प्रदीप सिंह/जिरह

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अचानक लाहौर यात्रा के बाद से ही भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को पठानकोट जैसी किसी घटना की आशंका थी। बल्कि कहें कि इंतजार था तो गलत नहीं होगा। इसके बावजूद पठानकोट में भारतीय वायुसेना के ठिकाने पर हमला हुआ। घटना से ज्यादा चिंता की बात है कि आतंकवादी एयरफोर्स बेस की सुरक्षा को भेदने में कामयाब हो गए। जहां मुठभेड़ हो रही थी वहां से लड़ाकू विमानों तक पहुंचने में आतंकवादियों को केवल पांच मिनट लगते। यह घटना आंतरिक सुरक्षा की हमारी तैयारी की खामियों को उजागर करती है। इतनी बड़ी मात्रा में हथियार और गोलाबारूद लेकर आतंकवादियों का एयर फोर्स बेस में घुस जाना प्रधानमंत्री को भी समझ में नहीं आ रहा है। नौ जनवरी को वे पठानकोट एयर बेस पहुंचे तो बार बार यही जानना चाहते थे कि आतंकवादी घुसे कैसे? अभी तक किसी के पास उसका संतोषजनक जवाब नहीं है। इस पूरे आॅपरेशन को लेकर भी कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। मसलन कि आतंकवादियों के पठानकोट पहुंचने की सूचना मिलने के बाद सुरक्षा और जांच की व्यवस्था चाकचौबंद क्यों नहीं की गई। सेना के होते हुए नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (एनएसजी) को आॅपरेशन की कमान क्यों सौंपी गई। कमान में तीन बार बदलाव क्यों हुआ और इसके अलावा भी कई सवाल हैं।
भारत में आतंकवादियों को भेजने और हमले के लिए पाकिस्तान की नजर इस समय पंजाब पर है। पंजाब में मादक पदार्थों का सेवन और तस्करी उसके सबसे बड़े मददगार हैं। इस मामले में भी माना जा रहा है कि गुरदासपुर के एसपी सलविंदर सिंह और उनके साथी दरअसल इसी सिलसिले में वहां पहुंचे थे। पंजाब ड्रग माफिया के शिकंजे में है। और हालात दिन दिन खराब होते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेडियो पर अपने मन की बात कार्यक्रम में इसका जिक्र भी किया था। उस समय उम्मीद बंधी थी कि केंद्र सरकार इस मामले में कुछ करेगी। लेकिन कुछ हुआ नहीं। राज्य में अकाली दल और भाजपा की गठबंधन सरकार है। मुख्यमंत्री के करीबी और राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्री के खिलाफ इस मामले में जांच चल रही है। वैसे यह जांच भी ऐसे चल रही है जो कहीं पहुंचती हुई नहीं दिख रही। पंजाब में राजनेता, पुलिस, प्रशासनिक अधिकारियों का ड्रग माफिया से गठजोड़ है। इसलिए राज्य सरकार की चुप्पी का कारण तो समझ में आता है। लेकिन केंद्र सरकार की चुप्पी डराने वाली है। नशा पंजाब की पूरी युवा पीढ़ी को बर्बाद कर रहा है, वहां के सामाजिक जीवन को प्रभावित कर रहा है और अब देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन गया है। पंजाब में पिछले कुछ महीने में यह दूसरी आतंकवादी घटना है। इसके बावजूद पंजाब सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है कि सब कुछ ठीक है। राज्य सरकार ने अपने अधिकारियों के खिलाफ जो भी कदम उठाए हैं वे राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी (एनआईए) के दबाव में। प्रदेश में अगले साल फरवरी मार्च में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसा लगता है कि भाजपा ने अकाली दल के साथ सती होने का मन बना लिया है। लेकिन यह मामला केवल राजनीतिक नफेनुकसान तक सीमित नहीं है। यह देश की सुरक्षा का मामला है। पर केंद्र सरकार की ओर से कोई तत्परता नजर नहीं आती।
पठानकोट ने प्रधानमंत्री की लाहौर यात्रा से उपजी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। अब पाकिस्तान से आगे होने वाली बात इस पर निर्भर है कि वह पठानकोट हमले के दोषियों (जो पाकिस्तान में हैं) पर क्या कार्रवाई करता है। अभी तक मिले सबूतों से साफ हो चुका है कि यह कारनामा जैश-ए- मुहम्मद का है। इस हमले से जुड़े सबूत भारत दे चुका है। पाकिस्तान पर इस समय कार्रवाई का अंतरराष्ट्रीय दबाव भी है। पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने जिस तत्परता से इस संबंध में अपने अधिकारियों की बैठकें बुलाई हैं उससे ऊपरी तौर पर लगता है कि वह गंभीर हैं। लेकिन कड़वी सचाई यह है कि पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार उतनी दूर तक ही जाएगी जितना उसकी सेना उसे जाने देगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाहौर में जब नवाज शरीफ से मिले थे तो कहा था कि जंग से हमें न तो जन्नत मिली और न जमीन। सवाल है कि बातचीत से क्या मिला? लेकिन यह सवाल कोई नहीं पूछेगा क्योंकि बातचीत से आतंकवाद के मसले पर कुछ नहीं होने वाला। पर बातचीत से दोनों देशों को अलग तरह के फायदे हैं। पाकिस्तान को यह फायदा है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर उसकी आलोचना नहीं होगी। और उसे आर्थिक और सैनिक मदद मिलती रहेगी जिसके बिना उसकी अर्थव्यवस्था और सेना दोनों संकट में पड़ जाएंगे। भारत को फायदा यह है कि देश में अमन का माहौल रहेगा तो विदेशी निवेश और अर्थव्यस्था दोनों ठीक रहेंगे। इसे समझने के लिए संसद पर हमले के बाद सीमा पर सेना के तैनात होने से हुए नुकसान से समझा जा सकता है। आर्थिक जानकारों का मानना है कि उससे देश की जीडीपी का दो फीसदी का नुकसान हुआ था। इसलिए मानकर चलिए कि आतंकवाद भी चलेगा और बातचीत भी, भले ही रुक रुक कर चले।