अभिषेक रंजन सिंह ।
पिछले दिनों समाजवाजी चिंतक व राजनेता मधु लिमये की 95वीं सालगिरह पर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में कई वामपंथी और समाजवादी नेताओं ने एक बार फिर मंच साझा किया। मधु लिमये की जयंती तो बस एक बहाना था। असल में इस कार्यक्रम का मकसद साल 2019 के लोकसभा और जुलाई में होने राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनावों के मद्देनजर विपक्षी पार्टियों को एनडीए के खिलाफ एकजुट करना था। विपक्षी पार्टियां इसी बहाने भाजपा की जीत का सिलसिला रोकना चाहती हैं।
दिवंगत समाजवादी नेताओं की याद में ही सही वामपंथी नेताओं की आमद समाजवादी मंचों पर होती रही है। 27 अक्टूबर 2012, दिल्ली का वही कांस्टीट्यूशन क्लब! मौका था समाजवादी लेखक-पत्रकार मस्तराम कपूर की किताब ‘लोकसभा में लोहिया’ के लोकार्पण का। उस कार्यक्रम में तब गैर कांग्रेस-गैर भाजपा विकल्प पर मंथन किया जा रहा था। इन नेताओं ने मुलायम सिंह यादव को संभावित तीसरे मोर्चे के गठन की कमान संभालने का आग्रह किया था। उस कार्यक्रम में मुलायम सिंह यादव के अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दिवंगत नेता एबी बर्द्धन, डी राजा, तेलुगूदेशम पार्टी संसदीय दल के नेता नागेश्वर राव, फारवर्ड ब्लॉक के नेता देवव्रत विश्वास, प्रो. आनंद कुमार और तत्कालीन इंडियन जस्टिस पार्टी के नेता और अब भाजपा सांसद उदित राज ने भी देश को गैर कांग्रेस-गैर भाजपा विकल्प देने की बात कही थी। हालांकि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का कोई भी नेता उस कार्यक्रम में शामिल नहीं था।
कंस्टीट्यूशन क्लब में जिन लोगों ने पांच साल पहले वामपंथी और समाजवादी नेताओं के भाषण सुने होंगे, उन्हें मधु लिमये की जयंती पर नेताओं के सुर में कई बदलाव देखने को मिल रहे होंगे। मिसाल के तौर पर उस कार्यक्रम में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दिवंगत नेता एबी बर्द्धन एवं डी राजा जैसे नेताओं ने संभावित तीसरे मोर्चे का कुनबा बढ़ाने और उसकी अगुवाई करने की अपील मुलायम सिंह यादव से की थी। मुलायम सिंह ने भी उन दिनों कहा था कि देश में अच्छे हालात नहीं हैं। कांग्रेस ने जनता से जो वादे किए थे, वे आज तक पूरे नहीं हुए।
मधु लिमये की 95वीं जयंती पर कई खास बातें देखने को मिलीं। मसलन, पांच साल पहले हुए समाजवादी और वामपंथी नेताओं के जुटान में देश को गैर कांग्रेस और गैर भाजपा विकल्प देने की बातें हुई थीं, लेकिन मधु लिमये की जयंती पर आगामी चुनावों के मद्देनजर विपक्षी दलों के साथ मिलकर महागठबंधन की चर्चाएं हुर्इं। मंच पर मौजूद लोगों में भी कई बदलाव देखे गए। ‘लोकसभा में लोहिया’ किताब के विमोचन कार्यक्रम में मुलायम सिंह यादव को तीसरा मोर्चा बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी।
वही मुलायम सिंह यादव इस कार्यक्रम में नजर नहीं आए। साथ ही समाजवादी पार्टी से भी कोई नुमाइंदा नजर नहीं आया। राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी अजित सिंह आए तो, लेकिन कार्यक्रम खत्म होने से पहले ही रुखसत हो गए। पांच साल पहले हुए कार्यक्रम में सीपीएम का कोई नेता नहीं आया था, लेकिन मधु लिमये की जयंती में सीताराम येचुरी न सिर्फ पूरे कार्यक्रम में सक्रिय दिखे, बल्कि अपने भाषण में उन्होंने इशारों-इशारों में शरद यादव को विपक्षी दलों की तरफ से राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किए जाने के संकेत दे दिए। सीताराम येचुरी को वैसे भी इन दिनों कांग्रेस की जरूरत अधिक है। ऐसा क्यों है? यह सभी जानते हैं। इस कार्यक्रम में एक और खास बात दिखी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की मौजूदगी। अपने भाषण में दिग्विजय सिंह बार-बार दलील दे रहे थे कि समाजवादी और कांग्रेस के बीच उतने वैचारिक मतभेद नहीं हैं जितना कि दुष्प्रचार किया जाता है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और सीपीएम नेता चाहे जो कहें, लेकिन इस सच्चाई को भला कौन झुठला सकता है कि वामपंथियों ने डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के खिलाफ विषवमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वामपंथी ने तो डॉ. लोहिया को नाजीवाद और एडोल्फ हिटलर से प्रभावित व्यक्ति तक कह चुके हैं।
मधु लिमये की जयंती समारोह में मौजूद ज्यादातर श्रोता वही थे, जो पांच साल पहले मस्तराम कपूर की किताब लोकसभा में लोहिया के विमोचन में आए थे। वामपंथी-समाजवादी नेताओं के भाषणों के बीच श्रोता भी आपस में कानाफूसी करते रहे। दरअसल उन्होंने पांच साल पहले भी तीसरे मोर्चे की कथित कवायद के बारे में इन्हीं नेताओं का भाषण सुना था। लेकिन उसका नतीजा निकला सिफर। भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे की संभावना जनता पार्टी के प्रयोग की असफलता के बाद लगातार बनी रही। 1989 में वामपंथी दलों और भाजपा के समर्थन से राष्ट्रीय मोर्चा बना। उसके बाद 1996 में संयुक्त मोर्चा। हालांकि केंद्र की राजनीति में ये दोनों प्रयोग बहुत ज्यादा सफल साबित नहीं हुए। तीसरे मोर्चे की राजनीति उभरने से पहले ही काल-कलवित हो गई। यही वजह है कि देश की राजनीति में तीसरा मोर्चा कहीं का र्इंट कहीं का रोड़ा बनकर रह गया।
जब भी इसकी जरूरत महसूस होती है, उस समय तीसरे मोर्चे के अवशेषों की तलाश की जाती है। वहीं समाजवादी और वामपंथी पार्टियां आज भी धर्मनिरपेक्षता की दरक चुकी नाव को थामने की कोशिश कर रही हैं। कुल मिलाकर मधु लिमये की जयंती के बहाने समाजवादियों और वामपंथियों के बेमेल गठबंधन की कवायद फिर शुरू हुई है। लेकिन अंदरुनी खबर यह है कि मधु लिमये की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम का असल मकसद राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष का साझा उम्मीदवार उतारने को लेकर सहमति बनाना था।