अनूप भटनागर

महज एक साल बाद 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर 32 साल पुराना 64 करोड़ रुपये का बोफोर्स तोप सौदा दलाली कांड सुर्खियों में आ गया है। राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील इस मामले के अब सुर्खियों में आने की वजह केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा दिल्ली हाई कोर्ट के मई 2005 के फैसले को 12 साल से भी अधिक समय बाद सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिया जाना है। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में हिंदुजा बंधुओं सहित सभी अरोपियों को आरोप मुक्त कर दिया था। इस फैसले के खिलाफ सीबीआई 15 सितंबर, 2005 तक सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर सकती थी, लेकिन तब उसने ऐसा नहीं किया था।
सीबीआई के इस निर्धारित समय सीमा के भीतर अपील दायर करने में विफल रहने पर वकील अजय अग्रवाल ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी। शीर्ष अदालत ने 18 अक्टूबर, 2005 को अग्रवाल की अपील विचारार्थ स्वीकार कर ली थी। इस अपील में अग्रवाल ने हिंदुजा बंधुओं के साथ सीबीआई को भी प्रतिवादी बनाया था। इसके बाद से यह मामला सुनवाई के लिए 27 बार सूचीबद्ध हुआ लेकिन इसमें कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। अजय अग्रवाल ने 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी को भाजपा उम्मीदवार के रूप में रायबरेली संसदीय क्षेत्र में चुनौती दी थी।
बोफोर्स तोप सौदा दलाली कांड की कहानी काफी उतार चढ़ाव वाली रही है। 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई कांग्रेस ने राजीव गांधी के नेतृत्व में 31 दिसंबर, 1984 को सरकार बनाई। राजीव गांधी सरकार ने भारतीय सेना की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए 24 मार्च, 1986 को 1,437 करोड़ रुपये की 155 एमएम की 500 हॉविट्जर तोपों की आपूर्ति के लिए स्वीडिश हथियार निर्माता कंपनी एबी बोफोर्स के साथ करार किया था। इस समझौते के मात्र एक साल बाद ही स्वीडिश रेडियो ने 16 अप्रैल, 1987 को अपनी एक खबर में दावा किया कि हथियार निर्माता कंपनी ने भारत के शीर्ष राजनीतिकों और रक्षा अधिकारियों को तोप के सौदे में दलाली दी है।
स्वीडिश रेडियो पर यह खबर प्रसारित होते ही भारत की राजनीति में तूफान आ गया। राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री रहे और फिर जनवरी, 1987 में रक्षा मंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सैन्य आपूर्ति में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई। इसी दौरान बोफोर्स तोप सौदे में दलाली के आरोप सुर्खियों में आ गए। इससे पहले कि विश्वानाथ प्रताप सिंह सरकार और पार्टी को नुकसान पहुंचा पाते, प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें बर्खास्त कर दिया। हालांकि इस दलाली कांड को लेकर उत्पन्न हुआ गतिरोध दूर करने के लिए संसद ने 6 अगस्त, 1987 को संयुक्त संसदीय समिति गठित की थी जिसने 18 जुलाई,1989 को अपनी रिपोर्ट संसद को सौंपी थी। लेकिन तब तक यह बहुत बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका था।
रक्षा सौदे में दलाली के मुद्दे पर सरकार से बाहर किए गए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे बहुत ही गंभीर मामला बताया और भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी अभियान छेड़ दिया। इसी मुद्दे पर हुए लोकसभा के चुनाव के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह दिसंबर, 1989 में प्रधानमंत्री बने। इसके बाद ही सीबीआई ने इस मामले में प्राथमिकी दर्ज की थी। राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील इस मामले में सीबीआई ने भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत आपराधिक साजिश, धोखाधड़ी और जालसाजी करने और भ्रष्टाचार निवारण कानून के तहत 22 जनवरी, 1990 को प्राथमिकी दर्ज की थी। इसमें एबी बोफोर्स कंपनी के तत्कालीन अध्यक्ष मार्टिन आर्दबो, हथियारों के दलाल विन चड्ढा और भारतीय मूल के ब्रिटिश उद्योगपतियों हिंदुजा बंधुओं के नाम थे। प्राथमिकी में आरोप लगाया गया था कि कुछ लोकसेवकों और निजी व्यक्तियों ने भारत और विदेश में 1982 से 1987 के दौरान आपराधिक साजिश रची और इसके अंतर्गत रिश्वत देने, भ्रष्टाचार करने, धोखाधड़ी और जालसाजी करने के अपराध किए।
जांच ब्यूरो ने नौ साल की जांच के बाद इस मामले में 22 अक्टूबर, 1999 को पहला आरोप पत्र दाखिल किया। इसमें विन चड्ढा, सोनिया गांधी के रिश्तेदार और व्यवसायी ओत्तावियो क्वात्रोकी, तत्कालीन रक्षा सचिव एसके भटनागर, मार्टिनो आर्दबो और बोफोर्स कंपनी को आरोपी बनाया गया था। इसके एक साल बाद नौ अक्टूबर, 2000 को सीबीआई ने पूरक आरोप पत्र दाखिल किया जिसमें हिंदुजा बंधुओं को आरोपी बनाया गया था। सीबीआई की जांच के दौरान ही क्वात्रोकी जुलाई, 1993 में भारत से भाग निकलने में कामयाब हो गया और इसके बाद वह मुकदमे का सामना करने के लिए कभी भारत नहीं लौटा। हालांकि 4 मार्च, 2011 को विशेष सीबीआई अदालत ने उसे इस मामले में आरोप मुक्त कर दिया था और इसके दो साल बाद ही 13 जुलाई, 2013 को इटली में उसकी मौत हो गई।
यह संयोग ही है कि रिश्वत और दलाली के इस सनसनीखेज मामले के प्रमुख आरोपियों विन चड्ढा, एसके भटनागर, मार्टिन आर्दबो के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का निधन हो चुका है। हालांकि सीबीआई के आरोप पत्र में आरोपियों में राजीव गांधी का नाम नहीं था परंतु उनके नाम का जिक्र अवश्य था। बाद में दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश जेडी कपूर ने 4 फरवरी, 2004 के अपने फैसले में राजीव गांधी को इस मामले से मुक्त कर दिया था। कई तरह के उतार चढ़ाव और कानूनी दांवपेचों से गुजरे बोफोर्स तोप सौदा दलाली कांड में अंतत: दिल्ली हाई कोर्ट के एक अन्य न्यायाधीश आरएस सोढ़ी ने 31 मई, 2005 को सीबीआई का यह मामला खत्म करते हुए हिंदुआ बंधुओं और बोफोर्स कंपनी को आरोप मुक्त कर दिया था। इसके बाद से इस मामले की जांच करने और मुकदमा चलाने वाली एजेंसी सीबीआई को आगे बढ़ने की अनुमति नहीं मिली। इस तरह सरकार के स्तर पर दलाली कांड से जुड़ी सारी गतिविधियां थम गई थीं।
लेकिन अजय अग्रवाल के अभियान के बीच ही अचानक 2 फरवरी, 2018 को सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर राजनीतिक हलचल बढ़ा दी। वैसे भी सीबीआई के अपील दायर करने से यह मामला बेहद दिलचस्प हो गया है क्योंकि शीर्ष अदालत ने अजय अग्रवाल की अपील पर अंतिम रूप से सुनवाई करने का निश्चय कर लिया था। इस नए घटनाक्रम में एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने 12 साल से अधिक समय के विलंब के मद्देनजर अपील दायर न करने की पहले सलाह दी थी। लेकिन सीबीआई द्वारा नए तथ्य और साक्ष्य पेश करने पर विधि अधिकारियों को लगा कि इनके मद्देनजर शीर्ष अदालत में अपील दायर की जा सकती है।
सीबीआई ने भले ही हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील दायर कर दी है लेकिन उसके लिए इसे दायर करने में 12 साल आठ महीने की देरी के बारे में शीर्ष अदालत को संतुष्ट करना बहुत बड़ी चुनौती होगी। हालांकि जांच ब्यूरो ने अपील दायर करने में देरी का ठीकरा कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार पर फोड़ते हुए दावा किया है कि वह तो हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देना चाहती थी लेकिन तत्कालीन सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। अब देखना यह है कि इस स्पष्टीकरण से क्या न्यायालय संतुष्ट होगा। ऐसा लगता है कि सीबीआई ने विलंब के सवाल पर किसी भी तरह की असहज स्थिति से बचने के इरादे से ही अपील में नए तथ्यों का सहारा लिया है। हाई कोर्ट का फैसला निरस्त करने का अनुरोध करते हुए जांच ब्यूरो ने नए तथ्यों के रूप में अंतरराष्ट्रीय निजी जासूसी फर्म के मुखिया माइकल हर्षमैन द्वारा एक इंटरव्यू में किए गए खुलासे को पेश किया है।
हर्षमैन ने एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में दावा किया था कि बोफोर्स तोप सौदे में दलाली की रकम के भुगतान से संबंधित महत्वपूर्ण सामग्री उसके पास है। इस बारे में जांच ब्यूरो का कहना है कि उसका बयान दलाली कांड की जड़ तक पहुंच रहा है। लेकिन हाई कोर्ट की वजह से इस मामले में आगे बढ़ने में दिक्कत आ रही है। जांच ब्यूरो इन नए तथ्यों के आलोक में सारे प्रकरण की जांच आगे बढ़ाना चाहती है। इसके लिए उसने निचली अदालत में अर्जी दायर की है।
बोफोर्स दलाली कांड को पूरी तरह से खत्म करने संबंधी फैसला सुनाने वाले न्यायमूर्ति आरएस सोढ़ी ने तो अपने निर्णय में सीबीआई को आडेÞ हाथ लेते हुए यहां तक कहा था कि तथ्य और पुख्ता साक्ष्यों के बगैर ही इस मामले की जांच पर 250 करोड़ रुपये बर्बाद कर दिए। अब यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि इस जांच पर 250 करोड़ रुपये खर्च होने का आंकड़ा कहां से आया। लंबे समय से बोफोर्स दलाली कांड को लेकर सुप्रीम कोर्ट में मोर्चा खोले वकील और अब भाजपा के नेता अजय अग्रवाल का दावा है कि इस जांच पर पांच करोड़ रुपये भी खर्च नहीं हुए थे। अग्रवाल का दावा है कि 21 मार्च, 2011 को सूचना के अधिकार कानून के तहत उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार 64 करोड़ रुपये की दलाली के इस मामले की जांच पर सिर्फ 4.77 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। अग्रवाल का आरोप है कि बोफोर्स मामले की जांच पर 250 करोड़ रुपये खर्च होने का आभास जांच ब्यूरो ने ही हाई कोर्ट को दिया था और इसी वजह से 31 मई, 2005 के आदेश में इस धनराशि का जिक्र हुआ। जबकि सूचना के अधिकार कानून के तहत उपलब्ध कराई गई जानकारी कुछ और ही तथ्य बयान करती है।
सूचना के अधिकार कानून के तहत उपलब्ध जानकारी के अनुसार बोफोर्स मामले की जांच के सिलसिले में विदेशों में 16,73,764 रुपये विशेष वकील और दूसरे कानूनी खर्चों पर दो करोड़ 84 लाख 34 हजार 361 रुपये और दस्तावेजों के अनुवाद कराने पर 25,57,225 रुपये खर्च हुए थे।
सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई की अपील दायर होने से एक दिन पहले अजय अग्रवाल ने न्यायालय में एक हलफनामा दायर कर आरोप लगाया कि हिंदुजा बंधुओं ने शीर्ष अदालत के साथ छल किया है। उनका दावा है कि हिंदुजा बंधुओं ने हाई कोर्ट के 4 फरवरी, 2004 के फैसले के खिलाफ 3 जुलाई, 2004 को सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की। फिर इसके दोष दूर करने के लिए एडवोकेट आॅन रिकार्ड ने इसे वापस लिया और फिर कभी इसे शीर्ष अदालत में दाखिल ही नहीं किया। यही वजह है कि न्यायालय की रजिस्ट्री इसे लंबित दर्शा रही है। अग्रवाल ने अपने हलफनामे में दावा किया है कि इसकी बजाय हिंदुजा बंधुओं ने हाई कोर्ट में उसी आदेश को वापस लेने और स्पष्टीकरण के लिए अर्जी दायर की जिसे उन्होंने शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी। हाई कोर्ट की एकल पीठ ने उसी अदालत के एक अन्य न्यायाधीश के आदेश को बदल दिया।
हलफनामे में इस तथ्य का भी जिक्र किया गया है कि एकल न्यायाधीश ने अपने आदेश में बोफोर्स दलाली कांड की जांच पर 250 करोड़ रुपये खर्च होने का उल्लेख किया है जबकि सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार इस पर 4.77 करोड़ रुपये ही खर्च हुए। अग्रवाल का आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट से छल करते हुए हिंदुजा बंधुओं ने सीबीआई के तत्कालीन अधिकारियों की मिलीभगत से अपने खिलाफ सारे आरोप निरस्त कराने का आदेश दिल्ली हाई कोर्ट से हासिल किया। अग्रवाल की अपील पर सुनवाई के दौरान 16 जनवरी को प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने जब उनसे कहा कि आपराधिक मामले में तीसरे पक्ष के रूप में याचिका दायर करने की अपनी स्थिति के बारे में वह न्यायालय को पहले संतुष्ट करें तो अग्रवाल ने एक पत्र लिखकर प्रधान न्यायाधीश से इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग करने का ही अनुरोध कर डाला। अग्रवाल ने प्रधान न्यायाधीश पर पूर्वाग्रह से पे्ररित होने का आरोप लगाया और कहा कि वह इस अपील के गुण दोष पर विचार किए बगैर ही उसे खारिज करना चाहते हैं।
बहरहाल, अचानक ही सीबीआई द्वारा 12 साल पुराने फैसले को चुनौती देने के बाद यह मामला फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है। अब देखना यह है कि अजय अग्रवाल की 12 साल से लंबित अपील और सीबीआई की अपील पर न्यायालय का क्या रुख होगा? क्या अपील दायर करने में इतने साल की देरी के बारे में दी गई सीबीआई की सफाई से अदालत संतुष्ट होगी और इस देरी को माफ कर देगी? 