किम का राजनयिक दांव

बनवारी
अगले कुछ सप्ताह में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और उत्तर कोरिया के सर्वोच्च नेता किम जोंग उन की शिखर वार्ता प्रस्तावित है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा है कि इस शिखर के स्थान और तिथियों के बारे में निर्णय किया जा चुका है। हालांकि अभी न अमेरिका ने यह बताया है कि वह स्थान और तिथियां क्या हैं और न उत्तर कोरिया ने। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि दोनों शिखर नेता उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच के असैन्यीकृत क्षेत्र में मिल सकते हैं या सिंगापुर में। दोनों के बीच शिखर वार्ता का निर्णय एक बहुत बड़ा कदम है। इसकी पहल किम जोंग उन की ओर से ही हुई है। उत्तर कोरिया के नेताओं को ऐसी पहल के लिए तैयार करने में चीन की कुछ भूमिका रही हो सकती है। लेकिन यह निश्चय ही किसी बाहरी दबाव में आकर लिया गया निर्णय नहीं है। यह उतना आकस्मिक और विलक्षण भी नहीं है, जितना बताया जा रहा है। उत्तर कोरिया अब तक जो कुछ भी करता रहा है, यह उसी दिशा में अगला कदम है। अभी इसकी सफलता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि कोरिया की समस्या से अब तक जुड़े रहे सभी देशों के अपने अलग-अलग लक्ष्य हैं।
उत्तर कोरिया की यह पहल आकस्मिक और विलक्षण इसलिए लगती है कि कुछ समय पहले तक अमेरिकी राष्ट्रपति और कोरिया के नेताओं में वाकयुद्ध छिड़ा हुआ था। दोनों एक-दूसरे को नष्ट कर देने की धमकियां दे रहे थे। लेकिन उत्तर कोरिया के नाभिकीय कार्यक्रम की सफल परिणति के बाद सभी यह जानते थे कि दोनों के बीच युद्ध अब एक विकल्प नहीं रह गया है। पिछले वर्ष नवंबर में अपने छठे नाभिकीय परीक्षण के बाद उत्तर कोरिया को एक नाभिकीय शक्ति माना जाने लगा था। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की यह घोषणा धरी रह गई थी कि वे उत्तर कोरिया को नाभिकीय शक्ति नहीं बनने देंगे। अमेरिका उत्तर कोरिया पर आर्थिक प्रतिबंध बढ़ाता रहा। लेकिन उत्तर कोरिया जब तक अपनी नाभिकीय क्षमता के बारे में आश्वस्त नहीं हो गया, उसने आर्थिक प्रतिबंधों की परवाह नहीं की। उस पर दबाव बनाने की मुहिम में अंत में चीन को भी विवश होकर पश्चिमी शक्तियों का साथ देना पड़ा था। लेकिन अपनी तमाम आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उत्तर कोरिया ने एक नाभिकीय शक्ति बनने का लक्ष्य पूरा कर लिया। अब उस दिशा में कुछ और करने के लिए नहीं रह गया है। इसलिए उसने आगे नाभिकीय परीक्षण न करने और इसके लिए बने प्रतिष्ठान को ढहाने की घोषणा कर दी। उसका तात्कालिक लक्ष्य उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच सहयोग का रास्ता खोलना और अपने ऊपर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को हटवाना है।
प्रस्तावित शिखर वार्ता में अमेरिकी और उत्तर कोरियाई लक्ष्य क्या होंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। अमेरिका जानता है कि किम जोंग उन ने अपने नाभिकीय कार्यक्रम पर रोक लगाने की घोषणा की है। अपने नाभिकीय हथियारों के भंडार को समाप्त करने की घोषणा नहीं की। अमेरिकी राष्ट्रपति पर इस बात का दबाव होगा कि वे किम जोंग उन को अपने नाभिकीय भंडार को समाप्त करने के लिए कहें। लेकिन अमेरिकी प्रतिष्ठान यह जानता है कि इसे वार्ता की सफलता का केंद्रीय बिंदु नहीं बनाया जा सकता। वह केवल उनका दीर्घकालिक लक्ष्य हो सकता है। उत्तर कोरिया किसी भी हालत में अपने नाभिकीय भंडार को समाप्त करने के लिए तैयार नहीं होगा, जिसे उसने सभी तरह की आर्थिक कठिनाइयां झेलते हुए विकसित किया है। अभी किम जोंग उन ने केवल इतना कहा है कि जब डोनाल्ड ट्रम्प उनसे मिलेंगे तो उन्हें यह समझ में आ जाएगा कि हम अमेरिका पर नाभिकीय हमला करने की तैयारी में लगे लोग नहीं हैं। अगर अमेरिका उत्तर कोरिया पर आक्रमण न करने का वचन दे तो इन हथियारों की उपयोगिता अपने आप समाप्त हो जाएगी।
किम जोंग उन के इस वक्तव्य की पूरी पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना आवश्यक है। कोरिया लंबे समय से विदेशी अधीनता में पड़ा हुआ था। 1945 के महायुद्ध में जापान की पराजय के बाद कोरिया के जापानी नियंत्रण से मुक्त होने की स्थिति बनी थी। जापान के आधिपत्य के समय कोरिया में जो क्रांतिकारी संगठन सक्रिय थे, उनमें उत्तर कोरिया में सक्रिय संगठनों के तार रूस और चीन से जुड़े हुए थे और दक्षिण कोरिया में सक्रिय संगठनों को अमेरिका से सहायता मिल रही थी। 1945 में अमेरिका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी पर नाभिकीय बम गिराने के बाद जापान की पराजय लगभग निश्चित हो गई थी। इस अवसर का लाभ उठाकर रूस ने कोरिया पर आक्रमण कर दिया। अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद रूस कोरिया के विभाजन पर सहमत हो गया। उत्तर कोरिया कम्युनिस्ट नेताओं के नियंत्रण में आ गया और दक्षिण कोरिया में अमेरिका समर्थित सरकार बनी। उत्तर कोरियाई नेता पूरे कोरिया को साम्यवादी नियंत्रण में देखना चाहते थे। 1950-53 के बीच का युद्ध इसी का परिणाम था। वह अनिर्णित रहा, युद्धविराम के लिए दोनों पक्ष तैयार हुए लेकिन कोई शांति समझौता नहीं हुआ।
कोरिया युद्ध के बाद उत्तर कोरियाई नेताओं ने अपना सारा तंत्र सैनिक तैयारी में लगाए रखा है जबकि दक्षिण कोरिया अमेरिकी बाजार मिलने के कारण आर्थिक संपन्नता की ओर बढ़ता रहा है। दोनों की दिशाएं अलग होने के बावजूद उत्तर कोरिया अभी भी कोरिया के एकीकरण का सपना संजोए है। 1950 में उत्तर कोरिया ने सैनिक अभियान से दक्षिण कोरिया को अपने में मिलाने की कोशिश की थी। इसलिए इस आशंका ने इस क्षेत्र में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति बनाए रखी है। दूसरी तरफ उत्तर कोरिया को यह आशंका रही है कि अमेरिका अपनी कम्युनिस्ट विरोधी नीति के कारण उस पर आक्रमण कर सकता है। अमेरिका से सुरक्षा का उसे एक ही उपाय दिखाई दिया कि वह एक नाभिकीय शक्ति बन जाए। अमेरिका उसे नाभिकीय शक्ति बनने से रोकने की निरंतर कोशिश करता रहा।
उत्तर कोरिया को अपनी आर्थिक और सामरिक तैयारी में सोवियत रूस से सहायता मिलती रही थी। 1990 में सोवियत संघ बिखरने और शीत युद्ध समाप्त होने के बाद रूस ने उत्तर कोरिया की सहायता से अपने हाथ खींच लिए। इसने अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच राजनयिक समझौते का रास्ता खोला। दोनों के बीच यह समझौता हुआ कि उत्तर कोरिया अपना नाभिकीय कार्यक्रम केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों तक सीमित रखेगा। बदले में अमेरिका उसे इस निमित्त न केवल सहायता देगा, बल्कि उस पर लगे आर्थिक नियंत्रण भी उठा लिए जाएंगे। राष्ट्रपति क्लिंटन के समय हुए इस समझौते पर अमेरिकी टिके नहीं। 2001 में अमेरिका पर आतंकी हमले के बाद राष्ट्रपति बुश ने न केवल समझौते से हाथ खींच लिया बल्कि उत्तर कोरिया को एक्सिस आॅफ इविल घोषित कर दिया। 2003 में इराक पर हुए हमले और सद्दाम हुसैन की क्रूरतापूर्वक मृत्यु ने उत्तर कोरियाई नेताओं को आशंकित कर दिया। 2006 में उन्होंने नाभिकीय शक्ति बनने का अभियान शुरू कर दिया।
यह मामूली बात नहीं है कि कमजोर आर्थिक स्थिति और सीमित औद्योगिक तंत्र के बावजूद उत्तर कोरिया बिना किसी बाहरी मदद के एक नाभिकीय शक्ति बनने में सफल रहा है। पाकिस्तान का नाभिकीय कार्यक्रम अमेरिकी मदद से शुरू हुआ था। लेकिन उसकी सभी उपलब्धियां सीधे-सीधे चीन की देन हैं। पर उत्तर कोरिया की उपलब्धियां उसके संकल्प का परिणाम हैं। उसका नाभिकीय भंडार बड़ा नहीं है। विशेषज्ञों का कहना है कि उसके पास प्लूटोनियम के दस और यूरेनियम के 12 से 27 नाभिकीय हथियार हो सकते हैं। लेकिन उसके पास विभिन्न श्रेणियों के लगभग एक हजार प्रक्षेपास्त्र हैं। उत्तर कोरिया की सबसे बड़ी सफलता यह है कि उसने अपने अल्प साधनों के बावजूद अमेरिका तक पहुंच रखने वाले अंतरमहाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र विकसित कर लिए हैं। लेकिन यह नाभिकीय भंडार उसने आत्मरक्षा के लिए ही विकसित किया है। उसके आधार पर वह अमेरिका से युद्ध छेड़ने या युद्ध जीतने की आकांक्षा नहीं रख सकता। आत्मरक्षा का यह कवच हासिल कर लेने के बाद उसका लक्ष्य स्थिति सामान्य करना और अपने तेज आर्थिक विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाना हो गया है। उसका दीर्घकालिक लक्ष्य इस क्षेत्र से अमेरिकी सेना की विदाई और कोरिया का एकीकरण है। चीन उत्तर कोरिया की पीठ पर हाथ अवश्य धरे रहा है, लेकिन वह भी उत्तर कोरिया के नाभिकीय कार्यक्रम से प्रसन्न नहीं था। उसके दो स्पष्ट कारण थे। पहला यह कि इससे अमेरिकी सेना को इस क्षेत्र में बने रहने का आधार मिलता है। दूसरा यह कि उत्तर कोरिया का नाभिकीय कार्यक्रम दक्षिण कोरिया और जापान को भी इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए विवश कर सकता है। अब तक ये दोनों देश इस अमेरिकी आश्वासन पर ही निर्भर रहे हैं कि उन पर कोई हमला हुआ तो अमेरिका अपनी पूरी सामरिक शक्ति के साथ उनकी रक्षा करेगा। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनते ही यह कहना आरंभ कर दिया था कि दुनिया की चौकीदारी करना अमेरिका के लिए भारी पड़ रहा है। अन्य देशों को भी इस दायित्व में हाथ बंटाना चाहिए। यह इशारा यूरोपीय शक्तियों को तो था ही, जिन्हें नाटो पर होने वाले खर्च का बोझ बांटने के लिए कहा जा रहा था, साथ ही साथ दक्षिण कोरिया और जापान को भी चेतावनी थी कि वे अनंतकाल तक अमेरिकी रक्षा कवच पर निर्भर नहीं रह सकते। इसके बाद ही विशेषकर जापान ने अपने आपको नाभिकीय शक्ति बनाने की दिशा में सोचना आरंभ किया था।
अमेरिका के लिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या कोरियाई एकीकरण की दिशा में आगे बढ़ेंगे। अगर वे एकीकरण की दिशा में बढ़ते हैं तो क्या वह वियतनाम की तरह का होगा या जर्मनी की तरह का। उत्तर कोरिया का नाभिकीय भंडार अमेरिका के लिए कोई खतरा नहीं है। लेकिन दक्षिण कोरिया और जापान के लिए उत्तर कोरिया के नाभिकीय हथियार निरंतर चुनौती बने रहेंगे। दरअसल दक्षिण कोरिया के नेता सदा इस आशंका से ग्रस्त रहे हैं कि अगर उत्तर कोरिया ने फिर उस पर हमला किया तो क्या होगा। इस चिंता को दूर करने के लिए ही वे उत्तर कोरिया से अपने संबंध सामान्य करने की कोशिश करते रहे हैं। दक्षिण कोरिया का वर्तमान नेतृत्व इसके लिए विशेष रूप से सक्रिय रहा है। दक्षिण कोरिया के नेताओं का मानना है कि अगर उत्तर कोरिया से आर्थिक सहयोग बढ़ता है तो युद्ध की आशंका कम होगी। दूसरी तरफ ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो इस आशावाद से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि उत्तर कोरिया ने अपनी पूरी आबादी का सैन्यीकरण कर रखा है। सहयोग से उसके इस निरंकुश सैनिक तंत्र को आर्थिक रूप से मजबूत होने में सहायता मिलेगी और अंतत: उत्तर कोरिया दक्षिण कोरिया के लिए बड़ी चुनौती बन जाएगा। बहरहाल यह प्रक्रिया लंबी चलने वाली है। दोनों देशों के लोग दो भिन्न प्रकार की जीवनशैली के अभ्यस्त हो गए हैं। इसलिए दोनों देशों के बीच सहयोग की संभावना पैदा होते ही एकीकरण की शक्तियां सक्रिय नहीं हो जाएंगी। न वियतनाम की तरह उत्तर कोरिया के लिए यह संभव है कि वह बलपूर्वक दक्षिण कोरिया को अपने में मिला ले और न उत्तर कोरिया के लोग पूर्वी जर्मनी के लोगों की तरह कम्युनिस्ट शासन की किलेबंदी तोड़कर दक्षिण कोरिया में आत्मसात होने की जल्दी करेंगे। वे चाहें भी तो उत्तर कोरियाई सैनिक तंत्र इसकी गुंजाइश नहीं छोड़ेगा।
चीन का प्राथमिक लक्ष्य अमेरिका को इस क्षेत्र से विदा होने के लिए विवश करना है। अभी अमेरिका ने घोषणा की है कि वह दक्षिण कोरिया से अपने सैनिक वापस नहीं बुलाने जा रहा। लेकिन अगर उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच कोई विश्वसनीय शांति समझौता हो जाता है तो क्या अमेरिका पर अपने सैनिक वापस लौटाने का आंतरिक दबाव नहीं बढ़ेगा? हालांकि ऐसा सोचना अभी तो नादानी भरा ही लगता है। अमेरिका के दुनियाभर में सैनिक अड्डे हैं और अपनी सामरिक शक्ति के इस विश्वव्यापी विस्तार पर ही उसकी आर्थिक समृद्धि टिकी हुई है। उसके व्यापारिक साम्राज्य को बनाए रखने के लिए उसकी सार्वत्रिक सामरिक उपस्थिति आवश्यक है। विशेष रूप से इस पूरे क्षेत्र में जहां चीन सामुद्रिक व्यापार पर नियंत्रण की तैयारी में लगा है। दक्षिण चीनी समुद्र के विवादग्रस्त द्वीपों पर जिस तरह वह नियंत्रण करने और उन्हें अपने सामरिक अड्डे बनाने में लगा है, उससे इस क्षेत्र के सभी देश चिंतित हैं। भारत की अभी कोरिया समस्या को सुलझाने में कोई भूमिका भले न हो, पर डोनाल्ड ट्रम्प और किम जोंग उन की इस शिखर वार्ता पर उसकी टकटकी भी लगी रहेगी। भारत की दिलचस्पी हिंद-प्रशांत समुद्री व्यापार मार्ग को निर्बाध बनाए रखने में है। वह नहीं चाहेगा कि इस क्षेत्र में अमेरिकी उपस्थिति घटे और चीन का दबदबा बढ़े।
इस प्रस्तावित शिखर वार्ता से तुरंत किसी बड़ी उपलब्धि की आशा किसी को नहीं है। लेकिन उससे किसी सैनिक हस्तक्षेप की आशंका घटेगी। शिखर वार्ता की पहल करके किम ने एक बड़ा राजनयिक दांव चला है। इसका फायदा भी सबसे अधिक उत्तर कोरिया को ही होने वाला है। किम ने नाभिकीय कार्यक्रम स्थगित करने, नाभिकीय परीक्षण का तंत्र ढहाने और दक्षिण कोरिया से सहयोग का रास्ता खोलने की घोषणा करके अमेरिका को इस बात के लिए विवश कर दिया है कि वह शिखर वार्ता में सकारात्मक रुख अपनाए। वरना किम की जगह अब अमेरिका खलनायक बन जाएगा। किम के इस राजनीतिक दांव से यह भी सिद्ध हो गया है कि उन्हें अब तक जिस तरह का नादान और निरंकुश नेता चित्रित किया जाता रहा था, वह गलत था। किम एक परिपक्व और चतुर खिलाड़ी है और पहली बाजी उनके हाथ में दिखाई दे रही है। 

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