प्रमोद जोशी।
मीडिया की नजर में बुरहान वानी कश्मीर में हिज्बुल मुजाहिदीन का पोस्टर बॉय था। उसकी मौत के साथ आतंकवाद का एक अध्याय खत्म हुआ तो दूसरा शुरू हो गया है। कहा जा रहा है कि उसकी कब्र अब कश्मीरी अलगाववादी आंदोलन का चिराग बनेगी। ऐसा हो या न हो, पर किया क्या जा सकता है? वह बंदूक लेकर निकला था। मौत के एकाध दिन पहले उसने ट्वीट किया था ‘सिर्फ एक समाधान है, बंदूक!’ शायद यह बात लड़कपन में उसने लिखी हो, पर कोई तो उसका फायदा उठाता। इतने लोगों की मौत के जिम्मेदार वे भी तो हैं। यह सब इसलिए ताकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान उसकी ओर जाए। यही पाकिस्तानी आईएसआई की योजना है। हिंसा की यह लहर किसी बड़ी साजिश का हिस्सा है।

कश्मीरी नौजवानों को जनमत संग्रह की मांग के नाम पर उकसाया जा रहा है। दरअसल यह कोई मांग नहीं सीधे-सीधे तश्तरी में रखकर कश्मीर पाकिस्तान के हवाले करने का ब्लैकमेल संदेश है। पर इसकी बात आज क्यों कर रहे हैं? यह तो 1948-49 में ही हो जाना चाहिए था। और तब नहीं हुआ तो अब कैसे होगा? क्या कश्मीर के वे लोग जिन्दा बचे हैं, जिन्होंने पाकिस्तानी सेना और कबायली हमले को झेला था? कश्मीर में जो जनमत संग्रह नहीं हो पाया उसके बारे में भी बात करनी चाहिए। यह जनमत संग्रह संयुक्त राष्ट्र के एक आयोग के मार्फत होना था। उसके लिए सबसे पहले पाकिस्तान को उसके कब्जे वाले कश्मीर से अपनी सेनाएं हटानी थीं। भारत को अपने कब्जे वाले कश्मीर में न्यूनतम सेना रखनी थी। ऐसा नहीं हुआ।

कश्मीर का मसला यदि बातचीत से हल होना था तो पाकिस्तान को कश्मीर पर हमला नहीं करना चाहिए था। पाकिस्तान ने पहले कश्मीर के राजा के साथ स्टैंडस्टिल समझौता किया था। बाद में उसे तोड़ा। एक बात और समझनी चाहिए, राजा हरि सिंह ने जिस संधि पत्र पर दस्तखत किए थे, उसमें जनता की राय लेने की कोई शर्त नहीं थी। संधि पत्र का स्टैंडर्ड फॉर्मेट था। बुरहान वानी भारत के खिलाफ युद्ध कर रहा था। युद्ध में मौत भी होती है। हमारे भी तमाम जवान शहीद हुए हैं। वानी निशस्त्र प्रतिरोध नहीं कर रहा था।

कश्मीरी अलगाववादियों ने इसे धार्मिक युद्ध का रूप दे दिया है। कश्मीर का आंदोलन धर्मनिरपेक्ष आंदोलन नहीं है। वहां केवल मुसलमान ही नहीं रहते। और श्रीनगर की घाटी ही पूरा कश्मीर नहीं है। यह आंदोलन कश्मीर को पाकिस्तान बनाने के लिए है, जनता की राय बनाने के लिए नहीं। व्यावहारिक सच यह है कि आज जनमत संग्रह सम्भव नहीं है। भारत-पाकिस्तान और दुनिया के अनेक समझदार लोग यह बात मानते हैं। इसका फैसला दोनों देशों के नेता बैठकर कर सकते हैं, पर पाकिस्तान की फौज का प्रभावी तबका यह बात मानने को तैयार नहीं है। वह चाहता है कि तश्तरी में रखकर कश्मीर उसे सौंप दिया जाए। इसके लिए आईएसआई के पास काफी बड़ा बजट है।

पाकिस्तान की फौज कम से कम चार बार इस समस्या का समाधान हथियार के बल पर करने की कोशिश कर चुकी है। सबसे पहली कोशिश 1947 में की गई। यदि बात से समस्या का निपटाना करना था तो तभी बात करनी चाहिए थी। यह हमारी सम्प्रभुता का सवाल भी है। जिस आउटडेटेड जनमत संग्रह की बात आप सुन रहे हैं उसमें कश्मीर की स्वतंत्रता का कोई विकल्प नहीं है। उसमें या तो पाकिस्तान में जाने का विकल्प है या भारत से जुड़ने का।

भारतीय संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा। हमारी सम्प्रभुता का सवाल भी है।

बहरहाल इसपर देश को विचार करना चाहिए और खुले दिमाग से करना चाहिए। कश्मीरियों को भी इसमें शामिल करना चाहिए। पर यदि हमारी बंदूक गलत है तो उसके पहले पाकिस्तानी बंदूक गलत है। जिनके कंधे पर पाकिस्तानी बंदूक रखी है वे भी गलत हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर में बंदूक चलाने वालों को साजो-सामान पाकिस्तान से मिलता है।