अनूप भटनागर

लाभ के पद पर होने की वजह से आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता समाप्त होने के मामले में पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व उनके समर्थक नाहक ही विलाप कर रहे हैं। दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत हासिल करने वाले अरविंद केजरीवाल बहुत अधिक दंभ में थे। उन्होंने अपने विधायकों को एकजुट रखने की मंशा से ही यह कदम उठाया था। लाभ के पद पर आसीन सांसदों और विधायकों की सदस्यता रद्द होने का यह पहला मामला नहीं है। हां, पहली बार एक साथ इतने विधायकों की सदस्यता गई है। इससे पहले लाभ के पद की चपेट में आने की वजह से कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था जबकि राज्यसभा में सपा की सदस्य जया बच्चन को लाभ के पद पर होने की वजह से अपनी सदस्यता गंवानी पड़ी थी।

संविधान के अनुच्छेद 102 में लाभ के पद पर आसीन व्यक्ति संसद या विधानमंडल के सदस्य के रूप में निर्वाचित होने या सदस्य बने रहने के अयोग्य होता है। हालांकि इस अनुच्छेद में प्रदत्त स्पष्टीकरण के अनुसार केंद्र और राज्य सरकार मे मंत्री पद पर आसीन व्यक्ति लाभ के पद के दायरे में नहीं आएगा। अनुच्छेद 103 के अनुसार किसी सांसद या विधायक के लाभ के पद पर आसीन होने की स्थिति में उसकी सदस्यता खत्म करने के लिए राष्ट्रपति के समक्ष ही प्रतिवेदन करना होगा। राष्ट्रपति ऐसे मामले पर कोई निर्णय करने से पहले उसे निर्वाचन आयोग के पास उसकी राय जानने के लिए भेजेंगे और वह आयोग से प्राप्त राय के अनुसार कार्य करेंगे।

आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों के मामले में भी यही प्रक्रिया अपनाई गई लेकिन आदत से मजबूर केजरीवाल और उनकी हां में हां मिलाने वाले पार्टी नेताओं ने अपने चिरपरिचित अंदाज में ‘सब मिले हुए हैं’ का राग अलापना शुरू कर दिया। कई बार तो केजरीवाल के विलाप से ऐसा लगता है कि मानो लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर उस व्यक्ति का कार्यालय किसी न किसी से मिला हुआ है जो उनकी निरंकुशता पर लगाम लगाने का प्रयास करे। जहां तक राज्यों में संसदीय सचिव नियुक्त करके उन्हें मंत्री का दर्जा और सुविधाएं देने का मुद्दा है तो यह सिलसिला काफी लंबे समय से चल रहा है। संसदीय सचिव का पद लाभ के दायरे में आने के आधार पर इस पद पर की जाने वाली नियुक्तियों को राज्यों के हाई कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 164(1ए) के प्रावधान के आधार पर चुनौती दी जाती रही है। ऐसी स्थिति में अनुच्छेद 164 (1ए) के प्रावधान के बारे में समझना भी जरूरी है। संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए पूर्व प्रधान न्यायाधीश एमएन वेंकटचलैया की अध्यक्षता में गठित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में जनता के धन का दुरुपयोग रोकने के इरादे से राज्यों में मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या सीमित करने की सिफारिश की थी। इस सिफारिश के आधार पर ही 91वें संविधान संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 75 और 164 में 1ए जोड़ा गया। अनुच्छेद 75 (1ए) के अंतर्गत केंद्र में प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या 15 फीसदी से अधिक नहीं होगी। इसी तरह राज्यों की मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या विधानमंडल के सदस्यों की कुल संख्या के 15 फीसदी तक ही सीमित रहेगी।

जहां तक दिल्ली का संबंध है तो अनुच्छेद 239ए (ए) के अंतर्गत विधानसभा के कुल सदस्यों के आधार पर मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या 10 फीसदी से अधिक नहीं हो सकती है। इसका मतलब यह हुआ कि दिल्ली में मुख्यमंत्री सहित सिर्फ सात मंत्री हो सकते हैं लेकिन केजरीवाल ने 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति कर विधायकों को संतुष्ट करने का प्रयास किया और इसी चक्कर में 20 विधायकों को अपनी सदस्यता गंवानी पड़ी। वास्तविकता तो यह है कि पहले जहां राज्यों में मुख्यमंत्री की मदद के लिए एक या दो संसदीय सचिव नियुक्त होते थे वहीं अब मंत्रिमंडल में जगह पाने में असफल रहे विधायकों को संतुष्ट रखने के प्रयास में बड़ी संख्या में संसदीय सचिव नियुक्त करने का सिलसिला चल रहा है। इसमें दिल्ली ही नहीं बल्कि राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल सहित अनेक राज्यों में सत्तारूढ़ दल ने बड़ी संख्या में संसदीय सचिव नियुक्त करने का रास्ता चुना लेकिन अधिकांश मामलों में इन दलों को मुंह की खानी पड़ी।
बंबई हाई कोर्ट की गोवा पीठ ने गोवा में दो संसदीय सचिवों की नियुक्ति को अवैध ठहराते हुए कहा था कि कैबिनेट मंत्री के दर्जे के साथ संसदीय सचिवों की नियुक्तियों से संविधान के अनुच्छेद 164 (1ए) का उल्लंघन होता है। इसी तरह कलकत्ता हाई कोर्ट ने भी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार द्वारा 13 विधायकों की संसदीय सचिव के पद पर नियुक्ति निरस्त की थी। हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने भी 2005 में वीरभद्र सिंह सरकार द्वारा विधायकों की संसदीय सचिव पद पर नियुक्ति निरस्त की थी। लाभ के पद पर आसीन होने वाले सांसद या विधायक के मामले लगातार निर्वाचन आयोग के पास पहुंचते रहते हैं लेकिन इस संबंध में महानायक अमिताभ बच्चन की पत्नी और सपा से राज्यसभा की सदस्य जया बच्चन के इसकी चपेट में आने और निर्धारित प्रक्रिया संपन्न होने के बाद मार्च 2006 में निर्वाचन आयोग की सिफारिश पर उन्हें अयोग्य घोषित करने के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का निर्णय काफी चर्चित रहा था।

जया बच्चन राज्यसभा की सदस्य होते हुए उत्तर प्रदेश फिल्म विकास निगम की अध्यक्ष भी थीं। इसी मामले में राष्ट्रपति के पास प्रतिवेदन करके उन्हें राज्यसभा की सदस्यता के अयोग्य घोषित करने का अनुरोध किया गया था। हालांकि जया बच्चन इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट भी गई थीं लेकिन 8 मई, 2006 को उनकी याचिका खारिज हो गई थी। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाईएस सभरवाल की पीठ ने याचिका खारिज करते हुए कहा था कि 1954 से ही इस संबंध में कानूनी व्यवस्था स्पष्ट है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि अमुक व्यक्ति को वास्तव में कोई आर्थिक लाभ मिला या नहीं मगर महत्वूपर्ण यह है कि जिस पद पर व्यक्ति आसीन है, क्या वह लाभ के पद के दायरे में आता है।
इसके तुरंत बाद ही यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष पद पर तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लाभ के पद पर आसीन होने के मुद्दे ने जोर पकड़ा था। इस विवाद के आगे बढ़ने से पहले ही सोनिया गांधी ने 23 मार्च, 2006 को राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष पद और लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। सोनिया गांधी प्रकरण के बाद संसद (अयोग्यता से संरक्षण) कानून, 1959 में संशोधन किया गया। संशोधित कानून 18 अगस्त, 2006 से प्रभावी हुआ। इसके बाद सोनिया गांधी फिर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष बन गई थीं। इस संशोधित कानून के अंतर्गत 56 पदों को लाभ के पद के दायरे से बाहर कर दिया गया था।

66 से 46 कैसे हुए एके
हमारे विशेष संवाददाता सुनील वर्मा की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में आप सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। संसदीय सचिव बनाए गए बीस विधायकों की सदस्यता रद्द हो चुकी है जबकि ‘रोगी कल्याण समिति अध्यक्ष’ मामले में सत्रह विधायकों का भविष्य भी अधर में लटका हुआ है।

ईमानदारी का चेहरा दिखाकर आंदोलन की कोख से निकली आम आदमी पार्टी ने दिल्‍ली में प्रचंड बहुमत हासिल कर सियासत का चेहरा बदल दिया था। उस ईमानदारी से विश्‍वास घात करने के कारण ‘आप’ के दिल्‍ली में 20 विधायकों की मान्‍यता चुनाव आयोग और राष्‍ट्रपति ने रद्द कर दी है।

ये सभी विधायक 13 मार्च, 2015 से 8 सितंबर, 2016 तक संसदीय सचिव पद पर थे, जिसे ‘लाभ का पद’ माना गया है। दिल्ली की सत्ता पर काबिज आप सरकार को भले ही कोई खतरा न हो मगर उसके लिए यह अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक झटका है। ‘एके’ यानी अरविंद केजरीवाल के साथ अब 46 विधायक बचे हैं। फैसले के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में आप के 20 में से 8 विधायकों याचिका दायर कर राष्ट्रपति की अधिसूचना पर रोक लगाने और चुनाव आयोग को उप चुनाव की अधिसूचना जारी करने से रोकने का अनुरोध किया साथ ही अदालत से कहा कि चुनाव आयोग ने फैंसले से पहले उनका पक्ष पूरी तरह से नहीं सुना और पूर्वाग्रह के तहत उनकी सदस्यता रद्द कर दी। जस्टिस एस रविन्द्र भट की बेंच ने आप के याचिका कर्ता विधायकों के अनुरोध पर चुनाव आयोग को ये निर्देश तो जारी कर दिया कि वह इस याचिका के निपटारे तक इन अयोग्य हुए विधायकों की सीट पर किसी तरह के उपचुनाव कराने की सूचना जारी न करें। साथ ही अदालत ने चुनाव आयोग समेत केन्द्र सरकार के उन सभी मंत्रालयों को भी नोटिस जारी कर अपना जवाब दाखिल करने का आदेश दे दिया जो चुनाव आयोग में सुनवाई की प्रक्रिया से जुड़े थे। हाईकोर्ट के इस आदेश से ये संदेश तो साफ कि वह जल्द से जल्द इस मामलें की सुनवाई करेगी लेकिन राष्ट्रपति की अधिसूचना पर रोक लगेगी इसमें शंका है। हाईकोर्ट से रहात नहीं मिलने के बाद आप के पूर्व विधायकों के पास सुप्र्रीम कोर्ट में अपील का विकल्प भी मौजूद है। लेकिन ये तय है कि अगर वहां से भी राहत नहीं मिली तो अगले कुछ महीनों के भीतर दिल्‍ली की इन सभी 20 सीटों पर उप चुनाव होना तय है। उप चुनाव के बहाने दिल्‍ली की सत्‍ताधारी पार्टी ‘आप’ समेत बीजेपी और कांग्रेस का 2019 से पहले होने वाला ये टेस्‍ट साबित करेगा कि 2020 में होने वाले दिल्‍ली विधानसभा चुनाव में जनता किस पार्टी को दिल्‍ली की कमान सौंपेगी।

फरवरी 2015 में सरकार बनाने के बाद ‘आप’ ने मार्च 2015 में अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाकर ऐसी सुविधाएं देने की भूल की थी जिस पर कांग्रेस तथा बीजेपी के विरोध के बाद प्रशांत पटेल नाम के एक युवा वकील ने चुनाव आयोग में इन 21 विधायकों की विधानसभा सदस्‍यता रद्द करने की याचिका दायर की। इस मामले में पहले 21 विधायकों की संख्या थी, लेकिन जरनैल सिंह ने पंजाब में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए दिल्ली विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। ऐसे में संसदीय सचिव बने विधायकों की संख्या 20 ही रह गई थी। जिन 20 विधायकों की मान्‍यता रद्द हुई है, उनमें नजफगढ़ के विधायक कैलाश गहलौत भी हैं जिन्‍हें छह महीना पूर्व कपिल मिश्रा को हटाने के बाद परिवहन मंत्रालय का जिम्‍मा सौंपा गया था। नियम के मुताबिक छह महीने तक गहलौत मंत्री पद पर बने रह सकते हैं। 20 विधानसभा क्षेत्रों में उप चुनाव हुए तो न सिर्फ ‘आप’ और केजरीवाल की परीक्षा होगी वरन् ये भी संकेत मिल जाएंगे कि दिल्‍ली की जनता भविष्‍य में किस राजनीतिक दल को दिल्‍ली की कमान सौंपना चाहती है। लेकिन फिलहाल केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेता अपने विधायकों की सदस्‍यता गंवाने के मुद्दे को भी केंद्र सरकार के अत्‍याचार से लड़ते हुए इसे अपने विधायकों की शहादत के रूप में पेश कर रहे हैं।

लंबी चली कानूनी लड़ाई
आप ने 13 मार्च 2015 को अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया था। जिसके खिलाफ अधिवक्‍ता प्रशांत पटेल ने मई 2015 में दिल्‍ली हाईकोर्ट के समक्ष एक जनहित याचिका डाली। साथ ही उन्‍होंने 19 जून 2015 को राष्ट्रपति के पास भी इन संसदीय सचिवों की सदस्यता रद करने के लिए आवेदन किया। 8 सितंबर 2016 को अदालत ने 21 आप विधायकों की संसदीय सचिवों के तौर पर नियुक्तियों को खारिज कर दिया। अदालत ने पाया कि इन विधायकों की नियुक्ति का आदेश उपराज्यपाल की मंजूरी के बिना दिया गया था। दूसरी ओर राष्‍ट्रपति ने 22 जून 2017 को प्रशांत पटेल की शिकायत चुनाव आयोग को भेजकर संवैधानिक प्रकिया के मुताबिक अपनी राय देने के लिए कहा। इस शिकायत में कहा गया था कि संसदीय सचिव का पद ‘लाभ का पद’ है इसलिए आप विधायकों की सदस्यता रद की जानी चाहिए। चुनाव आयोग ने दिल्ली के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर पूछा कि इन संसदीय सचिवों पर सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा किए गए व्यय की जानकारी दें। चुनाव आयोग ने आप विधायकों को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया और उनसे पूछा कि मुख्य सचिव के दिए ब्योरे के बारे में उन्हें क्या कहना है। उन्हें तकरीबन छह माह का समय भी दिया था। लेकिन आप विधायक जवाब देने में टाल मटोल और चुनाव आयोग की प्रक्रिया को रुकवाने का प्रयास करते रहे। इस वजह से मामले को अंजाम तक पहुंचने में इतनी कानूनी पेचीदगियां सामने आर्इं। चुनाव आयोग को अपनी रिपोर्ट राष्टÑपति के भेजने और उन्हें फैसला लेने में ढाई साल से ज्‍यादा का वक्‍त लग गया।

हांलाकि दिल्ली सरकार ने आॅफिस आॅफ प्रॉफिट के आरोप से बचने के लिए 24 जून को दिल्ली असेंबली का विशेष सत्र बुलाकर रिमूवल आॅफ डिस्क्वॉलिफिकेशन एक्ट-1997 में संशोधन करके इन विधायकों की सदस्यता बचाने की कोशिश की। इस संशोधन का मकसद संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद से पिछली तारीख से छूट दिलाना था। इसी खामी के कारण जब बिल को उपराज्यपाल ने मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा तो राष्‍ट्रपति ने बिल को स्वीकृति देने से इनकार करके वापस भेज दिया। दरअसल यह संशोधन विधेयक लाकर केजरीवाल सरकार ने यह मान लिया कि संसदीय सचिवों के पद लाभ के हैं और उनकी नियुक्ति कानून का उल्लंघन है।

विरोधाभासी हलफनामों ने फंसाया!
पहले ये समझना जरूरी है कि संसदीय सचिव क्यों बनाए जाते हैं। दरअसल कानूनन मंत्रियों की संख्या विधान सभा के सदस्यों की संख्या का 15 फीसदी ही हो सकती है। दिल्ली में ये 10 फीसदी है। इसलिए जनता व सरकार से जुड़े कामकाज तेजी से निपटाने के लिए मंत्रियों की मदद के लिए सरकार संसदीय सचिव नियुक्त कर सकती है। सरकार सभी मंत्रालयों में संसदीय संचिव की नियुक्ति कर सकती है। आप सरकार ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव पद पर नियुक्त करके ऐसा ही किया। केजरीवाल सरकार ने 21 विधायकों को मार्च 2015 को दिल्ली सरकार में संसदीय सचिव के पद पर नियुक्ति दी । नियुक्ति के तीन महीने बाद लाभ के पद का आरोप लगने पर अगर सरकार ने उनकी नियुक्ति को खुद रद्द कर दिया होता तो ये फजीहत न हुई होती। लेकिल दिल्ली सरकार ने ऐसा न करके एक के बाद एक ऐसी कई गल्तियां दोहरार्इं कि उसकी चौतरफा किरकिरी हुई। मामला अदालत और चुनाव आयोग के पास जाने के दौरान दिल्‍ली सरकार और विधानसभा अध्‍यक्ष की तरफ से ऐसे विरोधाभासी दस्‍तावेज और हलफनामे जारी किए गए जिससे सरकार खुद ही इन नियुक्तियों को लेकर फंसती चली गई। एक तरफ कहा गया कि संसदीय सचिवों को कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं दी गई। इसलिए उनके खिलाफ लाभ के पद का कोई मामला नहीं बनता। जबकि दिल्ली विधानसभा के केअरटेकिंग ब्रांच में डिप्टी सेक्रेटरी मंजीत सिंह की ओर से 23 फरवरी 2016 को एक चिट्ठी लिखकर उपराज्यपाल नजीब जंग के सचिव को सूचित किया गया कि ‘दिल्ली सरकार के निवेदन पर संसदीय सचिवों को विधानसभा में कुछ कमरे और फर्नीचर देना निर्धारित किया गया है।’
इधर दिल्ली सरकार ने भी ये हलफनामा दिया था कि संसदीय सचिवों को कोई लाभ नहीं दिया गया। सवाल उठा कि अगर ऐसा था तो सरकार ने विधानसभा सचिवालय से इन सचिवों को कमरे व फर्नीचर देने का निवेदन क्यों किया। विधानसभा अध्यक्ष का झूठ ये था कि उन्होंने चुनाव आयोग में हलफनामा देकर कहा था कि इन विधायकों को कमरे उनकी सदस्यता के कारण अपनी तरफ से दिए न कि सरकार के निवेदन पर संसदीय सचिव की हैसियत से। दिल्‍ली सरकार ने 21 विधायकों को जब संसदीय सचिव बनाने की घोषणा की थी तो जारी नोटिफिकेशन में कहा था कि जिस मंत्री के साथ संसदीय सचिव जुड़ा होगा उसके दफ़्तर में ही काम करने के लिए संसदीय सचिव को जगह मिलेगी। उन्हें किसी तरह का वेतन या अतिरिक्त सुविधा नहीं दी जाएगी। सरकार एक के बाद एक गल्तियां करके इस मामले में खुद ही फंसती चली गई।

मुसीबत अभी बाकी
संसदीय सचिव बने 20 विधायकों की मान्‍यता लाभ के पद पर रहने के आरोप में रद्द होने के बाद भी केजरीवाल सरकार तो सलामत रहेगी लेकिन ये उसकी मुसीबतों का अंत नहीं है। क्‍योंकि अभी भी आप के 27 और विधायकों के खिलाफ लाभ के पद पर होने की एक शिकायत की सुनवाई चुनाव आयोग में चल रही है। दरअसल, संसदीय सचिव बनाने के बाद अपने 27 विधायकों को दिल्ली के सरकारी अस्पतालों की ‘रोगी कल्याण समिति’ का अध्यक्ष बनाकर सरकार ने एक और गल्ती कर दी थी। दिल्ली सरकार ने ‘रोगी कल्याण समिति’ के अध्यक्ष बने ‘आप’ विधायकों को फिर से कुछ सुविधाएं दीं जिसके कारण उनके खिलाफ भी लाभ के पद का विवाद खड़ा हो गया। राष्ट्रपति के पास इन 27 विधायकों को अयोग्य ठहराने के लिए अर्जी भेजी गई। इस शिकायत को जांच करने के आदेश के साथ दिल्ली राज्य चुनाव आयोग के पास भेज दिया गया। दिल्‍ली चुनाव आयोग ने इन सभी 27 विधायकों को नोटिस जारी कर 11 नवंबर 2016 तक अपना जवाब दाखिल करने के लिए कहा था। लेकिन अभी तक सभी विधायकों ने जवाब दाखिल नहीं किए हैं और मामले को कानूनी दांव पेंच में उलझा रहे हैं।
दरअसल लाभ के पद पर जिन 27 विधायकों को रोगी कल्याण समिति का अध्यक्ष बनाया गया है, उनमें वे दस विधायक भी शामिल हैं जिनके खिलाफ संसदीय सचिव के रूप में नियुक्ति लेकर लाभ हासिल करने का आरोप लगा और अब उनकी सदस्‍यता खत्‍म हो चुकी है। इस तरह देखा जाये तो अभी भी ऐसे 17 विधायक हैं जिनका भविष्य अधर में झूल रहा है। देर सबेर इन पर भी चुनाव आयोग अपना फैसला सुना देगा जिसके बाद ये तय हो जाएगा कि ‘आप’ के इन 17 विधायकों की विधानसभा सदस्यता रहेगी या जाएगी। 