संध्या दिव्वेदी।

देश की सरकार की हद से आगे है एक और सरकार!
बस्तर के सफर में पता चला देश के कुछ गांवों में ‘अंदर वालों’ की सरकार है। इनका अपना संविधान है। इनकी कंगारू अदालतें हैं। इन्हें जनताना यानी जनता की अदालत कहते हैं। यहां सजा के बर्बर से बर्बर तरीके अपनाये जाते हैं। इनके अपने स्कूल हैं। जहां माओ की आत्मा बसती है। ‘माओ चीन का है, उसने एक क्रांति की थी, बुर्जुआ के खिलाफ!’ गांव के बुजुर्ग ने माओ का परिचय इतनी सहजता से दिया कि एक पल को लगा माओ यहीं दण्डकारण्य में ही जन्मा है। लेकिन उतनी ही सहजता से उसने एक सवाल भी पूछा, ‘आप तो चीन गई होंगी! वहां तो बहुत पहले क्रांति हो गई थी। वहां तो अमीर गरीब सब बराबर हैं! वहां सब आजाद हैं न! एक दिन भारत भी माओ के सपनों का देश बनेगा।’ इन अंदर के गांवों में देश के सबसे निचले तबके को जोड़कर क्रांति का सुनहरा और भरमाने वाला सपना बुना जा रहा है। गरीबों का रखवाला बनकर ये अंदर वाले लोग आदिवासियों को ढाल बनाकर भारत सरकार के खिलाफ एक ‘गुरिल्ला वार’ चला रहे हैं।

‘अंदर वालों’ जिन्हें हम नक्सली कहते हैं, को पता है कि अगर इन अंदर के गांवों में सड़कें, स्कूल, बिजली और सरकारी योजनाएं पहुंचीं तो उनकी ‘गरीबों के मसीहा’ वाली छवि टूट जाएगी। जितना तेज विकास होगा, ये उतना ही बौखलाएंगे। क्योंकि अंदर वालों के नेताओं को पता है कि विकास की रफ्तार जितनी तेज होगी उतनी तेजी से उनका अंत होगा।

ये कल्पना नहीं सच है क्योंकि जहां विकास पहुंचा है, वहां लोगों का मोह अंदरवालों से भंग हो रहा है। सुकमा के बुरकापाल में हुई नक्सली हिंसा इनकी बौखलाहट का ताजा उदाहरण है। लेकिन अंदर वालों की स्वरचित सरकार को खत्म करने के लिए हमें वह रणनीति बनानी ही होगी जिससे बस्तर ही नहीं बल्कि देश के हर अंतिम गांव तक विकास पहुंचे।

यकीन मानिये लोग सरकार को खोज रहे हैं। लोग लोकतंत्र के पर्व का हिस्सा बनना चाहते हैं। जनताना अदालतों से लोग खौफजदा हैं। सुकमा के बुरकापाल में कमला नाम की लड़की मिली जो पोलमपल्ली के पोटा केबिन यानी ऐसे स्कूल जहां सरकार बच्चों को वहीं रखकर न केवल मुफ्त में पढ़ाती है बल्कि उनकी खाना खुराक से लेकर कपड़े तक सब मुहैया करवाती है। कमला से जब पूछा कि वह गांव में ही रहना चाहती है या पढ़ने दोबारा पोटा केबिन जाना चाहती है? तो उसका जवाब था, ‘मैं वहीं रहना चाहती हूं। वहां से फिर मैं शहर जाना चाहती हूं। यहां कभी दोबारा नहीं आना चाहती। हां, एक बार सरकार से मिलना चाहती हूं कि वह यहां पर भी अपनी सरकार बनाये!

एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपनी एक स्टोरी का जिक्र करते हुए बताया कि एक बार उनकी मुलाकात एक व्यक्ति से हुई। उसने कहा, ‘सरकार है तो बहुत अच्छी। मगर है कहां? यहां तो हमने जब से होश संभाला अंदर वालों की ही सरकार देखी है।’ तो एक बात तो तय है कि सरकार को वहां तक पहुंचना होगा। कमला की गुहार सुननी होगी और उसे यकीन दिलाना होगा कि वहां देश की सरकार है।

वनोपज से समृद्ध बहुमूल्य खनिजों वाले इन जंगलों के बीच बसे अशिक्षित, बेरोजगार और देश की मुख्यधारा से कटे आदिवासियों की आंखों में एक असमंजस साफ दिखाई देता है। लगता है मानो वे पूछना चाहते हैं कि क्या खजूर, महुआ के घने जंगलों के बाहर भी कोई सरकार है! ये सवाल दरअसल बस्तर के सफर में कई बार मेरे भीतर भी उठा। देश को आजाद हुए सत्तर साल बीत गए मगर इन अंदर के गांवों तक विकास क्यों नहीं पहुंचा?

एक और सवाल जो इस सफर की शुरुआत में मेरे भीतर उठा था। उसका जवाब भी इन्हीं जंगलों में भटकते भटकते मुझे मिला। एक पूर्व नक्सली से मुलाकात ने साफ कर दिया कि इनके एजेंडे में गरीब हैं ही नहीं। गरीबों का मसीहा होने का दावा एक मुखौटा भर है। बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ क्रांति का नारा देकर ये लोग आदिवासियों को जोड़कर अपना एक खास मकसद पूरा कर रहे हैं। बदरना नाम के आत्मसमर्पण करने वाले पूर्व नक्सली से यह पूछने पर कि अगर बराबरी चाहिये तो पहले विकास जरूरी है। फिर आप लोग सड़कें क्यों नहीं बनने देते? स्कूल क्यों तोड़ देते हैं? क्यों बिजली के खंभे गिरा देते हैं? तो उसका जवाब सीधा नहीं था, बल्कि सरकार की सुस्त चाल को ढाल बनाकर उसने जो जवाब दिया उससे साफ है कि नक्सलवाद सिर्फ अपनी ‘लाल क्रांति’ का पक्षधर है।

गरीब उसकी सूची में नहीं है। जवाब था, ‘इतने साल तक आपकी सरकार कहां थी? नक्सलबाड़ी का आंदोलन भी 1967 में शुरू हुआ था, यहां तो हम 80 के दशक में आये। तब तक विकास क्यों नहीं किया? अब तो ये सड़कें हम तक पहुंचने के लिए बनाई जा रही हैं। और स्कूल सेना तैनाती के लिए बना रहे हैं।’ पूर्व नक्सली की टिप्पणी उस ‘लाल सलाम’ पर सवाल उठाती है जिसे क्रांति का नारा बना दिया गया। जिसे गैर बराबरी और भेदभाव भरे विकास के कारण गुस्से से उपजी क्रांति का नाम दे दिया गया। दोषी हमारी सरकारें भी हैं। किसी भी रूप में सरकार के बिना कोई आबादी नहीं रहती। हम बाहर ही बने रहे और अंदर वालों ने अपनी सरकार बना ली। या यों कहें देश के भीतर और बाहर वालों के उकसाने पर ‘आदर्श राज’ का सपना दिखाकर एक समानांतर सरकार बना ली।

इन अंदरवालों का मकसद गरीबों का हित और विकास नहीं बल्कि भारत सरकार के खिलाफ साजिश रचना है। ये लाल सलाम दरअसल उस खूनी क्रांति का नारा है, जिसे ये लोग सालों से अंजाम दे रहे हैं। ये जल, जंगल, जमीन की लड़ाई नहीं बल्कि भारत सरकार के खिलाफ शुरू हुआ घोषित युद्ध है। इसलिए अब सरकार को इन घने झुरमुटों और ऊंचे ताड़ के पेड़ों को चीरते हुए अंदर तक पहुंचना ही होगा। कुछ भी हो इन गांवों को ढाल बनाकर बैठे इन माओ, कार्ल मार्क्स और लेनिन अनुयायियों के प्रमुखों को खोजना ही होगा। बदरना ने एक और बात कही, उसने कहा, ‘हमसे मिलने देश के ही नहीं बल्कि अमेरिका और चीन के लोग आते हैं। ये लोग हमें बताते हैं कि क्रांति क्यों और कैसे करनी है?’ यानी जंगल के भीतर हो रही क्रांति के सूत्रधार योजनबाद्ध तरीके से इन्हें माओवादी बना रहे हैं।

शिक्षा विभाग के अधिकारी श्याम जी ने ब्लाकवार आंकड़े भी मुहैया कराये। केवल सुकमा जिले के शिक्षा विभाग के आंकड़े देखें तो 200 स्कूलों को नक्सलियों ने ध्वस्त कर दिया है। इनमें से अभी 24 स्कूल दोबारा बनवाये जा चुके हैं। बाकी में काम चल रहा है।

घने जंगलों में चलती है एक अलग सरकार
‘इनकी अपनी अदालते हैं। इन्हें जनताना कहते हैं। यहां दोषी को क्रूर सजा दी जाती है। डंडे से पीट-पीटकर आरोपी से जुर्म कुबूल करवाना और जुर्म कुबूल कर लेने के बाद उसे सजा देना। जीभ काटना, फांसी पर सरे आम लटका देना, गला रेत देना, गोली मार देना आम बात है। ये लोग सड़कों का विरोध करते हैं। स्कूल तोड़ देते हैं। पीडीएस का राशन लेने से मना करते हैं। पुलिस की मुखबिरी करने का किसी पर शक हो जाए तो उसकी हत्या कर देते हैं।’ दंतेवाड़ा के समाली पारा गांव के सनाराम ने बताया कि दो साल पहले तक इस गांव में भी अंदर वालों की सरकार चलती थी। सनाराम कहते हैं, ‘सेना का कैंप यहां से कभी नहीं हटना चाहिये। क्योंकि कैंप हटते ही अंदर वाले फिर यहां आना जाना शुरू कर देंगे।’ अंदर वाले यानी नक्सली।

इसी गांव के एक और व्यक्ति ने नक्सलियों की जनताना अदालत के बारे में खुलकर बताया- ‘जनताना कहने को तो जनता की अदालत है। लेकिन यहां जनता बस चुपचाप देखती सुनती रहती है। अपराध सुनाने वाले, मुकदमा चलाने वाले और सजा सुनाने से लेकर देने वाले सब वही होते हैं। मुखबिरी का शक होने पर मुकदमा नहीं चलता, बस सजा सुनाई जाती है। पेड़ से लटका कर डंडों से इतना पीटा जाता है कि निर्दोष भी अपराध मान ले। अगर गांव का कोई व्यक्ति उस आरोपी के पक्ष में बोलना चाहे तो उसे शक के घेरे में ले लेते हैं। वह उनकी नजरों में आ जाता है। मैं कई जनताना में शामिल हुआ। हम बस वहां देख सकते हैं, सुन सकते हैं पर अपना पक्ष नहीं रख सकते।’ इस व्यक्ति ने नाम न बताने की शर्त पर ये सारी बातें बतार्इं। उन्होंने यह भी बताया कि पिछले करीब डेढ़ साल से उनका यहां आना जाना बंद है। मगर कुछ दिन पहले गांव के लोगों ने उनका एक जत्था यहां से जाते देखा था। इन दोनों ने यह भी बताया कि सुरक्षा बलों की कड़ी निगरानी और पूछताछ से उन्हें रोज गुजरना पड़ता है। जबसे सुकमा में हमला हुआ है तब से इस गांव का कोई व्यक्ति सेल अंदर नहीं ला सकता। सुरक्षा बलों को शक होता है कि इसे हममें से कोई नक्सलियों तक पहुंचा सकता है। गांव के लोग तो दोतरफा मार झेलते हैं। नक्सली सोचते हैं कि हम सेना के मुखबिर हैं और सेना सोचती है कि हम नक्सलियों के मुखबिर हैं।’

इस गांव से आगे बढ़े तो अरबे गांव पहुंचे। जहां हमारी मुलाकात हुई पांडू से। पांडू ने बताया ‘अब अंदर वाले यहां नहीं आते। मगर पहले आते थे। सरकार का राशन लेने से मना करते थे। कहते थे इसमें दवाइयां पड़ी रहती हैं।’ फखरू पूछते हैं, ‘बताइये सरकारी राशन न लें तो क्या करें? हम कभी राशन लेते थे कभी नहीं। मगर अंदरवालों को हमें चावल-दाल देना पड़ता था। पूरा गांव चंदा करके पैसा इकट्ठा करता था उन्हें देने के लिए। इस गांव में बिना उनकी इजाजत के कोई भी व्यक्ति ज्यादा दिन बाहर नहीं रह सकता था। ज्यादा दिन बाहर रहने वाले पर उन्हें शक होता था कि वह सेना का आदमी है।’ दांतेवाड़ा के सफर से हमें नक्सलियों के आतंक का ंदाजा होने लगा था। लेकिन अभी और भी सफर तय करना था। नक्सलियों के आतंक और सेना के कैंपों के बीच बसे और भी गांवों में जाना था। हमने जगदलपुर का सफर शुरू किया। यहां हम पहुंचे नानगुर गांव में जहां साप्ताहिक हाट लगी थी। ड्राइवर हमें लगातार बता रहा था- ‘इस हाट में अंदर वाले भी आते हैं। आप संभलकर कुछ पूछियेगा। क्या पता कोई नक्सली आपके बगल में ही खड़ा हो।’

दोनों ओर जंगल से घिरे, ऊबड़-खाबड़ सड़कों से होते हुए हम पहुंचे नानगुरु गांव। जहां से उड़ीसा की सीमाएं लगती हैं। ड्राइवर स्थानीय था। वह बता रहा था, ‘ये अंदर वाले यहां बड़ी घटना करके जंगलों के बीच से उड़ीसा चले जाते हैं। सेना यहां के रास्तों को इतनी अच्छी तरह नहीं जानती जितना ये लोग। जंगल का हर रास्ता यहां के लोगों को पता है। इसलिए नक्सली सेना को चकमा देकर हर बार निकल जाते हैं।’ हमारी गाड़ी हाट के बीच में जाकर रुकी। महुआ, खजूर, इमली, टोरा, तेंदू पत्ते की बीड़ी के ढेर से सजी यह हाट छत्तीसगढ़ की समृद्ध वनोपज की एक बेमिसाल तस्वीर थी।

खजूर बेचने आये फखरू से हमने बाजार के बारे में पूछने के बहाने बातचीत शुरू की। उसे केवल गोंडी आती थी। मेरे सवालों को उस तक पहुंचाने और उसके जवाबों को मुझ तक पहुंचाने का काम हमारा ड्राइवर कर रहा था। फखरू बड़ी देर में हमसे बात करने को तैयार हुए। फखरू ने बताया वह नेतरान गांव से आया है। नानगुरु के ठीक आगे पड़ने वाला गांव। उसकी बातों में डर था, हड़बड़ी थी। वह हर सवाल का जवाब इधर उधर देखने के बाद डरते डरते दे रहा था। ऐसा लग रहा था फखरू को डर है कि कोई उसकी बात सुन रहा है। हमने पूछा क्या आपके गांव में अंदर वाले आते हैं? -‘हव आते हैं न!’ क्या आपके गांव में जनताना अदालत लगती है? ‘नहीं पहाड़ों पर लगती है। जब फरमान आता है तो हम जाते हैं।’ गांव के लोग जनताना में जाते हैं। क्या आप लोगों से राशन मांगते हैं? ‘हव, मांगते हैं, न! पैसा भी देना पड़ता है। वो सरकार के खिलाफ हैं। हमारे गांव में सेना के कैंप हैं। इसलिए अब कम आते हैं। बस फरमान भिजवाते हैं।’

‘हालांकि हमारे गांव में सेना के कैंप हैं। पर उसके अंदर और अंदर जहां सेना नहीं है वहां अंदर वालों की ही सरकार चलती है।’ फखरू ने आगे बताया, ‘इनके अपने स्कूल होते हैं। सरकारी स्कूलों को तोड़ देते हैं। सड़कों को बम से उड़ा देते हैं। बिजली के खंभे तोड़ देते हैं। अगर किसी के पास मोबाइल हो तो उन्हें लगता है कि वह पुलिस का मुखबिर है।’ फखरू ने आखिर में इतना कहा,‘अगर यहां मुझे आपसे बात करते अंदर वालों ने देखा तो जनताना में मुझे मौत दे दी जाएगी।’ फखरू के बगल में बैठा एक व्यक्ति धीरे से फुसफुसाया, ‘यहां अंदर वाले भी बाजार करने आते हैं। आप पूछताछ मत कीजिये। अभी बहुत लोग यहां होंगे।’ धूल भरी उस बाजार में कोई महुआ बेच रहा था कोई टोरा तो कोई खजूर, कोई तेंदू पत्ते की बीड़ी। उस व्यक्ति की यह बात हमारी दिल की धड़कनें बढ़ाने के लिए काफी थी। क्या पता अंदर वाले हमारे आस पास ही मौजूद हों। हमने बात बदली और बाजार में देशी उत्पादों के भाव पूछने लगे।

हर आहट डराती है
कभी झाड़ियों की सरसराहट तो कभी बकरियों का झुंड। सन्नाटे के बीच हल्की सी भी आहट डराती है। लगता है घने झुरमुट से कोई अचानक हम पर धावा बोल देगा। दिल थर्रा जाता है कि कहीं लैंडमाइन्स न फट पड़े। कहीं गोली न चल पड़े। ये केवल डर नहीं बल्कि इस इलाके का खौफनाक सच है।

सुकमा से बुरकापाल तक तय किये इस सफर में हमारी धड़कनें बढ़ी हुई थीं। 80 किलोमीटर के इस सफर में मैं, ड्राइवर और एक स्थानीय पत्रकार के अलावा था तो बस सन्नाटा। हर दो किलोमीटर, तीन किलोमीटर के दायरे में एक सेना का कैंप या पुलिस की चौकी स्थापित थी। गहन पूछताछ और फिर अपने अधिकारियों से स्वीकृति मिलने के बाद ही हमें आगे बढ़ने की इजाजत मिलती थी। एक कैंप से दूसरे कैंप तक जाने के बीच घने जंगल, ऊबड़ खाबड़ रास्ता, बिजली के टूटे खंभे और पुल हममें खौफ पैदा कर रहे थे।

हर कैंप में सेना हमें अगाह करती, सजग रहियेगा। सड़क के बीच में चलिएगा। यहां कौन नक्सली है और कौन गांव का व्यक्ति यह पहचानना मुश्किल होता है। चरवाहे आम चरवाहे भी हो सकते हैं लेकिन ये भी हो सकता है कि ये चरवाहे आप पर नजर रख रहे हों।
खौफ और घबराहट के बीच बुरकापाल में उस जगह पहुंचे जहां 24 अप्रैल को हमारे 26 जवान शहीद हो गए थे। ये जवान नक्सलियों के खिलाफ कोई आपरेशन नहीं चला रहे थे। बल्कि एक सड़क का निर्माण करवा रहे थे। सड़क जिसके नक्सली धुर विरोधी हैं।

दरअसल सुकमा में जगरगुंडा को दोरनापाल से जोड़ने के लिए तीन सड़कों का निर्माण किया जा रहा है। नक्सलवाद से प्रभावित इस इलाके में सड़क संजाल बनने से स्कूल, अस्पताल और राशन जैसी अन्य बुनियादी सुविधाएं पहुंचाना आसान हो जाएंगी। नक्सलियों के गढ़ में सड़क बन सके, इसलिए सीआरपीएफ के जवान श्रमिकों को सुरक्षा देने के लिए तैनात किए गए हैं। बीजापुर, किंरदुल और सुकमा को जोड़ने के लिए तीन अलग-अलग सड़कें बनाई जा रही हैं। इन सड़कों से नक्सली इतने खौफजदा हैं कि वे इसे रोकने के लिए पांच बार सीआरपीएफ के जवानों पर हमला कर चुके हैं। इसी महीने में यह दूसरा हमला था। इसी साल 11 मार्च को नक्सलियों ने घात लगाकर सीआरपीएफ के 13 जवानों को मार डाला था।

निर्माणाधीन सड़कों में से पहला राष्ट्रीय राजमार्ग 30 है जो सुकमा को कोंटा के साथ जोड़ता है। यह करीब 80 किलोमीटर लंबा मार्ग है। दूसरा इंजीराम और भेज्जी को जोड़ता है। जिस स्थान पर 24 अप्रैल को नक्सली हमला हुआ, वह सड़क दोरनापाल को जगरगुंडा से जोड़ने के लिए बनाई जा रही है।

रास्ते में कांटेदार तारों से घिरे सीआरपीएफ शिविर और पुलिस थाने देखकर जहां सुरक्षा महसूस होती है वहीं यह भी महसूस होता है कि हम देश के सबसे असुरक्षित और हिंसाग्रस्त इलाके में हैं। 24 अप्रैल को जिस स्थान पर मुठभेड़ हुई, उस 56 किलोमीटर लंबी निर्माणाधीन सड़क पर पांच पुलिस थाने, 15 सीआरपीएफ शिविर हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां हर कोने पर खतरा है। इस सफर के बीच में पड़े चिंतानगुफा में अभी दो महीने पहले एक व्यक्ति को जान से केवल इसलिए मार दिया गया था क्योंकि उसने एक छोटी सी दुकान खोली थी। नक्सलियों को शक था कि वह सेना का मुखबिर है। उसे मारकर बीच सड़क में छोड़ने के बाद पूरे दिन उसे वहीं पड़े रहने की हिदायत नक्सलियों ने दी थी। बुरकापाल हमले से पहले यहां के पूर्व प्रधान को भी मुखबिर मानकर उसकी हत्या कर दी गई थी।

बुरकापाल गांव में पसरा है सन्नाटा
करीब 50 घर के इस गांव में घर हैं, दरवाजे हैं और उन पर जड़े हुए ताले हैं। जानवर हैं। और वो बुजुर्ग जो असहाय हैं। औरतें हैं तो केवल वो जिनके पति या बेटे को सेना पूछताछ के लिए ले गई है।

पूरे गांव में घरों के दरवाजों पर ताले लटके हैं। बर्तन भांडे जस के तस पड़े हैं। मानो जल्दबाजी में सब छोड़ छाड़कर ये लोग भागे हों। खटिया बाहर पड़ी है तो ताड़ी वाले बर्तन बाहर दीवारों से लटके हैं। पूरा गांव छान मारने के बाद हमारी मुलाकात एक बुजुर्ग से हुई। उनका शरीर बुखार से तप रहा था। काफी देर पूछताछ करने के बाद लगा कि वे इस स्थिति में नहीं हैं कि जवाब दे सकें। करीब में ही एक बुजुर्ग महिला नन्दे से मुलाकात हुई। बहुत पूछने के बाद उन्होंने पहले चारों तरफ नजर दौड़ाई फिर गोंड़ी भाषा में फुसफुसार्इं। स्थानीय पत्रकार ने उनकी भाषा का अनुवाद कुछ इस तरह किया- ‘यहां अंदर वाले लोग आते हैं। वे हमें धमकाते हैं। कहते हैं पुलिस के पास गए या कुछ बताया तो मार डालेंगे। हमसे दाल चावल ले जाते हैं। सेना भी आती है। वह भी डराती है। कहते हैं कि अगर नक्सलियों से मुखबिरी की या उनकी मदद की तो जान से मार देंगे।’ स्थानीय पत्रकार के कानों पर अपने मुंह को सटाये नन्दे जब यह सब बोल रहीं थीं तो उनकी फटी हुई आंखें और फुसफुसाती आवाज के बीच खौफ साफ दिख रहा था।

हमने आगे का रुख किया तो तीन चार औरतें और कुछ पुरुष और बच्चे दिखे। इन औरतों ने बताया, ‘हमारे मर्द और बेटे सेना के पास हैं।’ उनमें से एक औरत ने कहा, ‘मेरे मरद को टीबी है। उसे तो कुछ भी नहीं पता।’ एक औरत ने बताया, ‘मेरे बेटे शक के आधार पर सेना ले गई है। चार हफ्ता से ज्यादा हो गया कुछ खबर नहीं।’ अपनी आपबीती बताते हुए कहा कि हमारी किस्मत में बस मार खाना और एक दिन किसी गोली का शिकार हो जाना ही लिखा है। अंदर वाले हमें पुलिस का मुखबिर बताते हैं तो सेना हमें अंदर वालों का मुखबिर बताती है। हम लोग तो अंदर वालों और कैंप वालों के बीच फंस कर रह गए हैं।’ हालांकि उनमें से ही एक औरत ने बताया, ‘सेना हमारी खूब मदद करने लगी थी। कई बार जब हम बीमार पड़ते थे तो हम उनके अस्पताल में चले जाते थे। वहां मुफ्त इलाज हो जाता था। लेकिन इस हमले ने फिर एक बार गांव को नक्सली बना दिया है।’

ताकि सैनिकों में बना रहे जज्बा
‘मैं इससे पहले कश्मीर में भी रहा हूं। पर कश्मीर से भी खतरनाक हालात हैं यहां। वहां कम से कम यह पता होता है कि आतंकवादी कौन है? पत्थर आते हुए दिखाई देते हैं। मगर यहां तो आपके किस कदम के नीचे लैंडमाइन है, पता ही नहीं चलता। चरवाहों, गांववालों के भेष में कौन नक्सलियों का मुखबिर है कुछ अंदाजा नहीं लगता। कैंप से बाहर निकलते ही लगता है हर कदम मौत की तरफ ले जा रहा है। जंगलों में गश्त करते हुए लगता है, गोली अब चली तब! मोबाइल के टावर यहां हैं नहीं। वायरलेस फोन आपस में बात करने के लिए और लैंडलाइन फोन घर वालों से बात करने के लिए। लैंडलाइन फोन के लिए इतनी लंबी लाइन लगती है कि कई बार हमारा नंबर ही नहीं आता। मोबाइल फोन का सिग्नल खोजना एक अलग समस्या है। एक लंबी टीन की शेड के नीचे 30-40 जवान सोते हैं। हमारे पास अलग से डारमेट्री नहीं हैं। टीन की शेड धूप में तपकर भट्टी बन जाती है। यहां तक कि 15-20 लोगों के बीच एक टॉयलेट है।’

ये शिकायत किसी एक सुरक्षा बल के जवान की नहीं बल्कि कई जवानों की थी। पास खड़े दूसरे जवानों ने बताया, ‘मच्छरों का यहां इतना आतंक है कि कोई न कोई मलेरिया या टायफाइड में पड़ा ही रहता है।’ अपनी व्यथा कहते कहते अचानक उसने गांव वालों पर गुस्सा जाहिर करना शुरू कर दिया, ‘आप ही बताइए अगर यहां सड़क बनेगी तो किसका होगा भला? हम तो आज यहां हैं कल वहां! लेकिन ये गांव के लोग ही नक्सलियों तक हमारी खबर पहुंचाते हैं। हमारी हर गश्त पर इनकी नजर होती है। हम तो इनके दुख-दर्द तक बांटते हैं। हमारे अस्पतालों में हम इनका मुफ्त में इलाज भी करवाते हैं। इसके बदले ये लोग हमें नक्सलियों की बंदूकों के निशाने पर ला देते हैं। ये भोलेभाले नहीं बल्कि एहसान फरामोश हैं।’

कोबरा पोस्ट के एक डिप्टी कमांडेंट ने भी अपनी व्यथा को खोलकर हमारे सामने रख दिया, ‘हर कदम यहां हमें मौत के करीब ले जाता है, उस पर अगर सरकार हमें सारी सुविधायें भी मुहैया न करवाये तो हम कैसे अपना जज्बा बनाये रखें? अपने परिवार से दूर हम यहां पड़े हैं। किस दिन नक्सलियों की गोली या सड़क पर बिछी बारूदी सुरंग हमारी जान ले लेगी कुछ पता नहीं। घर वालों को तो हम बताते भी नहीं कि यहां कितना खतरा है?’ शहीद होने के बाद जवानों पर आंसू बहाने और उन्हें देश का रक्षक बताने से पहले हमें सुरक्षा बलों को हर बुनियादी सुविधा देनी होगी। ताकि उनका जज्बा बना रहे। उनका आत्मविश्वास डगमगाये नहीं। हताशा उन्हें घेरे नहीं।

कमजोर है जवानों की तैनाती और सूचना प्रणाली
एंटीनक्सल आपरेशन से जुड़े रहे अधिकारी आर. के. विज ने कहा, ‘फोर्स के डिप्लॉयमेंट और लड़ने के तरीके में बदलाव जरूरी है। सूचना तंत्र को मजबूत करने की फौरन जरूरत है।’ उन्होंने बताया, ‘डिप्लॉयमेंट और इन्फॉर्मेशन सिस्टम में हमें और काम करने की जरूरत है। फोर्स एक लीनियर ढंग से डिप्लॉय की जाती है जबकि ये लोग जगह जगह बिखरे होते हैं। इससे होता यह है कि ये कई जगह से सेना पर वार करते हैं। नक्सलियों ने हमला करने के तरीके में भी बदलाव किया है। पहले वे गुरिल्ला वार करते थे। जहां जवान होते थे, वहां सामने आकर उनपर हमला करते थे। लेकिन अब वे मोबाइल वार करते हैं। जहां जवानों की टुकड़ी होती है, उस जगह की रेकी कर वहां एक दम से उन्हें ज्यादा संख्या में नक्सली घेर लेते हैं। और ताबड़तोड़ हमला कर देते हैं। पहले गुरिल्ला वार में नक्सली और जवान आमने सामने होते थे। अब ऐसा नहीं है।

दूसरा इनका सूचना तंत्र बेहद मजबूत है। इसकी कई वजहें हैं। पहली, ये लोग यहां की भौगोलिक स्थिति से अच्छी तरह परिचित हैं। जंगल का हर रास्ता इन्हें पता है। दूसरा, गांव वालों के बीच इनकी पैठ होना। इनकी सूचना किसी मोबाइल फोन से नहीं मिलती। बल्कि कुछ कुछ दूर पर ये गांव वाले या इनके लोग फैले होते हैं जो जवानों का दस्ता देखते ही इशारे कर के एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे तक अपनी बात पहुंचाते हैं। कई बार चरवाहे बनकर इनके लिए गांव वाले रेकी करते हैं।’

मुखबिरी करते हैं गांव वाले
सीआरपीएफ के डीआईजी डीपी उपाध्याय ने माना कि कहीं न कहीं नक्सलियों का इन्फॉर्मेशन सिस्टम मजबूत है। उपाध्याय ने कहा, ‘उनका स्थानीय होना उन्हें यहां की भौगोलिक स्थिति के करीब लाता है। जबकि हमारे जवान अलग अलग जगहों के हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा नहीं है कि हमारे पास इन्फॉर्मेशन सिस्टम नहीं है। लेकिन वे गांव के लोगों के बीच से ही होते हैं। हर गांव में नक्सलियों के सदस्य होते हैं। इस वजह से गांव वाले उनके लिए इन्फॉर्मर की तरह काम करते हैं। हालांकि सुकमा अटैक से पहले हमारी गांव वालों से अच्छी बातचीत हो गई थी। हम इनके बीमार लोगों का इलाज अपने अस्पतालों में करवाते थे। कुछेक गर्भवती औरतों की डिलीवरी भी वहीं हुई। अपने खर्चे पर हवाई जहाज से अस्पताल भेजना और फिर दोबारा इन्हें इनके घर पहुंचाने का काम सेना ने कई बार किया। अब इसे खौफ कहें या नक्सलियों से गांव वालों की मिलीभगत ये लोग नक्सलियों को हमारी सूचना पहुंचाते रहते हैं।’

विकास और पुनर्वास जरूरी
नक्सलवाद विकास का विरोधी है या यों कहें विकास उनमें खौफ भरता है। विकास होने पर आदिवासी जनता मुख्यधारा से जुड़ेगी। देश और दुनिया में हो रहा बदलाव देखेगी। इसलिए ये लोग विकास का विरोध करते हैं। लेकिन जोखिम होने के बाद भी विकास ही इस समस्या का समाधान है।
’ एंटी नक्सल आपरेशन चलते रहने चाहिये, लेकिन विकास की रफ्तार भी तेज और तेज होनी चाहिये। हमने जिले में आदिवासियों के बच्चों के लिए पोटा केबिन शुरू किये हैं। यहां पोटा केबिन में अंदर के गांव के बच्चे रहकर पढ़ते हैं। उन्हें ड्रेस, खाना पीना, रहना और पढ़ना मुफ्त में मुहैया करवाया जाता है। जो स्कूल नक्सलियों द्वारी ध्वस्त किये गए थे उन्हें फिर से बनवाया जा रहा है।’

नक्सलियों से तोड़ा स्वाद से जोड़ा नाता
आत्मसमर्पित नक्सली बच्चों के पुनर्वास का एक अनूठा प्रयोग सुकमा कलेक्ट्रेट में चल रहा है। नक्सलियों के साथ काम करने वाले आत्मसमर्पण किये बच्चों द्वारा चलाई जा रही एक कैंटीन में अधिकारियों से लेकर वहां जाने वाला हर कोई जरूर जाता है। इस कैंटीन में खाना बनाने से लेकर पैसों का हिसाब किताब करने वाले सारे बच्चे आत्मसमर्पित बच्चे हैं। 15 बच्चों की टीम है और रोजाना करीब तीन हजार रुपये इनकी कमाई है। करीब 16 साल के एक बच्चे ने बताया, ‘हम वहां भी उनके लिए खाना बनाते थे, या फिर सड़क तोड़ते थे। कई बार सेना के जवानों की सूचना भी उन्हें देते थे। आत्मसमर्पण के बाद इतनी सुरक्षित जिंदगी पाकर हम खुश हैं। लेकिन गांव न लौट पाने का दुख भी है। हम दो साल से अपने परिवार वालों से नहीं मिले हैं। हमारा परिवार यहां आ नहीं सकता और हम वहां जाएंगे तो नक्सली हमें मार डालेंगे।’

कोई 18 साल की एक लड़की ने बताया, ‘मैं वहां भी नक्सलियों के लिए खाना बनाती थी। इसलिए यहां इस काम को पाकर अच्छा लगा। बस घर वालों की याद हमें बहुत आती है। इस कैंटीन की चर्चा आसपास के जिलों में भी है। डी.एम. सुकमा नीरज भंसोड़ कहते हैं, ‘यह एक छोटा प्रयोग है मगर हम इसे बड़े स्तर पर क्रियान्वित कर सकते हैं।’ 