के बाद मेरे पास कई काम होंगे। मैं अपने आदिवासी भाई-बहनों के साथ मिल नहीं पाऊंगी। अभी मैं उनके साथ दिल से जुड़ती हूं। इसलिए अभी तो राजनीति में आने का कोई विचार नहीं किया।

कभी आपने आदिवासियों को इकट्ठा करके यह नहीं कहा कि आप विकास के लिए मांग कीजिये, विकास में सहायक बनिये।
हां, बिल्कुल कई बार बात की। अभी हाल ही में गमपुर गांव में गई थी। वहां मैंने कहा कि आप लोग वोटर कार्ड बनवाइये। आधार कार्ड बनवाइये। क्योंकि आपकी पहचान भारत के नागरिक के रूप में हो इसके लिए पहचान पत्र जरूरी है। तो उन लोगों ने कहा कि माओवादी इसका विरोध करते हैं। मैंने कहा कि आप लोग बात कीजिये या मैं करती हूं। लेकिन बाद में इन लोगों खुद ही माओवादियों से बातचीत कर अपना पहचान पत्र बनवाया, आधार कार्ड बनवाया, राशन कार्ड बनवाया। मैं चाहती हूं हम माओवादियों से बात करें इसकी बजाय आदिवासी खुद ही माओवादी से बात करें। अपनी बात रखें। उनसे कहें कि आप सड़क और स्कूल क्यों तोड़ते हो? इससे हमारा विकास रुकता है। हमारे बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। मुझे लगता है कि आदिवासी ही माओवादियों से बात कर सकते हैं।

नक्सल समस्या को किस रूप में देखती हैं? कभी ऐसा लगा कि यह आंदोलन अपना मकसद खो चुका है? या अभी इस आंदोलन की जरूरत है?
जब तक आदिवासियों पर अत्याचार होंगे तब तक यह समस्या घटने की जगह बढ़ेगी ही। आप बताइये सुकमा में जो हिंसा हुई उससे सारा गांव खाली हो गया। कुछ लोग पूछताछ के लिए उठा लिए गये। अब जब ये लोग छोड़े जाएंगे या फिर जो लोग बेघर हुए हैं, तो नक्सली तो उनसे कहेंगे कि देखो सेना तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करती है! हमारे साथ आओ और बंदूक उठाओ। यह एक दुष्चक्र जैसा है। जहां अत्याचार होगा लोगों का सरकार और सेना से मोह भंग होगा, तो वे नक्सलवाद की तरफ जाएंगे ही जाएंगे।