मोहन सिंह।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पारिवारिक कलह के बाद अब पार्टी पर काबिज हो चुके हैं। उनके सामने अब यक्ष प्रश्न यह है कि क्या ऐसी स्थिति में जब एक छोर पर मुलायम सिंह यादव खम ठोक रहे हों और दूसरे छोर पर वह खुद खड़े हों तो राजनीतिक लड़ाई जीत लेंगे? अखिलेश को खुद साबित करना होगा कि चुनावी समर में जाने से पहले पार्टी फोरम पर अखिलेश बाजी जीत चुके हैं। लेकिन इस सियासी जीत से चुनावी जीत हासिल नहीं हो जाती है। राजनीतिक जीत हासिल होगी अपने बूते चुनाव जीतने के बाद। अब यह साफ दिख रहा है कि सपा का असली विवाद पारिवारिक है और निजी स्वार्थ के लिए है। पार्टी में नीतिगत कोई बड़ा मुद्दा नहीं था। निष्कासन, मेल-मिलाप कब कहां तक पहुंच जाएगा अनुमान लगाना मुश्किल है। हालांकि, इतना तय है कि इसका खामियाजा चुनाव से ठीक पहले सपा को भुगतना पड़ेगा। पार्टी के समर्थक फिलहाल असमंजस में हैं। पूर्वांचल की कई सीटों पर सपा के दो-दो घोषित उम्मीदवार हैं। सपा में जिस कौमी एकता दल के विलय के सवाल पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव से नाराज थे उन अंसारी बंधुओं के एक भाई शिबगतुला अंसारी आज अखिलेश यादव के साथ खड़े हैं। अंसारी बंधुओं के सपा में विलय के पैरोकार रहे पूर्व मंत्री ओमप्रकाश सिंह, अंबिका चौधरी और नारद राय मुलायम और शिवपाल खेमे के हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाना आसान है कि वास्तव में इससे नुकसान किसका होगा?

उस इलाके में जहां सपा लंबे अरसे से तक सियासी तौर पर मजबूत रही है। खबरों के मुताबिक, ओमप्रकाश सिंह, अंबिका चौधरी और नारद राय अपनी-अपनी सीटों पर जीत पक्की करने के लिए कौमी एकता दल का सपा में विलय की तरफदारी कर रहे थे। इसमें कोई शक नहीं कि गाजीपुर, बलिया और मऊ जिलों की कई विधानसभा सीटों पर अंसारी बंधुओं का दबदबा है। सपा के समर्थन के बिना भी उनकी पार्टी सियासी उलटफेर करने की स्थिति में है। उनकी हैसियत अगर जिताने की नहीं है तो किसी को हराने की जरूर है। मसलन, पूर्व मंत्री ओमप्रकाश सिंह का निर्वाचन क्षेत्र गाजीपुर स्थित जमानिया है। यहां ‘कमसार बेल्ट’ में अल्पसंख्यकों की अच्छी खासी तादाद है। बसपा ने यहां अतुल राय को उम्मीदवार बनाया है। अतुल राय खुद को मुख्तार अंसारी का आदमी बताकर ‘कमसार बेल्ट’ में वोट मांग रहे हैं। जाहिर है ओमप्रकाश सिंह के लिए यह परेशानी का सबब है। गाजीपुर, बलिया, आजमगढ़ और जौनपुर की ज्यादातर सीटें पिछली मर्तबा सपा ने जीती थीं। पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह खुद आजमगढ़ से सांसद हैं। हालांकि सपा के जिलाध्यक्ष अब अखिलेश यादव के साथ हैं। उसी तरह बलिया में रामगोविंद चौधरी अखिलेश यादव के साथ हैं, तो दूसरी तरफ अंबिका चौधरी और नारद राय मुलायम सिंह यादव और शिवपाल के साथ खड़े हैं। मुलायम सिंह परिवारमोह में अपने बेटे अखिलेश और भाई शिवपाल को भी नहीं छोड़ सकते। इस विकट स्थिति में राजनीतिक जमीन उनके हाथों से खिसकती जा रही है। ऐसा लगता है कि राजनीतिक नफा-नुकसान का अंदाजा और परवाह किसी को नहीं है। हालांकि, सियासी जानकार इस विवाद को राजनीतिक विवाद नहीं मानते। समाजवादी चिंतक विजय नारायण का मानना है, ‘मुलायम परिवार में छिड़ी जंग राजनीतिक जंग नहीं है। दरअसल, यह धंधे और चंदे के स्रोत पर काबिज होने की लड़ाई है। मुलायम सिंह यादव मजबूर हैं। अगर उत्तर प्रदेश चुनाव में समाजवादी पार्टी के दोनों खेमे आमने-सामने होंगे तो नुकसान अंतत: अखिलेश का ही होगा। लेकिन मुलायम सिंह को इस तरह अपमानित नहीं करना चाहिए।’

फिलहाल उम्र के इस पड़ाव पर मुलायम लाचार नजर आ रहे हैं। इसके पहले के एपिसोड में अखिलेश यादव लाचार नजर आ रहे थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष रामाधीन सिंह कहते हैं, ‘बहादुर अपनों से नहीं लड़ सकते और कायर दुश्मनों से। मुलायम सिंह यादव की आज यही स्थिति है।’ वैसे, इस राजनीतिक कलह का राजनीतिक लाभ किसे मिलेगा? इस सवाल पर लोगों की राय अलग-अलग है। विजय नारायण बताते हैं, ‘यह भाजपा और बसपा पर निर्भर करता है कि कौन किस रूप में इसका लाभ लेता है। वैसे, नोटबंदी के फैसले से भाजपा को नुकसान हो सकता है! सूबे में किसानों को आलू और टमाटर की उपज का सही भाव नहीं मिल रहा है। वहीं धान की सरकारी खरीद का काम भी ठप पड़ा हुआ है। किसानों को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री लखनऊ में आयोजित परिवर्तन रैली में किसानों के लिए बड़ी राहत का ऐलान करेंगे, लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण से किसानों को निराशा हुई। सपा में जारी पारिवारिक विवाद को पार्टी को इतना फायदा तो जरूर हुआ है कि अखिलेश सरकार की नाकामियों की चर्चा पर विराम लग गया है। प्रदेश के मतदाता फिलहाल खामोश हैं। साल 2016 के अंत में जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चर्चा होती थी, वहीं साल 2017 की शुरुआत में अखिलेश यादव की चर्चा होने लगी है, एक अलग छवि और राजनीतिक अंदाज के साथ।’ समाजशास्त्री और राजनीतिक विश्लेषक डॉ. दीनबंधु तिवारी बताते हैं, ‘पिछले लोकसभा चुनाव में मतदाता मुखर थे, लेकिन इस बार मतदाता खामोश हैं। सपा और बसपा के उम्मीदवारों की सूची आ चुकी है। भाजपा के उम्मीदवारों की सूची आने पर ही चुनावी अनुमान लगाना आसान होगा।’

साल 2014 के लोकसभा चुनाव के समय भाजपा को अपने परंपरागत वोट के अलावा पिछड़े, अति पिछड़े और दलितों के वोट भी मिले थे लगभग 41 फीसद। अब भाजपा के सामने अपना पिछला रिकॉर्ड कायम रखने की चुनौती है। बसपा अपनी ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के जरिये सत्ता में वापसी करना चाहती है। कांग्रेस को उम्मीद है कि सपा के अखिलेश गुट से चुनावी समझौता हो जाएगा। वहीं भाजपा और बसपा की निगाहें सपा में जारी घमासान और सत्ता विरोधी लहर पर टिकी हुई हैं। मुलायम सिंह यादव परिवार और पुत्रमोह के कारण पार्टी में जारी कलह रोक पाने में असमर्थ दिख रहे हैं। ऐसे में पिछड़ी जातियां, दलितों और अल्पसंख्यक मतों के बिखराव की संभावना दिख रही है। भाजपा गरीबों के कल्याण की बात कर जातीय गठजोड़ तोड़ने की कोशिशों में जुटी है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष अरविंद शुक्ल बताते हैं, ‘गोरखपुर-बस्ती मंडल में भाजपा का ग्राफ पिछले लोकसभा चुनाव की तरह बरकरार रहने की उम्मीद है। नोटबंदी के फैसले को प्रदेश की गरीब जनता ने सकारात्मक तरीके से लिया है। गरीबों का मानना है कि काली कमाई करने वाले अमीरों के पैसे जब्त हो रहे हैं। सरकार उन पैसों को गरीबों की भलाई में इस्तेमाल करेगी ऐसा सोचने वालों की संख्या भी अधिक है।’ अरविंद के मुताबिक, ‘सत्ता की प्रतीक कही जाने वाली जातियों के विरुद्ध जनता में व्यापक आक्रोश है।’ पेशे से अध्यापक अरविंद का मानना है, ‘मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के शासन में लोकसेवा आयोग, उच्चशिक्षा आयोग और माध्यमिक शिक्षा आयोग की भर्तियों में जो धांधली हुई वह किसी से छुपा नहीं है। पुलिस की भर्तियों में भी कुछ ऐसी ही गड़बड़ियां सामने आर्इं। आखिर यह सारी गड़बड़ियां अक्सर समाजवादी पार्टी के शासन में ही क्यों होता है, यह एक बड़ा सवाल है!’

भाजपा की सहयोगी पार्टियां अपना दल और भारतीय समाज पार्टी ने भी चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं। अपना दल पहले ही दो खेमों में बंट चुका है। एक गुट की नेता केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल तो दूसरे गुट की नेता कृष्णा पटेल हैं। हालांकि, पिछले दिनों अनुप्रिया पटेल ने अपना दल में सुलह की पहल की थी। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के तहत रोहनिया विधानसभा क्षेत्र है। यहां हुए उपचुनाव में कृष्णा पटेल ने चुनाव लड़ा था। हालांकि, भाजपा अब इस सीट से अपनी दावेदारी पेश कर रही है। इसके बदले सेवापुरी सीट वह अपनी सहयोगी पार्टी अपना दल को देना चाहती है। वैसे इसका अंतिम फैसला पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को लेना है। भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओमप्रकाश राजभर पूर्वांचल की बाइस सीटों पर अपनी दावेदारी कर रहे हैं। बलिया, गाजीपुर, आजमगढ़, मऊ और वाराणसी की शिवपुर सीट पर इसकी दावेदारी मजबूत है। गौरतलब है कि अपना दल और भासपा से जैसे स्थानीय और छोटे दल अपने बूते कोई चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन भाजपा के साथ गठबंधन होने से कुछ सीटों पर इनकी स्थिति मजबूत हो सकती है। भाजपा को आशंका इस बात की जरूर है कि गठबंधन के तहत जो सीटें इन छोटी पार्टियों के हिस्से में आएंगी वहां इन दलों के नेता अपने मनमाफिक उम्मीदवार खड़ा करने से विरोधी पार्टियों को फायदा मिल सकता है। बिहार विधानसभा के चुनाव में कुछ ऐसा ही हुआ था। यही वजह है कि संघ और भाजपा इस बार सतर्क है और पूरी मुस्तैदी से चुनाव की तैयारियों में जुटी है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए यह चुनाव साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बेहद अहम हैं। फिलवक्त जो स्थिति है, उसे देखकर यही लगता है कि भाजपा यूपी चुनाव को किसी को बतौर मुख्यमंत्री पेश नहीं करेगी। बिहार की तरह ही यूपी चुनाव भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा।