गाने के कई रियलिटी शो में जाने माने गायक कैलाश खेर बतौर जज मौजूद रहे हैं। कई उभरती प्रतिभाओं को उन्होंने बढ़ावा दिया। अजय विद्युत से बातचीत में उन्होंने कहा कि ऐसे शो में थोड़ी शालीनता और गंभीरता आ जाए तो वे युवा प्रतिभाओं के प्रोत्साहन में और सार्थक भूमिका निभा सकते हैं… छोटे शहर प्रतिभाओं की खान हैं।

टेलीविजन पर टैलेंट कार्यक्रमों की सार्थकता कुछ है… या नहीं।
ऐसे कार्यक्रमों की सार्थकता तो है। इस तरह की जो व्यवस्थाएं होती हैं, शो बनते हैं जो नए नए मंच आ रहे हैं जिन्हें हम अंग्रेजी में रियलिटी शो कहते हैं तो पहली बात यह कि उनका प्रयास अच्छा है। और दूसरी बात यह कि प्राय: बाजारीकरण हावी हो जाता है ऐसे कार्यक्रमों में। वे ओवररेटेड हो जाते हैं। उसमें कंटेंट से ज्यादा ग्लैमर, चमक, पब्लिसिटी, उत्तेजना और रोमांच डाल देते हैं। इससे बच्चों में एक गलत तरह की शिक्षा जाती है कि ‘बस, अब यहां से जिंदगी कामयाब हो गई… हमने हासिल कर लिया सब कुछ।’ तो यह बच्चों की साइकोलॉजी यानी मनोविज्ञान से खेलने वाली बात होती है। तो अगर हम यहां पर संभल जाएं और उसको संतुलित होकर बताएं कि- यह आपको मंच मिला है प्रारंभ के लिए। लेकिन चुनौती अभी बहुत बड़ी है। कला, साहित्य, संगीत ऐसे क्षेत्र हैं जहां आपको मरते दम तक मेहनत और नए नए इनोवेशन करने होते हैं। आप रोज कुछ नया सीखते हैं। यहां ऐसा नहीं है कि एक बार आपने कोई डिग्री ले ली जैसे बारहवीं के बाद चार साल खर्च कर एमबीए की या फिर छह साल पढ़कर इंजीनियरिंग की। फिर आपकी नौकरी पक्की हो गई। आगे पैंतीस साल किसी भी संस्था से जुड़कर आप शादी कर लेंगे, बच्चे पैदा कर लेंगे, मकान लग गया… यानी चैन की जिंदगी आपकी पक्की हो गई। लेकिन इस फील्ड में जिंदगी पक्की नहीं होती। आप एक मुकाम हासिल करो तो फिर दूसरे मुकाम के लिए झंझटबाजी, और दूसरा मिल गया तो फिर तीसरे की तैयारी करो भइया! तो यहां जो जिंदगी की आपाधापी है या यूं कह लें कि जिंदगी का जो प्रतियोगितात्मक स्तर है, वह कभी कम नहीं होता… बस बढ़ता है। तो अगर रियलिटी शो के प्रतिभागी यह संतुलन समझ जाएं तो वे हजार कंपटीशन जीत जाएंगे तो भी अच्छी बात है। प्रतिभागी के अभिभावक, गुरु, मेंटर अगर उसे बताते चलें कि बेटा तूने यह प्रतियोगिता जीत ली तो समझ कि पहली पायदान तूने जीती है। अब तुझे जिंदगी में कायदे से आगे चलना है और आगे और चुनौतियों की तैयारी करनी है। अगर ऐसा करेंगे तो इससे बच्चे का मन भी नियंत्रण में रहेगा और उसकी जिज्ञासाएं भी। लेकिन जब आप ऐसे शोज को ओवररेटेड कर देंगे, जरूरत से ज्यादा प्रसिद्धि और बाजारी बना देंगे चीजों को, तो यह कभी कभी बच्चों के मन-मस्तिष्क पर गलत प्रभाव डाल देता है, उनकी ग्रोथ में अवराध बनता है। अब हो क्या रहा है कि मनुष्य अपनी जिज्ञासाओं का गुलाम हो रहा है। उसकी महत्वाकांक्षाएं, अपेक्षाएं, इच्छाएं, लालच और सपने अब बढ़ रही हैं। इसके कारण वह अपनी इंद्रियों पर भी काबू नहीं रख पाता। अब उसको सारे व्यसन भी चाहिए, लक्जरीज भी चाहिए… इनकी वजह से आप ‘पाकर’ भी ‘ना पाकर’ रह जाते हैं। यह मैं सामान्य जीवन की बात बता रहा हूं न केवल कला-संगीत की दुनिया के लोगों के लिए।

राइजिंग स्टार सीजन 2 के विनर बीस वर्षीय हेमंत बृजवासी उत्तर प्रदेश के मथुरा जैसे छोटे शहर से आते हैं। वह अपने पिता के साथ भजन गाते रहे। फिर 2009 में जी सारेगामा लिटिल चैंप 2009 के विनर बने। तब उनकी आयु बारह वर्ष थी। अभी एक फिल्म में भी गाने का मौका मिला है जिसमें गीत गुलजार का और संगीत शंकर एहसान लॉय का है। भक्ति प्रधान और भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्रधानता वाले गीत गाते हैं। यानी तमाम तड़क भड़क वाले संगीत के बीच ऐसे गानों के जरिए भी कोई अच्छी रेटिंग और कामयाबी हासिल कर सकता है और सबसे बड़ी बात कि लोग उसे वरीयता देते हैं। यह जो परिवर्तन आया है इसे क्या कहेंगे?
इस परिवर्तन के लिए मैं भारत को, भारत की सोच को, भारत के लोगों को और भारत के संगीत प्रेमियों को बधाई देता हूं। वास्तव में ये परिवर्तन बड़े स्तर पर पिछले दो तीन वर्ष से जबसे बाहुबली फिल्म आई प्रारंभ हुआ है। बाहुबली फिल्म ने कुछ कीर्तिमान ऐसे बनाए हैं कि श्रृंगार रस के गानों में भी संस्कृत की उवाच आई है। न केवल संस्कृत भाषा के शब्द आए हैं वरन संस्कृत के मंत्र आए हैं, श्लोक आए हैं। तो पहली बार ऐसा चित्रण हुआ कि श्लोक और मंत्रों से भी श्रृंगार, जिसे हम अंग्रेजी में रोमांटिसिज्म कहते हैं, उसे प्रभावोत्पादक बनाया गया। तो तब से ही ऐसा माहौल बना है। दरअसल भारतीय अध्यात्म का बड़ा प्रभाव होता है जी! सच यह भी है कि ये जो बाजारीकरण है ये जरा कम आंकते हैं अपनी विधाओं, गाथाओ, ज्ञान को और दूसरे देशों की यानी पाश्चात्य विधाओं को ज्यादा बाजारीकरण मिलता है। वरना हमारे अध्यात्म और संगीत में बहुत शक्ति है। ये जो बड़े बड़े विदेशी संगीतकार होते हैं वे हमारा संगीत सीखने आते हैं। बीटल का जो बहुत तगड़ा म्यूजिशियन था वह यहां पंडित रविशंकर जी से सितार सीखने आया था। ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं।

भारतीय फिल्मों में ऐसा मंजर क्यों नहीं दिखता?
जहां तक फिल्मों की बात है जो वहां खिचड़ी पकती है। फिल्मों में किसी भी विधा का विशुद्ध रूप नहीं होता। और जो भारतीय अध्यात्म है वह भारत के हर प्रकार के संगीत में दिखता है। भजन हो चाहे तराना शैली, चाहे टप्पा हो, दोहा, सवैया, कजरी हो- सबमें। हमारे गांवों में तो कोई बिरहा भी गाता है तो उसकी बहुत गहरी एक पकड़ रहती है।

छोटे शहरों से लोगों का ऐसे कार्यक्रमों में आना… कैसा लगता है?
हमारे यहां जो छोटे शहर कहे जाते हैं, दरअसल वे छोटे नहीं होते वे बड़े होते हैं। वे संस्कृति, साहित्य, भाषा और कला में बहुत बड़े होते हैं… हां फैशन में वे बेशक छोटे होते हों। तो जो लोग वहां से आते हैं वे बड़े शहरवालों से कम नहीं होते… बल्कि जैसा कहते हैं कि एक सौ पर भारी पड़ता है। क्यों? क्योंकि अपनी संस्कृति, सभ्यता, अतीत, इतिहास, विधाओं में वे संपन्न होते हैं। वे वहां रच बसे आते हैं, पूरी तैयारी से आते हैं। जिन्हें हम छोटे शहरों के रूप में परिभाषित करते हैं वहां बड़प्पन फलता है, अनुभव फलता है, वे लोग बड़ों की संगत में पूरी ट्रेनिंग लेकर आते हैं। इसलिए मैं उनको छोटा शहर कहता ही नहीं, मैं उसे भारत बोलता हूं। असली भारत दूरदराज के गांवों में बसा है।
सिंगिंग या डांस के रियलिटी शो के बीच में मेलोड्रामा के सीन भी जोड़े जाते हैं। प्रतिभागी के मां बाप आते हैं। अपनी संतान के जीतने की कामना करते हैं, प्रतिभागी बताता है कि मेरी मां ने कितनी मुश्किलों से मुझे यहां तक भेजा, मेरी कामयाबी के लिए व्रत रख रही है- वगैरह वगैरह। वे गले लग रहे हैं, रो रहे हैं- ये जो शो के बीच नाटकीय क्षण आते हैं या लाये जाते हैं.. दर्शक प्रभावित भी होते हैं- ये सब क्या है?
मैं इसको मूर्खता और तुच्छता मानता हूं। माता पिता थोड़ा मेच्योरिटी के साथ दिखें- कम बोलते हुए, ज्यादा बताते हुए। ऐसा नहीं कि कैमरा घूमा तो खुद ही उठकर चले आए, उनको खुद भी ग्लैमर का भूखा नहीं दिखना चाहिए। भावनाओं के बजाय वे वहां बताएं कि ये बेशक प्रतिस्पर्धात्मक फील्ड है लेकिन जिंदगी भी प्रतिस्पर्धात्मक है। अगर ऐसे स्वतंत्र विचारों से आते हैं तो ऐसे माता पिता का स्वागत होना चाहिए। यह नहीं कि मैं मैं- मेरा बेटा जीत जाए… बस। इससे लगता है कि यहां कोई समझदारों वाली बात है नहीं। माता पिता भी अपने तक ही नजर रख रहे हैं। उन्हें सभी प्रतिभागियों के अच्छे प्रदर्शन की कामना करनी चाहिए… तो लगेगा कुछ बात की। जैसे जब शिव का धनुष तोड़ने के लिए राम आए थे तो और भी बहुत लोग आए थे। राम प्रिय थे सबको और उनके लिए एक विशेष आशीर्वाद जरूत था लेकिन ऐसा नहीं कि जो और आए थे वे प्रिय नहीं थे। उनको भी सपोर्ट किया ऋषिजनों, संतों, वहां मौजूद महानुभावों ने। जो जो प्रयासरत थे सबको वे आशीर्वाद दे रहे थे। ऐसा आचरण करना चाहिए शो में आए प्रतिभागियों के माता पिताओं को।’