बहुजन समाज के मुद्दों पर विशेष पकड़ रखने वाले समाजशास्त्री और जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर विवेक कुमार सुप्रीम कोर्ट के एससी/एसटी एक्ट के खिलाफ दलितों के भारत बंद को मौजूदा सरकार में अपनी लगातार अनदेखी पर दलितों के गुस्से का प्रस्फुटन मानते हैं। अजय विद्युत  ने उनसे बातचीत की।

दलित एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसा क्या हो गया कि दलितों को राष्टÑव्यापी आंदोलन/बंद करने की जरूरत आन पड़ी… क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट में कोई बदलाव नहीं किया है?
अखिल भारतीय स्तर पर दलितों का जो गुस्सा प्रस्फुटित हुआ है वह अपने आप में एक ऐतिहासिक घटना है क्योंकि दो अप्रैल से पहले देशव्यापी स्तर पर इतने बड़े रूप में दलितों का प्रदर्शन कभी नहीं हुआ। इस बात को हमें देखना चाहिए। और अगर हम इस तथ्य को अपने संज्ञान में रखेंगे तो यह लगेगा कि यह गुस्सा कोर्ट के फैसले के खिलाफ नहीं है। जो वर्तमान कालखंड है भारत का उसमें कहीं न कहीं दलितों को विरक्ति हुई है। उनको यह लग रहा है कि उनके लिए कुछ नहीं हो रहा है। किसी भी स्तर पर उनकी कोई सुनवाई नहीं है। और उनका कोई नुमाइंदा किसी भी संस्थान में ऊंचे पद पर नहीं है- चाहे वह शिक्षा हो, ब्यूरोक्रेसी या फिर जुडिशियरी। होम मिनिस्ट्री में नहीं है। संसद में नहीं दिखाई पड़ रहा है चाहे वह उच्च सदन हो या निम्न सदन। तो इस तरह से उनको विरक्ति लग रही है और यह कहीं न कहीं उसी विरक्ति का विस्फोट है। दूसरी तरफ दलितों पर अत्याचार की घटनाएं लगातार बढ़ती चली जा रही हैं। अगर रोहित वेमुला से ही शुरू करें तो उसके बाद ऊना हुआ। गुजरात में ही घोड़े पर चढ़ने पर मार दिया, मूंछें रखने पर मार दिया, गरबा में जाने पर मार दिया। राजस्थान में दलित मारे गए। फिर दलितों की शीर्ष नेत्री मायावती को गाली बकी। और गाली ही नहीं बकी बल्कि जिसने बकी उसे पारितोषिक दिया। उसकी पत्नी को उत्तर प्रदेश सरकार में बाकायदा मंत्री बनाया। फिर देखिए, बाबा साहेब अंबेडकर का नाम बदल दे रहे हैं आप। और शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति गवर्नर बोल रहा है कि मुझे बड़ी खुशी हुई कि मैंने यह काम कर दिया। योगी के यहां दलितों को नहलवाया जा रहा है कि उनको बदबू आ रही है। सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में दलितों का रिजर्वेशन खत्म करके उनका डिमोशन किया गया, वे अपमानित हुए। अब यूनिवर्सिटी में रिजर्वेशन को लेकर कह रहे हैं कि यह डिपार्टमेंटवाइज होगा। तो रिजर्वेशन वहां भी खत्म हो रहा है एक तरीके से। और अत्याचार की घटनाएं देखें कि हर दिन छह दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहा है और कोई संज्ञान नहीं ले रहा है। तो एक तरफ दलितों का प्रतिनिधित्व छिन रहा है, दूसरी तरफ उन पर अत्याचार हो रहा है और तीसरी तरफ उनका प्रतिनिधित्व किसी भी संस्था में नहीं दिखाई दे रहा है… इसलिए यह विरक्ति है मौजूदा सरकार से और सरकार के समय से।

यानी सुप्रीम कोर्ट के एससी/एसटी एक्ट पर आए फैसले से दलितों के भारत बंद का कोई लेना देना नहीं था?
मुझे नहीं लगता… हां सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक तत्कालिक कारण हो सकता है कि अरे, अब तो यह भी खत्म हो गया। दलितों को लगा हमारे लिए एक एक्ट था जिसमें हम अपने खिलाफ ज्यादती की रिपोर्ट लिखवा सकते थे और कोर्ट हमारी तरफ खड़ा हो जाता था, वह रही सही आस भी अब खत्म हो गई। तो जो आखिरी कील ताबूत में गाड़ी गई उसके लिए कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से गुस्सा त्वरित गति से प्रस्फुटित और घटित हो गया।

साल 2007 में बसपा प्रमुख मायावती ने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहते हुए एससी/एसटी एक्ट में इससे ज्यादा ढील दी थी, जो उत्तर प्रदेश में आज भी लागू है?
मुझे लगता है कि जो भी लोग ऐसी बातें कर रहे हैं उनके पास गलत सूचना है। उन्हें फिर से पढ़ना चाहिए। जीओ (गवर्नमेंट आर्डर) एक दिन हुआ और अगले ही दिन… वह समाप्त हो गया। मायावती जी ने अभी कल ही एक बार फिर स्पष्टीकरण दिया है कि मैं जैसे ही आई मुझे लगा और मैंने तुरंत ही उस पर अपनी बात स्पष्ट कर दी। और उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में डिप्टी एसपी स्तर तक का अधिकारी जांच कर सकता था। लेकिन कहीं भी अप्वाइंटिंग अथॉरिटी से परमीशन लेने की बात नहीं थी, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट कह रहा है। राज्यों में क्लास वन का गवर्नर होता है और आईएएस, आईपीएस का राष्टÑपति होता है। केंद्रीय विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का अप्वाइंटिंग अथॉरिटी राष्टÑपति होता है। तो इसका क्या मतलब हुआ कि राष्टÑपति तक फाइल जाएगी। ऐसा तो आर्डर कभी नहीं किया मायावती ने। तो यह अनर्गल प्रचार किया जा रहा है।

यह आंदोलन सरकार के खिलाफ था या सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ?
यह किसी के खिलाफ नहीं है, लेकिन… यह समाज में व्याप्त दलितों की विरक्ति है। उनका गुस्सा कई वर्षांे का है। जो भी सरकार केंद्र में आती है वह कहीं न कहीं इस गुस्से को कम करती है, आत्मसात करती है। कहीं न कहीं दलितों को अप्वाइंट करती है शीर्ष स्तर पर। पिछली बार जब कांग्रेस की सरकार थी तो उसने गृह मंत्री सुशील कुमार शिन्दे को बना दिया जो दलित समाज से आते थे। लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार दलित थीं। रेल मंत्री खड़गे को बना दिया था। वह भी दलित समाज से आते थे। संस्कृति मंत्री बनाया सुश्री शैलजा को। पांच पांच मिनिस्टर बना दिए उन्होंने दलित समाज से। अभी की सरकार में क्या है? भाजपा के कोटे से केवल थावर चंद गहलोत हैं उनके पास सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय ही तो है। इसका मतलब सरकार में दलितों की आवाज नहीं है। पिछले चार वर्षांे के अंदर दलितों को अपना कोई भी प्रतिनिधि कहीं नहीं दिखाई दे रहा है। कोई ऐसा सांसद भी नहीं है जो राज्यसभा में बोल रहा हो उनके लिए। एक मायावती बोला करती थीं तो वह इस्तीफा देकर चली गई हैं। लोकसभा में भी दलितों के लिए कोई बोलने वाला नहीं है। तो दलितों में विरक्ति पैदा हो गई कि सचमुच में अब हमारा कोई सरपरस्त नहीं है। कांग्रेस के समय में सुप्रीम कोर्ट में जज हुआ करते थे बालाकृष्णन, वह दलित थे। यूजीसी के चेयरमैन सुखदेव थोरट दलित थे। कई वाइस चांसलर दलित समाज से थे। तो पिछली सरकार में बाकायदा दलितों का प्रतिनिधित्व था। इस सरकार में वह दिखाई नहीं पड़ रहा है इसलिए दलित अपने आप को सामाजिक रूप से और राजनीतिक रूप से अनाथ पा रहे हैं इसलिए ये विरक्ति है।

क्या राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दलित नहीं हैं?
एक शब्द दलितों के बारे में बोल रहे हैं वो। और दलित को राष्टÑपति तो कांग्रेस ने दस वर्ष पहले ही बना दिया था। ऐसे मौके पर राष्टÑपति को बोलना चाहिए था तो क्या बोले? और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद क्या बोले- ‘मैं अंबेडकर की बहुत इज्जत करता हूं।’ अरे, आप अंबेडकर के लोगों की इज्जत करते हैं! अगर अंबेडकर के लोगों की इज्जत करते तो दिल्ली से सौ किलोमीटर दूर कासगंज में ऐसा कैसे हो गया कि वहां दलित को ठाकुर अपने दरवाजे से बारात नहीं निकालने दे रहे हैं और पूरी सरकार मौन है। कार्ट मौन है। वहां का डीएम कह रहा है कि नई परंपरा की शुरुआत क्यों करते हो, अपनी जगह पर रह लो। ये कौन सा प्रजातंत्र है जिसमें हम जी रहे हैं। दलित घोड़ा खरीदे, मूंछ रख ले, डांस करे, अपनी मरी हुई गायों को उठाये.. तो मार देते हो। आपकी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी की एक जगह मूर्ति टूटी तो तुरंत कहा कि डीएम और एसपी इसके लिए जिम्मेदार होंगे। लेकिन बाबा साहेब की आये दिन टूट रही है आप कुछ नहीं बोल रहे हो। तो इस बात का दलितों में गुस्सा है।

क्या दलितों का आंदोलन अन्य दलों से हाईजैक कर लिया था। क्योंकि शांतिपूर्ण आंदोलन को हिंसक व अराजक बना दिया गया। जिन कथित आंदोलनकारियों या उपद्रवियों की गिरफ्तारी हुई है उनमें बड़ी संख्या में मुस्लिम और अन्य जातियों के लोग शामिल पाए गए?
मैं कड़ी आपत्ति दर्ज करता हूं कि भारत बंद आंदोलन को हिसात्मक बताया जा रहा है। दलितों ने कोई हिंसा नहीं की। अगर दलित हिंसा करते तो सुबह से करते। ये क्यों हुआ कि दोपहर के बाद हिंसा शुरू हुई। जब यह दिखने लगा कि दलितों का यह आंदोलन अखिल भारतीय स्तर पर है और सब जगह इसका असर है तब हिंसा होने लगी। पंजाब, हरियाणा में हिंसा क्यों नहीं हुई यह एक प्रश्न उठता है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में ही क्यों हिंसा हुई यह बहुत बड़ा प्रश्न उठता है जहां भाजपा की सरकारें हैं। फिर कोई कहता है कि किसी ने बहका दिया दलितों को तो यह फिर से सवर्ण मानसिकता की पराकाष्ठा है। सवर्ण मानसिकता की पैरोकारी है कि कह दो दलितों के पास बुद्धि तो होती नहीं है, ये तो दूसरों की अक्ल से काम करते हैं। यही कहना चाह रहे हैं वे लोग यह सवाल उठाकर। रही हिंसा की बात तो मैंने हिंसा देखी है। जब राजस्थान में बैसला ने गूजरों का आंदोलन चलाया तो लगातर पंद्रह दिन तक ट्रेनें बाधित थीं। कितना नुकसान हुआ होगा जरा उसका आकलन कर लिया जाए। हरियाणा में खट्टर सरकार के खिलाफ जब जाटों ने आंदोलन किया तो बाद में सात आठ हजार करोड़ रुपये का नुकसान पाया गया। गुजरात में जो हिंसा हुई जरा उसकी व्यापकता का अंदाजा लगाया जाए और फिर कोई कहे कि दलितों के भारत बंद के दौरान हिंसा हुई।

दलित अस्मिता या गौरव आवश्यक है। लेकिन यह समाज में समावेशी प्रक्रिया के जरिये आएगा, या अराजकता फैलाकर?
मेरा मानना है कि दलित अस्मिता समाज में आसानी से आ सकती है जब दलितों को स्व-प्रतिनिधित्व दिया जाए। स्व-प्रतिनिधित्व का मतलब वे शीर्ष पदों पर नामित किए जाएं। जैसे न्यायपालिका, वहां दलित समाज का जज क्यों नहीं है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में केवल एक दलित, वह भी सामाजिक न्याय और आधिकारिता जैसे मंत्रालय का। बाकी तीन फीसदी ब्राह्मण सभी मिनिस्ट्री में रहेंगे। क्या मतलब है? क्या प्रतिनिधित्व दिया? वाइस चांसलर दलित क्यों नहीं हैं? यूसीजी का चेयरपर्सन अगर कोई अन्य है तो आईसीएसआर (इंडियन काउंसिल आॅफ सोशल रिसर्च) का चेयरपर्सन किसी दलित को हो जाना चाहिए। इसमें क्या दिक्कत है। आखिर वे भी तो अट्ठाइस फीसदी हैं। इंडस्ट्री में भी दलित नहीं हैं। वे क्यों नहीं आ पा रहे हैं। कितने सेक्रेटरी दलित हैं? मेरा कहना है कि जब आप प्रतिनिधित्व देते हैं तो दलितों का उत्साह बढ़ता है, उनकी कल्पनाशीलता और क्षमता बढ़ती है। दलित समझते हैं कि मैं भी इस समाज का नागरिक हूं। अभी तो वह प्रजा है, ऐसा समझ रहा है। उससे कहा जाता है, कि मैं तुम्हारे लिए निर्णय लूंगा… मैं ये करूंगा। यानी सब दूसरा करेगा और मैं केवल रिसीविंग एंड पर रहूंगा। मैं एक मूकदर्शक और मेरे लिए कोई दूसरा करता रहे। हमारा सत्तर इकत्तर साल का लोकतंत्र हो गया है। उसमें दलित निर्णय लेने की क्षमता चाहता है। वह चाहता है कि मैं भी उन संस्थाओं में जाऊं जहां निर्णय लेकर अपने समाज का भला कर सकूं। क्या वह अवसर उसको मिल रहा है। अगर नहीं मिलेगा तो समाज में समरसता नहीं आएगी। आप राजा बने रहें, वह रंक, ऐसा अब नहीं चलने वाला। इससे डेमोक्रेसी नहीं आएगी। ये जो राजा हैं वे रंक बनें और आज जो रंग हैं वे भी राजा बनने की स्थिति में आएं… ये जो आदान-प्रदान की स्थिति है, वह चाहिए। कभी तुम राजा, कभी हम राजा। तब लोकतंत्र भी पल्लवित और सृजित होगा और समाज भी वास्तविकता में समरस और विकसित होगा। आप दलितों के गुस्से को समग्रता से देखिए। उसे एकांगी बनाकर किसी एक मुद्दे से जोड़कर देखना ठीक नहीं।