राजीव थपलियाल

कभी अलग पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की मांग को लेकर दुनिया का सबसे बड़ा शांति आंदोलन करने वाला जनमानस एक बार फिर उबलने को तैयार है। इस बार गैरसैंण में स्थायी राजधानी बनाए जाने की मांग के समर्थन में लोग लामबंद होने लगे हैं। यदि पूरे माहौल पर नजर डालें तो नब्बे के दशक में ‘पृथक राज्य आंदोलन’ की तर्ज पर ‘गैरसैंण राजधानी निर्माण अभियान’ से जुटते लोग किसी व्यापक आंदोलन के मूड में हैं। अभी तक अलग-अलग संगठनों की ओर से गैरसैंण को लेकर हॉलों में गोष्ठियों व चिंतन शिविरों का आयोजन किया जाता रहा, लेकिन ताजा हालात में सभी संगठन एकजुट होने लगे हैं। बाकायदा गैरसैंण के रामलीला मैदान में बेमियादी धरना शुरू हो चुका है। हाड़ को फाड़ देने वाली ठंड और सरकारी तंत्र द्वारा तंग किए जाने के बावजूद आंदोलनकारी अपनी मांग पूरी कराए बिना पीछे हटने को राजी नहीं दिखते।

जनभावना का मुद्दा
नब्बे के दशक में जब उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक नए राज्य के गठन की मांग ने जोर पकड़ा था, तब गैरसैंण को राजधानी बनाए जाने का मुद्दा उसी समय समानांतर चल रहा था। नए राज्य के साथ ही लोग उसकी राजधानी की भी घोषणा किए जाने के पक्ष में थे। तत्कालीन उत्तर प्रदेश की गढ़वाल और कुमाऊ कमिशनरियों का सेंटर प्वाइंट गैरसैंण था। पहाड़ों के बीच मनोरम घाटी में रामगंगा के किनारे बसे गैरसैंण से गढ़वाल और कुमाऊ दोनों के सुदूर गांवों की दूरी करीब-करीब बराबर थी। उत्तर प्रदेश के पहाड़ी भूभाग को अलग राज्य बनाने की कल्पना को लेकर आंदोलन की नींव रखने वाले चिंतकों ने गैरसैंण को राजधानी बनाए जाने की मांग भी साथ ही रखी थी। बाद में राज्य तो बना, लेकिन अगली व्यवस्था तक देहरादून को अस्थायी राजधानी घोषित करते हुए तत्कालीन सरकार ने निजी सियासी हित के मद्देनजर जनभावना को दरकिनार कर दिया। राज्य आंदोलनकारी प्रकाश बुटोला ने कहा-9 नवंबर 2000 को राज्य का गठन हुआ था, तबसे लेकर आज तक उत्तराखंड के लोग सभी सियासी दलों और सरकारों से गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग करते आए हैं, लेकिन हर बार राजनीतिक कारणों से इस मांग को पूरा नहीं किया गया। उत्तरकाशी के पत्रकार सुरेंद्र पुरी ने कहा- अलग राज्य और उसकी गैरसैंण राजधानी सबकी भावनाओं से जुड़ गई थी। आज भी गैरसैंण उन्हीं जनभावनाओं से जुड़ा है। लंबे इंतजार के बाद यह जनभावना अब उफान लेने को बेताब है।

कश्मीर जैसी सियासत
राज्य आंदोलन के दौरान अपनी अच्छी खासी नौकरी को छोड़ने वाले धु्रव नारायण टोडरिया ने कहा कि गैरसैंण कश्मीर की तरह हो चुका है। जैसे कश्मीर के मसले को कोई हल नहीं करना चाहता, बस लटकाए रखो। कश्मीर पर सियासी जुमले उछालते रहो। सियासी दल विपक्ष में रहने पर गैरसैंण को राजधानी बनवाने का दावा करते नहीं थकते, लेकिन सत्ता में आते ही सौ बहाने शुरू कर देते हैं।
गैरसैंण में विधानसभा सत्र
पृथक राज्य आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले श्रीनगर वासी डॉ. युद्धवीर सिंह कंडारी के मुताबिक, कांग्रेस शासनकाल में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में विधानसभा सत्र की प्रथा शुरू की जो अब तक जारी है। इन सत्रों में सियासी नौटंकी सत्ता और विपक्ष दोनों ओर से होती है, लेकिन जनता को कुछ नहीं मिलता। अलग राज्य को लेकर अस्तित्व में आए उत्तराखंड क्रांति दल का रवैया भी निराशाजनक ही रहा। इस बार गैरसैंण में 7 दिसंबर से विधानसभा का शीतकालीन सत्र था। सब ओर से निराश कुछ लोगों ने इस बार गैरसैंण को लेकर सरकार पर दबाव बनाने की मंशा से रामलीला मैदान में भूख हड़ताल शुरू कर दी। दसअसल, गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाए जाने की मांग व इससे जुड़े जनसरोकारों को लेकर कुछ लोगों ने नैनीताल से जन जागरूकता रैली निकाली थी। राज्य के विभिन्न पहाड़ी जनपदों के नगरों में भम्रण के बाद ये गैरसैंण पहुंचे और गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाए जाने की मांग को लेकर भूख हड़ताल शुरू कर दी। सरकार ने जनता का रुख भांपते हुए सात दिवसीय सत्र को दो दिन में ही निपटा कर गैरसैंण से वापस देहरादून का रुख कर लिया। सरकारी रवैये से गुस्साए लोगों का जमावड़ा जब गैरसैंण में होने लगा तो सरकारी मशीनरी ने भूख हड़ताल तुड़वाने के लिए तंग करना शुरू कर दिया। इसी बीच तय हुआ कि गैरसैंण विधानसभा भवन पर प्रतीकात्मक रूप से ताला लगाकर जनता की राजधानी घोषित कर लिया जाए। आंदोलन को लेकर खुफिया रिपोर्टों से परेशान सरकार ने चार दिनों से गैरसैंण में भूख हड़ताल पर डटे आंदोलनकारियों को तड़के धरना स्थल से उठाकर करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर बेस चिकित्सालय श्रीनगर में भर्ती करा दिया। जहां आंदोलनकारी अस्पताल प्रशासन एवं पुलिस को चकमा देकर फरार हो गए। इसके बाद फरार आंदोलनकारियों ने श्रीनगर में जमकर बबाल काटा। अंतत: शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय को पहाड़ी की राजधानी पहाड़ में बनाने का ऐलान कर भूख हड़ताल तुड़वानी पड़ी।

लामबंदी और दमन
गैरसैंण से भले ही भूख हड़तालियों को सरकार ने हटाने में कामयाबी हासिल कर ली, लेकिन वहां दूसरे आंदोलनकारियों का बेमियादी धरना शुरू हो चुका है। आंदोलनकारी रामकृष्ण तिवाड़ी, महेश चंद्र पांडेय व विनोद जुगरान ने बताया कि राज्य सरकार पुलिस के दम पर उनके आंदोलन को कुचलने का प्रयास कर रही है। जब तक उत्तराखंड की स्थायी राजधानी गैरसैंण में नहीं बनाई जाती, वे अपने आंदोलन को समाप्त नहीं करेंगे।
वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल ने कहा कि किसी राज्य की विधानसभा, नीतिगत सवालों पर नीति, नियोजन के लिए होती है, लेकिन उत्तराखंड में यह चलन बन चुका है कि विधानसभा सत्र के नाम पर गैरसैंण में एक सालाना सैर-सपाटा होता है। पिछले साल से इस साल तक आते-आते अंतर केवल यह आया है कि बीते वर्ष कांग्रेस इस पिकनिक की मेजबान थी और इस बार मेजबान की भूमिका में भाजपा होगी। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के समय से जनता गैरसैंण को राज्य की स्थायी राजधानी बनाना चाहती थी। गैरसैंण में सत्र के नाम पर होने वाला यह सालाना सैर-सपाटा एक तरह से उस मांग का मखौल उड़ाना है। इंद्रेश मैखुरी ने कहा कि गैरसैंण में स्थायी राजधानी बने यह सवाल महत्वपूर्ण है, लेकिन सत्ता में बैठने वालों की मंशा इस सवाल को हल करने की नहीं है, जो सरकार गैरसैंण में सत्र को अपनी उपलब्धि के तौर पर दर्शाना चाहती है, उसी के एक मंत्री-प्रकाश पन्त कह रहे हैं कि गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने का सरकार के पास कोई प्रस्ताव नहीं है। मंत्री जी यह भी बता देते कि यह प्रस्ताव उनके पास आना कहां से था? 1994 की कौशिक समिति से लेकर 2008 के दीक्षित आयोग तक तो जनता ने गैरसैंण के पक्ष की ही बात की थी। वैसे मंत्री जी को यह भी बताना चाहिए था कि जब शराब की दुकानें राष्ट्रीय राजमार्ग पर खुलवाने, उनकी सरकार उच्चतम न्यायालय में फैसला बदलवाने गई तो वह प्रस्ताव किसका था? कैबिनेट मंत्री सुबोध उनियाल खुद 1100 गांवों के वीरान होने की बात कह रहे हैं। राज्य के लोगों में मुख्यमंत्री के इस बयान से भी रोष पनपा कि सरकार गैरसैंण में खर्च करने की स्थिति में नहीं है। मैखुरी ने कहा कि जो राज्य 40 हजार करोड़ रुपये के कर्जे में हो, जिस राज्य में स्थायी रोजगार के बजाय ठेके का रोजगार इस तर्क के साथ दिया जा रहा हो कि स्थायी कर्मचारियों को वेतन देने लायक माली हालत राज्य सरकार की नहीं है। जहां सरकार, शराब वालों के पक्ष में इस तर्क के साथ खड़ी हो जाती हो कि शराब नहीं बिकेगी तो राज्य कैसे चलेगा। वह राज्य न तो मंत्रियों-विधायकों और अफसरों की यह सालाना पिकनिक झेल सकता है, न ही दो राजधानियां। जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाना ही होगा। 