अमलेंदु भूषण खां

मराठा आरक्षण आंदोलन की आग में महाराष्ट्र चल रहा है। मुंबई, ठाणे, नवी मुंबई और महाराष्ट्र के कई अन्य इलाकों में हिंसक प्रदर्शन किए जा रहे हैं। महाराष्ट्र की देवेंद्र फडणवीस सरकार को कड़ी चुनौती मिल रही है। दिलचस्प यह है कि इस आंदोलन को भी फडणवीस सरकार के साथ सत्ता में साझेदारी कर रही शिवसेना ने पूरा समर्थन देने की घोषणा की है, ठीक उसी तरह जैसे उसने मई-जून में हुए किसान आंदोलन को सक्रिय समर्थन दिया था। महाराष्ट्र की आबादी में मराठाओं की भागीदारी 33 फीसदी है और वे अपने लिए सरकारी नौकरी में 16 प्रतिशत आरक्षण की मांग कर रहे हैं। मुश्किल यह है कि अगर इन्हें अलग से आरक्षण दिया जाता है तो उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित आरक्षण की अधिकतम सीमा पार हो जाएगी और अगर पिछड़ा वर्ग में शामिल कर उन्हें आरक्षण दिया गया तो ओबीसी की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है।
मराठा आरक्षण आंदोलन को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट की ओर से भी चिंता जाहिर की जा चुकी है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि राज्य की स्थिति इस वक्त बहुत गंभीर है। बसों में आग लगाई जा रही है और पुलिस पर पथराव किया जा रहा है। इस मामले पर हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र की देवेंद्र फडणवीस सरकार के रवैये को लेकर नाराजगी भी जाहिर की है।
अचानक तेज और उग्र हुए आंदोलन के पीछे राज्य सरकार का वह बयान है जिसमें उसने कहा था कि वह जल्द ही 72 हजार सरकारी नौकरियों की घोषणा कर सकती है। मराठा समुदाय चाहता है कि इस भर्ती अभियान से पहले उनको आरक्षण मिल जाना चाहिए ताकि उनके समुदाय को किसी प्रकार का नुकसान न हो। इसे लेकर प्रदर्शन शुरू ही हुए थे कि औरंगाबाद जिले के कायगांव निवासी प्रदर्शनकारी काका साहब शिंदे ने गोदावरी नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली। शिंदे की मौत के बाद महाराष्ट्र के कई हिस्सों में नए सिरे से प्रदर्शन शुरू हो गए। औरंगाबाद में किसान जगन्नाथ सोनावने ने आरक्षण की मांग को लेकर जहर खा लिया। इन मौतों के बाद प्रदर्शनकारियों ने पुलिस वाहन एवं बस समेत कई वाहनों को नुकसान पहुंचाया।
इस आंदोलन का सबसे चिंताजनक पहलू इसका हिंसक होना है। राज्य की भारतीय जनता पार्टी की देवेंद्र फडणवीस सरकार आंदोलन की आग पर पानी डालने के लिए मराठा को भी आरक्षण देने का रास्ता निकालने में जुटी हुई है लेकिन स्थिति एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई वाली है।
पिछले चुनाव के मौके पर राज्य की तत्कालीन कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने मराठा को 16 और मुस्लिम को 5 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया था लेकिन कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी थी।
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग यही कोई दस साल पुरानी है लेकिन 2014 में राज्य में देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री बनने के बाद इस आंदोलन में आई तेजी के राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। महाराष्ट्र की पॉलिटिक्स में शुरू से ही मराठा का प्रभुत्व रहा है। 1960 में राज्य बनने के बाद वहां अब तक 12 मुख्यमंत्री मराठा ही हुए हैं। दो मौके ही ऐसे आए हैं, जब ब्राह्मण मुख्यमंत्री हुए हैं। 1995 में मनोहर जोशी और 2014 में देवेंद्र फडणवीस।
ऐसा माना जाता है कि मराठा आंदोलन की नींव 13 जुलाई, 2016 को तब पड़ी जब अहमदनगर जिले के कोपार्डी गांव में 15 साल की एक बालिका से बलात्कार की वारदात हुई। तब आंदोलनकारियों ने अपराधियों को फांसी के साथ ही, अनुसूचित जाति एवं जनजाति अधिनियम में संशोधन और मराठों के लिए आरक्षण की मांग उठा दी। महाराष्ट्र सरकार ने पहली दोनों मांगें मान लीं। अहमदनगर कांड में जल्द फैसले के लिए विशेष अदालत गठित कर दी गई। तीसरी मांग पूरी नहीं हुई और आंदोलनकारी अब इसके लिए दबाव बना रहे हैं। मराठा आरक्षण का मामला कोर्ट में विचाराधीन है। इस वजह से सरकार के हाथ बंधे हुए हैं और वह केवल भरोसा दे रही है। हालांकि, आंदोलनकारी एक दिन में अध्यादेश लाने की मांग कर रहे हैं।
महाराष्ट्र में मराठा और ओबीसी हमेशा से अलग-अलग पालों में खड़े नजर आते हैं। पहले भी जब मराठा को ओबीसी में शामिल करने की बात हुई है, इसका विरोध हुआ है। यहां तक कि बीजेपी के शीर्ष नेताओं में शुमार रहे गोपीनाथ मुंडे और एनसीपी के नेता छगन भुजबल (दोनों ही ओबीसी) अपनी-अपनी पार्टियों की नीतियों से परे जाते हुए एक साथ हो गए थे। इस बार भी कुछ ऐसी ही स्थिति बन रही है। मुंडे की बेटी और फडणवीस सरकार में मंत्री पंकजा मुंडे ने छगन भुजबल से मुलाकात किया है।
मराठा आरक्षण आंदोलन को लेकर न सिर्फ सरकार चिंतित है बल्कि बाबा साहेब आंबेडकर के नाती और दलितों के नेता प्रकाश आंबेडकर भी चिंतित हैं। दरअसल, दलित और पिछड़े समुदाय में भी इस बात को लेकर चिंता बढ़ी है कि मराठा समुदाय कहीं उनके हिस्से पर कब्जा न कर ले। बंजारा समुदाय की भाजपा मंत्री पंकजा मुंडे ने कहा कि यदि उन्हें एक घंटे के लिए महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया जाए, तो वे मराठा आरक्षण की फाइल पर हस्ताक्षर कर देंगी। इस पर प्रकाश आंबेडकर ने कहा है, ‘यह चिक्की खरीद की फाइल नहीं है, यह संविधान से जुड़ा मसला है।’ शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने भी यह मांग की है कि पंकजा को मुख्यमंत्री बना दिया जाना चाहिए।
किसी को आरक्षण देना इतना आसान नहीं है। इतने कानूनी पहलू हैं कि सरकार को कई पेंचीदगियों का सामना करना पड़ता है। मसलन इंदिरा साहनी केस (1992), जिसे मंडल निर्णय के रूप में जाना जाता है, में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि संविधान की धारा 16 के अंतर्गत नौकरियों और शिक्षा में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जाएगा। महाराष्ट्र में इस समय 52 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। यदि 16 प्रतिशत आरक्षण मराठों को दिया जाता है, तो यह बढ़कर 68 प्रतिशत हो जाएगा।
कांग्रेस-एनसीपी सरकार में उन्हें 5 प्रतिशत आरक्षण का ऐलान हुआ था। अभी तो सरकार यह कहकर खुद को ‘सेफ जोन’ में रखे हुए है कि संविधान की ओर से तय आरक्षण की अधिकतम सीमा से छेड़छाड़ उसके हाथ में नहीं।
इतना ही नहीं, मराठा को आरक्षण का लाभ मिलते ही सबसे पहला असर गुजरात में दिखेगा। वहां पटेल तुरंत आरक्षण की मांग को लेकर सड़क पर आ सकते हैं। हरियाणा में जाट आंदोलन और राजस्थान में गुर्जर आंदोलन को भी हवा मिलेगी। राजस्थान में तो कुछ महीनों में विधानसभा के चुनाव भी होने हैं, इस वजह से वहां यह मुद्दा बेहद संवेदनशील बना हुआ है। उत्तर प्रदेश में भी 17 ओबीसी जातियां खुद को एससी-एसटी श्रेणी में रखने की मांग कर रही हैं। पूर्ववर्ती समाजवादी सरकार तो इन जातियों को एससी-एसटी की सुविधाएं देने का आदेश भी जारी कर चुकी हैं लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना केंद्र के हाथ में है।
मराठा आरक्षण आंदोलन के दौरान छह लोग खुदकुशी कर चुके हैं और आठ लोगों ने आत्मदाह की कोशिश की है। इतना ही नहीं, आरक्षण की मांग को लेकर महाराष्ट्र के छह विधायक अब तक इस्तीफा दे चुके हैं। मराठा आंदोलन ने एक युवक काका साहेब दत्तात्रेय शिंदे (28 वर्ष) की जल समाधि ले ली। नवी मुंबई में पुलिस लाठीचार्ज के बाद एक युवक मारा गया। एक युवक प्रमोद होरे पाटिल (31 वर्ष) ने फेसबुक पर घोषणा कर रेल के सामने कटकर आत्महत्या कर ली। पहले दौर में अहमद नगर, औरंगाबाद और दूसरे दौर में मुंबई, ठाणे, पुणे और कोल्हापुर में हिंसा हुई। महाराष्ट्र सरकार इस आंदोलन से इतनी घबरा गई कि उसने कुछ कदम तत्काल उठाए। पहला, पिछड़े वर्ग के अध्यक्ष की नियुक्ति की, जो पिछले कई माह से रिक्त था। सर्वदलीय बैठक बुलाई और अब संभव है विधानसभा का विशेष सत्र भी बुलाया जाए।
महाराष्ट्र में आबादी का 33 प्रतिशत मराठों का है। अभी तक मराठा आबादी आरक्षण को हेय नजर से देखती थी। औरंगाबाद में विश्वविद्यालय के नाम पर पैदा हुआ विवाद हो या फिर आरक्षण में मंडल जातियों को शामिल किया जाना हो, मराठाओं का सामाजिक स्थान काफी अनुदारवादी था, पर धीरे-धीरे ज्यादातर मराठा समुदाय संपन्नता और सत्ता से दूर हो गया। मराठा राजनेताओं के पास शिक्षा, शक्कर और सहकारिता का तिलिस्म पिछले चार वर्षों में टूट गया, लेकिन जिस शालीनता और गरिमा से महाराष्ट्र के ग्रामीण और कस्बों में मराठा आरक्षण आंदोलन चला, उससे उसको राजनीतिक समर्थन मिला।
राजनीतिक गलियारे में ऐसी चर्चा है कि 2014 में फडणवीस के मुख्यमंत्री बनने के बाद मराठा नेताओं को यह लगने लगा कि कहीं राज्य की पॉलिटिक्स की कमान उन लोगों के हाथ से निकल न जाए, इसलिए लगभग सभी पार्टियों के मराठा नेता एकजुट होने लगे और उन्हें मराठा आरक्षण ऐसा मुद्दा मिला, जिसके सहारे वे राज्य की 33 फीसदी आबादी को एकजुट कर खुद उनके नेता बन सकें। भाजपा के मराठा नेता भी आरक्षण की मांग के समर्थन में हैं, इनमें से कई फडणवीस की जगह मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी हैं।
दरअसल, महाराष्ट्र में अगले साल चुनाव होने हैं। सरकार नौकरियों और कॉलेजों में मराठों को 16 फीसदी आरक्षण दिए जाने की मांग को सीधे-सीधे नहीं मान सकती। राज्य की पिछली कांग्रेस सरकार ने मराठा को आरक्षण से जुड़ा बिल विधानसभा में पास कर दिया था, लेकिन अदालत में इस पर रोक है। अदालत ने पिछड़ा वर्ग आयोग से मराठा समाज की आर्थिक-सामाजिक स्थिति पर रिपोर्ट मांगी है। इसके बाद ही मराठा आरक्षण पर कोई फैसला संभव है। फडणवीस सरकार की मुश्किल यह भी है कि सुप्रीमकोर्ट द्वारा निर्धारित 50 फीसदी की सीमा रेखा के पार जाकर मराठों को आरक्षण देना संभव नहीं और अगर ओबीसी के लिए तय 27 फीसदी कोटे में ही मराठों को शामिल किया गया तो राज्य में एक अलग ओबीसी-दलित आंदोलन शुरू हो जाएगा।
महाराष्ट्र की सियासत में मराठा समुदाय को किंगमेकर माना जाता रहा है। राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से 20 से 22 सीटें और विधानसभा की 288 सीटों में से 80 से 85 सीटों पर मराठा वोट निर्णायक माना जाता रहा है। मराठा समुदाय की मांग पर 1960 में महाराष्ट्र राज्य बना। महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री रहे यशवंतराव चव्हाण ने उस वक्त कहा था कि यह राज्य मराठी लोगों का है। यहीं से मराठा वर्चस्व की राजनीति की शुरुआत मानी जाती है। महाराष्ट्र के गठन के बाद से अब तक 12 मराठा मुख्यमंत्री हुए हैं। ब्राह्मण के तौर पर केवल दो मुख्यमंत्री- शिवसेना के मनोहर जोशी और भाजपा से देवेंद्र फडणवीस।
लेकिन आंदोलन का सामाजिक पहलू यह है कि मराठा समाज परंपरागत रूप से खेतिहर रहा है। उनका कहना है कि सूखे और खेती में नुकसान के कारण वे बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं। दावा है कि आत्महत्या करने वाले किसानों में सबसे ज्यादा संख्या मराठों की है, इसलिए उन्हें भी आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए। राज्य सरकार ने हाल ही में 72 हजार पदों पर बहाली का विज्ञापन निकाला है और मराठा इसमें आरक्षण की मांग कर रहे हैं। मराठा समाज शिक्षा में भी आरक्षण चाहता है। आंदोलन तेज होने के साथ ही इसका राजनीतिक पहलू सामने आने लगा है। आंदोलन से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) फायदे की उम्मीद कर सकती है। सबसे ज्यादा मराठा समाज के लोग पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा में रहते हैं जहां उनका जनाधार माना जाता है। एनसीपी नेता शरद पवार ने कहा कि आरक्षण के मुद्दे पर मराठा विधायक इस्तीफा दे रहे हैं। दरअसल, 2014 में मोदी लहर में शरद पवार का किला धराशाई हो गया था। वह इस आंदोलन के जरिये अपनी जमीन वापस पाने की कोशिश में हैं।
मराठा समुदाय को कोई राजनीतिक दल नाराज नहीं करना चाहता है, लेकिन कानूनी प्रावधान है कि 16 प्रतिशत आरक्षण कोई भी अदालत मंजूर नहीं करेगी। ऐसी स्थिति में लोकसभा में बहुमत हासिल की हुई भाजपा को संसद में संविधान की धाराओं में परिवर्तन करना होगा।
क्या यह आंदोलन और हिंसक होकर अपने रास्ते से भटक तो नहीं जाएगा, क्योंकि महाराष्ट्र के गांवों तक यह आग फैल चुकी है? महत्वपूर्ण है कि चुनावी वर्ष में मराठा आरक्षण आंदोलन अपनी निर्णायक मंजिल की ओर पहुंचने की कोशिश में है। 