छत्तीसगढ़- लाल आतंक का कोहराम

रमेश कुमार ‘रिपु’
छत्तीसगढ़ एक बार फिर लाल आतंक के कोहराम से दहल गया। 11 मार्च को सुकमा के कोताचेरू में माओवादी हमले में 12 जवान शहीद हुए थे। उस वक्त भी माओवादियों का मुंहतोड़ जवाब देने की बात गृहमंत्री राजनाथ सिंह और प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कही थी। लेकिन माओवादियों के खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठाया गया। 24 अप्रैल को 12.40 बजे सीआरपीएफ के जवान फिर लाल जाल के फंदे में फंस गए। सुकमा से 60 किलोमीटर दूर बुरकापाल और चिंतागुफा के बीच मुठभेड़ में इस बार भी सुरक्षा बलों पर माओवादी भारी पड़े। घात लगाकर किए गए इस हमले में 26 जवान शहीद हुए और सात घायल। इससे पहले एंबुश लगाकर विस्फोट किया। विस्फोट के बाद चारों ओर से माओवादियों ने ताबड़तोड़ गोलियों की बौछार कर दी।

मओवादी इस हिंसक वारदात को अंजाम देने से पहले हमेशा की तरह सुरक्षा बलों की रेकी के लिए ग्रामीणों की मदद ली। कुछ महिलाओं ने बुरकापाल और चिंतागुफा के बीच बन रही सड़क के संदर्भ में जवानों से पूछा, यह सड़क कहां तक जाएगी। जवानों ने बताया कुछ दूर तक। महिलाएं पूछ कर चली गर्इं। थोड़ी देर बाद विस्फोट होने लगा। इससे पहले कि जवान संभल पाते, करीब तीन सौ माओवादियों जिनमें महिलाओं की संख्या अधिक थी, ने तीन तरफ से घेरकर गोलियां दांगनी शुरू कर दीं। इस नक्सली हमले में घायल जवानों ने सीधे सीधे राज्य सरकार की पुलिस पर सहयोग न करने का आरोप लगाकर सनसनी फैला दी है। उनके आरोप को दरकिनार भी नहीं किया जा सकता। इसलिए भी कि पिछली जितनी भी माओवाद वारदात हुई हैं, उनमें राज्य पुलिस के जवानों को कोई नुकसान नहीं हुआ है। वैसे भी देखा जाए तो सीआरपीएफ के जवान यहां के वातावरण में काम करने के लिए प्रशिक्षित भी नहीं हैं। यह चौकाने वाली बात है कि जिस पैरा मिलिट्री फोर्स को लगाया गया है माओवादी क्षेत्रों में उनकी कमांड इन चीफ आईपीएस अधिकारी होते हैं। कायदे से सीआरपीएफ के अधिकारियों के हाथ में कमांड होनी चाहिए। आईपीएस अधिकारी माओवादियों से कैसे निपटा जाए, इसके लिए प्रशिक्षित नहीं होते। वहीं सीआरपीएफ के डीजीपी का पद पिछले दो माह से अभी तक खाली होना भी आश्चर्य की बात है।

वामपंथी उग्रवाद चुनौती : राजनाथ
इस हिंसक वारदात से राज्य सरकार और केंद्र सरकार क्या कोई सबक लेगी, यह सवाल हमेशा की तरह छत्तीसगढ़ के लोगों की जुबान पर है। इसलिए भी कि 11 मार्च को जब 12 जवान शहीद हुए तो गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने वायदा किया था कि माओवादियों का मुंहतोड़ जवाब देने का वक्त आ गया है। इस बार उन्होंने कहा, ‘वामपंथी उग्रवादियों द्वारा किया गया ये कोल्ड ब्लडेड मर्डर है। हमने हमले को चुनौती के तौर पर लिया है। नक्सली जनजातीय लोगों को अपनी ढाल बना रहे हैं। वे उन्हें चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। आठ मई को दिल्ली में सभी मुख्यमंत्रियों की बैठक है, वहां निर्णय लिया जाएगा।’ वहीं मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा कि सुकमा का पूरा क्षेत्र ही माओवादियों का मुख्यालय है। माओवादियों को पता है कि उस क्षेत्र का विकास हुआ है। इससे उनके पैर उखड़ जाएंगे। हमारे लिए यह बड़ी चुनौती है। ऐसी घटनाओं के बावजूद हमारे जवान पीछे नहीं हटेंगे।

वारदात की वजह जानना जरूरी
शब्दों को कोमल बना देने से घटना की गंभीरता कम नहीं हो जाएगी। बार बार नक्सली वारदात क्यों होती हैं। घटना स्थल का मुआयना किया जाना चाहिए और पता लगाया जाना चाहिए कि आखिर वह कौन सी वजह है कि माओवादी अपनी हिंसक वारदात को अंजाम देने में कामयाब हो जाते हैं और पुलिस को पता तक नहीं चलता। बुरकापाल में हुई घटना में यह बात सामने आई कि माओवादियों ने यहां के पूर्व सरपंच मंडावी दुला 57 वर्षीय को उठा लिए थे। उसे प्रताड़ित किया गया। जन अदालत लगाकर उस पर कई आरोप लगाकर उसे 9 मार्च को मार दिया गया। इस वारदात से गांव में दहशत फैल गई। ग्रामीणों को फोर्स के जवानों से दूर रहने की चेतावनी भी दी थी। उसके बाद से ही इस गांव से सीआरपीएफ कैंप को सूचनाएं मिलनी बंद हो गर्इं। यही वजह थी कि कैंप से महज तीन-चार किलोमीटर दूर जंगल में 300 नक्सली आराम से एंबुश लगाते रहे लेकिन फोर्स को भनक तक नहीं लगी। सुकमा हमले की खबर एयरफोर्स की एंटी नक्सल टास्क फोर्स को करीब 3 बजे मिली। जगदलपुर से तुरंत दो हेलीकॉप्टर घायलों को लेकर रायपुर पहुंचे। इस दौरान रास्ते में एक घायल जवान की मौत हो गई।

हजारों मौत का गवाह लाल गलियारा
बस्तर संभाग में बढ़ती नक्सली वारदात को देखा जाए तो पिछले 12 सालों में सुरक्षा बल के 965 जवान शहीद हुए और 930 माओवादी मारे गए। 2,057 माओवादियों ने सरेंडर किया और 4,939 नक्सली गिरफ्तार किए गए। 149 माओवादियों को सजा हुई। माओवादियों की हिसंक वारदात में 753 नागरिकों की मौत भी हुई। यानी 2,647 जिंदगियां माओवादियों की वारदात की भेंट चढ़ गर्इं। लाल गलियारा अब तक इतनी मौतों का गवाह बन चुका है। कितनी मौतों का गवाह और बनेगा, न तो नक्सली की गोली जानती है और न ही सरकार। बावजूद इसके, आम आदमी की सांसें दहशतजदा हैं।

रेड कॉरीडोर को परिभाषित करें
गृहमंत्री के साथ 8 मई को सभी मुख्यमंत्रियों की होने वाली बैठक में जरूरी है कि रेड कॉरीडोर को नए सिरे से परिभाषित किया जाए। इस रेड कॉरिडोर से उन जिलों को निकाला जाए जहां पिछले तीन-चार सालों में नक्सली घटनाएं नहीं हुई हैं। इस समय 108 जिलों में से सिर्फ 68 जिलों में नक्सल समस्या रह गई है। नक्सल समस्या को आंतरिक मामला कहकर टरकाया जाना ठीक नहीं होगा। नक्सलियों से निपटने के लिए पुलिस बल ही सक्षम है ऐसा कहना अब ठीक नहीं होगा। इस समस्या के निदान का एकमात्र विकल्प सेना ही है।

कल्लूरी की मांग बढ़ी
बस्तर में डेढ़ माह के अंतराल में हुई दो माओवादी घटनाओं ने लोगों को झकझोर दिया है। पूरा बस्तर पूर्व आईजी एसआरपी कल्लूरी की मांग करते हुए शहीदों को कैंडिल मार्च कर श्रद्धांजलि दी। इससे पहले गृहमंत्री राजनाथ कल्लूरी की वापसी के सवाल पर बड़े अफसर भेजने की बात कही। यानी आईजी से बड़ा अफसर भेजा जा सकता है। गृह विभाग का कहना है कि स्पेशल डीजी (एएनओ) डीएम अवस्थी का पूरा दफ्तर जगदलपुर स्थानांतरित कर दिया जाएगा। अब सुकमा के कोर एरिया का पूरा आॅपरेशन जगदलपुर से चलाने की योजना है। सीआरपीएफ के आईजी को भी रायपुर से बस्तर भेजे जाने की योजना है।

बुरकापाल का मास्टर माइंड
नक्सल आॅपरेशन के डीजी डीएम अवस्थी ने बताया कि बुरकापाल हमले में माओवादी कमांडर हिड़मा और पापाराव का नाम आ रहा था। लेकिन अब पता चला है कि इसमें कंपनी कमांडर अर्जुन, सीतू, नागेश और सोनू की भूमिका सामने आई है। गौरतलब है कि हिड़मा के नेतृत्व वाली बटालियनें सुकमा और बीजापुर में सक्रिय हैं। हिड़मा नक्सलियों की दंडकारण्य जोनल कमेटी डीकेएसजेडसी का भी सदस्य है। इस पर पुलिस ने 25 लाख रुपये का इनाम घोषित किया है। कंपनी कमांडर अर्जुन, क्रिस्टाराम, एलमागुंडा और भेज्जी इलाके का प्रमुख है। इसी तरह नागेश को मुख्य रूप से हिड़मा का अंगरक्षक बताया जा रहा है। जबकि सीता जंगरगुडा और चिंतागुफा इलाके में सक्रिय हैं।
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह कहते हैं कल तक दोरनपाल,चिंतागुफा और जगरगुडा का इलाका माओवादियों के लिए सबसे सुरक्षित इलाका था। लेकिन जब से यहां विकास ने दस्तक दी है, माओवादियों को लगने लगा है कि उनका किला ध्वस्त होने जा रहा है। माओवादी चाहे जो भी कर लें लेकिन उनके मंसूबे कामयाब नहीं होंगे। दरअसल देखा जाए तो नक्सली बार बार खून की होली जहां खेल रहे हंै वह बस्तर का दक्षिण इलाका है। जो लाल आतंक का गढ़ है। करीब 1000 वर्ग किलोमीटर तक फैला घना जंगल है। इसका मुख्यालय है जगरगुंडा। इसी जगरगुंडा को तीन तरफ से घेरने के लिए तीन अलग-अलग सड़कें बनाई जा रही हैं। पहली दोरनापाल से जगरगुंडा तक की 60 किलोमीटर की सड़क है, जिस पर सबसे अधिक घटनाएं हो रही हैं। 24 अप्रैल को इसी पर नक्सलियों ने वारदात की। यहां से बीजापुर से और दूसरी दंतेवाड़ा में अरनपुर से बन रही है। दोरनापाल से जगरगुंडा के बीच बनाई जा रही सड़क का काम ही सबसे बड़ी चुनौती है। पीडब्ल्यूडी ने 18 टेंडर निकाले थे। लेकिन कोई बनाने के लिए आगे नहीं आया। 17 सालों से नक्सलियों के कब्जे में रहे इस मार्ग पर सड़क बनाने का जिम्मा पुलिस हाउसिंग कॉपोर्रेशन को दिया गया। सड़क बन सके इसलिए बुरकापाल में सीआरपीएफ का कैंप लगा दिया गया है। इसी कैंप के जवान रोड ओपनिंग के लिए निकले थे। यहां रोड ओपनिंग का मतलब है कि बिना किसी रोकटोक के काम चलता रहे और नक्सली कोई बाधा न डाल सकें। बारूदी सुरंग न बिछा सकें।

बहरहाल, एक सुर में सभी का मत है कि नक्सलियों से निपटने के लिए सरकारी नीतियों में बदलाव होना जरूरी है। देश में छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहे जाने पर यहां की जनता गर्व का अनुभव करती है लेकिन उतनी ही शर्मिंदगी नक्सल वारदात के कारण महसूस करती है। नक्सलियों के खिलाफ बस्तर में एक बड़े आॅपरेशन की अब जरूरत है। 

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