उमेश चतुर्वेदी

सांस्कृतिक भारत की शिक्षा का आधार वे गुरुकुल रहे हैं, जहां शिक्षार्थी के लिए सुख सुविधाओं की बजाय तपस्वी-सा जीवन जीना पड़ता था। बेशक आज के दौर में वैसे गुरुकुल संभव नहीं हैं, लेकिन उनमें चहुंमुखी ज्ञान की जो अजस्र धारा बहती थी, उसको आज के दौर में जिंदा करने की कोशिशें जारी हैं। देश के कई राज्यों में बाकायदा गुरुकुल चल रहे हैं, जहां आधुनिक के साथ ही पारंपरिक शिक्षा-दीक्षा दी जा रही है। इन्हीं गुरुकुलों को एक मंच पर लाने और उनकी तरफ दुनिया का ध्यान दिलाने के लिए 28 से 30 अप्रैल तक उज्जैन के महर्षि संदीपनी राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान में गुरुकुल सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसे मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग और भारतीय शिक्षण मंडल ने संयुक्त रूप से आयोजित किया था। मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग के प्रमुख सचिव अमिताभ श्रीवास्तव का कहना था कि भारतीय मनीषा की प्रखर मेधा के पीछे कहीं न कहीं यह गुरुकुल पद्धति रही है, इसलिए इस सम्मेलन के जरिये दुनिया को यह बताने की कोशिश की गई कि भारतीय शास्त्रीय पद्धतियों को दकियानूसी समझने की बजाय लोग उसकी ताकत को भी समझें।

इस कार्यक्रम के आलोचक इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदुत्ववादी विचारधारा को बढ़ावे की रणनीति के तौर पर देखते हैं। हालांकि खुलकर ऐसे सवाल नहीं उठाए गए। अतीत में जब वैदिक गणित को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की पहली सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने पाठ्यक्रम में शामिल किया था, तब कांग्रेस और वामपंथियों व समेत समूचे विपक्ष ने शिक्षा के भगवाकरण का आरोप लगाते हुए तत्कालीन सरकार का हर मंच से विरोध किया था। भारतीय शिक्षण मंडल के संगठन मंत्री मुकुल कानितकर के सामने जब यह सवाल रखा गया कि अगर वैदिक गणित की तरह गुरुकुल शिक्षा पद्धति का भी जोरदार विरोध होगा तो मंडल की क्या रणनीति होगी? सवाल सुनते ही कानितकर मुस्करा पड़े। उनका कहना था कि जो असहमत होंगे या हैं, उन्हें हम गुरुकुल पद्धति की विशेषताएं बताते हुए मनाने की कोशिश करेंगे।

गुरुकुल सम्मेलन का उद्घाटन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन राव भागवत ने किया। उन्होंने गुरुकुल शिक्षा पद्धति की विशेषताएं गिनाते हुए कहा, ‘गुरु के साथ वास और उनके वात्सल्य में पलना-बढ़ना, समझना और आचरण करना गुरुकुल परंपरा की आत्मा है। गुरुकुल पद्धति ही एक मात्र पद्धति है, जिसमें शिक्षा को समग्र रूप से मानव विकास के लिए दिया जाता है।’ इस मंच पर मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ ही केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलौत और सत्यपाल सिंह समेत कई संत भी मौजूद रहे। बेशक गुरुकुल पद्धति को प्रचलित करना आसान नहीं है। लेकिन प्रकाश जावड़ेकर का यह कहना ही इस योजना के प्रति सरकार की धारणा को जाहिर करता है कि वह गुरुकुल शिक्षा पद्धति को लेकर भविष्य में कैसे कदम उठाएगी। गुरुकुल शिक्षा पद्धति के बारे में माना जाता है कि वह व्यक्ति के सर्वांगीण विकास पर ध्यान देती है। प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, ‘सरकार ऐसी शिक्षा को प्रोत्साहित करना चाहती है जिससे लोग अच्छे बनें। अच्छी शिक्षा का मतलब सिर्फ जानकारी पाना नहीं है। अच्छी शिक्षा का उद्देश्य समझने और समझाने की कला का विकास होना चाहिए।’

लेकिन क्या यह इतना आसान है? वैसे इस सम्मेलन में जिस तरह लोगों की भीड़ जुटी, वह आयोजकों को उत्साहित करने के लिए काफी थी। इसमें भूटान, म्यांमार, थाईलैंड, सिंगापुर, श्रीलंका, त्रिनिदाद, मॉरीशस और नेपाल से भी गुरुकुल के छात्र और लोग शामिल हुए। करीब 3500 लोगों के शामिल होने की वजह से संदीपनी राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान मेले जैसा नजर आ रहा था। गुजरात, कर्नाटक, हरियाणा आदि के गुरुकुलों के आचार्य और छात्र इस कार्यक्रम में न सिर्फ शामिल हुए, बल्कि उन्होंने अपनी वेदविद्या, योग आदि का भी प्रदर्शन किया। इस दौरान गुजरात के दाहोद के एक गुरुकुल ने अपनी प्रदर्शनी लगा रखी थी। इस गुरुकुल में बिना बिजली और आधुनिक सुविधाओं के लोग रहते हैं, छात्र शिक्षा प्राप्त करते हैं और अन्न, दूध के साथ ही कपड़े का उत्पादन भी करते हैं। इसके कपड़े में लोगों की दिलस्पी खूब नजर आई।

भारतीय शिक्षण मंडल के मुताबिक देश में इन दिनों 2,638 गुरुकुल चल रहे हैं। इन गुरुकुलों में आधुनिक के साथ ही पारंपरिक सांस्कृतिक शिक्षा भी दी जा रही है। गुरुकुलों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें संस्कृत माध्यम से ही चलाया जाता है। लेकिन मुकुल कानितकर का कहना है कि ‘संस्कृत के साथ ही भारतीय भाषाओं के माध्यम से भी शिक्षा देने के लिए गुरुकुलों से प्रेरित किया जा रहा है।’ कानितकर के मुताबिक 2014 में भारतीय शिक्षण मंडल ने गृह गुरुकुल की शुरुआत की। भारतीय शिक्षण मंडल के गुरुकुल प्रकल्प के उपाध्यक्ष दीप कोइराला का कहना है कि ‘इन दिनों देश में गृह गुरुकुलों की संख्या 4000 के करीब हो गई है। उनकी योजना इसे दस लाख तक करने की है जिसमें वृहत् हिंदू समाज मसलन सिख, जैन और बौद्ध समुदाय को भी शामिल करना है। गृह गुरुकुल आश्रम पद्धति के गुरुकुल से अलग हैं। यानी ऐसे गुरुकुल किसी के घर में चलते हैं। कानितकर कहते हैं कि मौजूदा दौर में बच्चे को आश्रम पद्धति वाले गुरुकुल में शामिल करके बच्चों को घर से दूर रखना आसान नहीं है।

आलोचक इन गुरुकुलों की विस्तार योजना में भारतीय जनता पार्टी की पैठ बढ़ाने की योजना देखते हैं। देश में राजस्व विभाग के आंकड़ों के मुताबिक करीब छह लाख 40 हजार गांव हैं। जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना दस लाख गुरुकुल बनाने की है। यानी हर दो गांव के बीच तीन गुरुकुल। इससे भारतीय जनता पार्टी की पैठ दस लाख परिवारों तक तो हो ही जाएगी। लेकिन मुकुल कानितकर इसमें भारतीय जनता पार्टी के विस्तार की बजाय भारतीय शिक्षण व्यवस्था को स्थापित करने का मकसद देखते हैं।
इन गुरुकुलों के साथ सबसे बड़ी समस्या आधुनिक पाठ्यक्रम से जोड़ना और उनके यहां चल रहे पाठ्यक्रमों को मान्यता दिलाना है। कानितकर के मुताबिक मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों ने इनके पाठ्यक्रमों को मान्यता दे दी है। लेकिन केंद्रीय स्तर पर ऐसा नहीं हो पाया है। उनका कहना है कि ‘गुरुकुल पद्धति उनकी नजर में उस दिन ज्यादा कामयाब होगी, जिस दिन गुरुकुलों में आधुनिक आईटी की शिक्षा भी दी जाएगी। वैसे उनकी योजना ऐसी शिक्षा ही नहीं, एमबीए की पढ़ाई भी कराने की है।’

गुरुकुल पद्धति की राह में सबसे बड़ी बाधा आचार्य यानी अध्यापकों की कमी है। इसका ध्यान भारतीय शिक्षण मंडल को है। इसलिए छह-छह महीने के लिए आचार्य प्रशिक्षण की व्यवस्था की जा रही है। इसे हर साल मई और अक्टूबर-नवंबर में आयोजित करने की योजना है। प्रायोगिक तौर पर मंडल आचार्य प्रशिक्षण के लिए शॉर्ट टर्म पाठ्यक्रम चला चुका है, जिसमें 132 लोग आए थे और प्रशिक्षित हो चुके हैं। कानितकर का कहना है कि अभी आचार्यों के लिए प्रतिष्ठा और रोजगार का साधन देने की चुनौती है। लेकिन उसे जल्द ही हासिल कर लिया जाएगा।

तीन दिनों के इस आयोजन का हासिल क्या रहा, इस बारे में मुकुल कानितकर का कहना है कि समग्र शिक्षा की इस पद्धति को लेकर लोगों में उत्सुकता बढ़ी है। कानितकर के मुताबिक इंडोनेशिया ने 15 गुरुकुल खोलने के लिए आचार्य मांगे हैं। इसके साथ ही बीस हजार परिवारों ने अपने बच्चों को आधुनिक स्कूलों से निकालकर गुरुकुलों में डालने का फैसला लिया है। तीन दिनों के सम्मेलन में जो साढ़े तीन हजार लोग शामिल हुए, उनमें 700 के करीब लोग ऐसे थे, जो या तो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करते हैं, या फिर किसी आईटी कंपनी में कार्यरत हैं। लेकिन उन्होंने गुरुकुल पद्धति में सेवा करने, आचार्य बनने आदि की इच्छा जाहिर की है। भारतीय शिक्षण मंडल के प्रचार प्रमुख देवेंद्र पवार कहते हैं कि यही हमारी उपलब्धि है।

मैकाले की शिक्षा नीति लागू होने के पहले तक भारतीय शिक्षा पद्धति समाज आश्रित और समाज केंद्रित थी। समाज अपनी शिक्षा, अपने शिक्षार्थियों और उनके गुरुओं की चिंता करता था। यह संबंध आर्थिक नहीं था। इसीलिए भारतीय शिक्षण पद्धति का डंका दुनिया में था। 1835 में बिलियम एडम ने बंगाल और बिहार के गांवों में शिक्षा की स्थिति को लेकर एक सर्वेक्षण किया था। उसने अपने प्रथम विवरण में लिखा था कि 1830 से 1840 के बीच बंगाल और बिहार के गांवों में एक लाख के लगभग पाठशालाएं थीं। चेन्नई प्रदेश के लिए भी ऐसा ही अभिमत टॉमस मनरो ने व्यक्त किया था। उसके अनुसार ‘वहां प्रत्येक गांव में एक पाठशाला थी’। इसी प्रकार मुंबई प्रेसीडेंसी के जी.एल. प्रेंटरगास्ट नामक वरिष्ठ अधिकारी ने लिखा कि ‘चाहे बड़ा हो या छोटा, यहां शायद ही कोई ऐसा गांव होगा, जिसमें कम से कम एक पाठशाला न हो।’ वे सब इसी गुरुकुल पद्धति की पाठशालाएं थीं, जिनके विद्यार्थियों के लिए शास्त्रीय पांच लक्षण निर्धारित थे। शास्त्रों में कहा गया है-

काक चेष्टा, बको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पहारी, गृहत्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणं।।

यानी विद्यार्थी को कौवे की तरह सचेष्ट और बगुले की तरह ध्यानी होना चाहिए। उसकी नींद ऐसी हो कि जैसे कुत्ते की होती है, यानी जल्द खुल जाए। उसे अल्पहारी और गृहत्यागी होना चाहिए। जाहिर है कि ऐसी शिक्षा मौजूदा व्यवस्था में संभव नहीं है।
वैसे भारत की परंपरा भी रही कि राजमहल से बच्चे गुरु की झोपड़ियों में पढ़ने जाते थे। तुलसी दास ने भी लिखा है- ‘गुरु गृह पढ़न गए रघुराई। अल्पकाल विद्या सब पाई।।’ लेकिन मैकाले के बाद स्थितियां बदल गर्इं। सरकार केंद्रित शिक्षा सिर्फ नौकरी का साधन बनती गई। शायद यही वजह है कि सम्मेलन के दूसरे दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह भैया जी जोशी ने लोगों से अपील की, ‘हमारी कोशिश होनी चाहिए कि समाज के लोग ही शिक्षा का पोषण करें। हमें सत्ता पर आश्रित न होकर स्वयं ही शिक्षा की स्वायत्तता के लिए काम करना होगा। समाज के लोगों को, शिक्षाविदों को आगे बढ़कर सहयोग करने की आवश्यकता है, ताकि शिक्षा स्वावलंबी हो सके, समृद्ध हो सके।’

मौजूदा पूरा माहौल चूंकि राजनीतिक ही हो चला है, हर कदम में राजनीति देखने के दौर में इस सम्मेलन के पीछे राजनीति ना देखा जाना ही हैरतनाक होगा। प्रेमचंद काफी पहले कह गए हैं कि साहित्य और संस्कृति राजनीति से आगे चलने वाली मशाल होती है। शिक्षा भी संस्कृति का ही अंग है। वह आगे चलेगी तो उसके पीछे उसी राजनीति को फायदा मिलेगा, जिसने उसका साथ दिया होगा। इससे भला कौन इनकार कर सकता है।