वीरेंद्र नाथ भट्ट।

बहुजन समाज पार्टी से नेताओं का अलग होना या निकाला जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे नेताओं की लम्बी श्रृंखला है जो विभिन्न कारणों से पिछले दो दशकों में पार्टी से या तो निकाले गए या अलग हो गए और अधिकांश प्रदेश के राजनीतिक बियाबान में गुम हो गए। उसमें तमाम ऐसे नेता भी थे जो बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम के समय के साथी थे। हाल में बसपा से बगावत करने वालों में पासी जाति के प्रमुख नेता और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव आर. के. चौधरी भी हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य भी पिछले बीस वर्षो से अधिक समय से बसपा में थे।
लेकिन इन दो नेताओं की पार्टी से बगावत बड़ी घटना बन गई है। पहली बार राजनीतिक विश्लेषक कह रहे हैं कि प्रश्न यह नहीं है कि मौर्य और चौधरी का क्या हश्र होता है बल्कि सवाल है कि इस बगावत का बसपा पर कितना असर पड़ेगा।

बसपा अपने स्थापना काल से ही सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति करती रही है। अगस्त 2003 में ताज हेरिटेज कॉरिडोर घोटाले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीबीआई जांच के आदेश के बाद इस्तीफा देने के बाद से ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने जाति आधारित राजनीति को और धार देते हुए सवर्ण समुदाय का समर्थन हासिल करने के लिए ‘सर्व समाज’ का नारा दिया था और पार्टी के राज्यसभा सांसद सतीश मिश्र को बसपा के ब्राह्मण नेता के रूप में स्थापित किया। 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को इसका लाभ भी मिला और उत्तर प्रदेश के इतिहास में पहली बार किसी क्षेत्रीय दल ने पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सरकार बनाई। यहां इस तथ्य का उल्लेख भी जरूरी है कि 2007 में बसपा को केवल तीस प्रतिशत मत मिले थे और पार्टी को विधानसभा में 206 सीटें मिली थीं। 1952 से 2007 तक देश के किसी भी राज्य यह पहली बार हुआ था कि इतने कम वोट मिलने पर भी किसी पार्टी ने विधानसभा में पूर्ण बहुमत हासिल किया। लेकिन 2012 में सपा ने बसपा के इस कीर्तिमान को ध्वस्त कर दिया। केवल 29.1 प्रतिशत मत प्राप्त कर सपा ने विधानसभा में 224 सीटें जीत कर पूर्ण बहुमत हासिल किया था।

मायावती 2003 से सर्व समाज की राजनीति कर रही हैं। लेकिन वक़्त और राजनीतिक मजबूरी की स्थिति में वह सर्व समाज यानी सवर्ण मनुवाद को कोसने से भी परहेज नहीं करती हैं। मौर्य और चौधरी के इस्तीफे की मीडिया में चर्चा को उन्होंने मनुवादी मीडिया की साजिश बताया और दावा किया कि बसपा की सेहत पर नेताओं के आने जाने का असर नहीं पड़ता है। उन्होंने कहा कि मीडिया को तो बसपा के खिलाफ खबर की हमेशा से तलाश रहती है और किसी भी घटना को तुरंत तिल का ताड़ बना देती है।

आज बसपा के समर्थक भी दबी जबान से यह मान रहे हैं कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा का किला भले ही बच जाए उसमें दरार तो आ ही गई है। मौर्य और चौधरी के अलग होने से बसपा का सामाजिक समीकरण गड़बड़ा गया है। अब बसपा के पास कोई बड़ा पासी चेहरा नहीं है और न ही मौर्य/शाक्य/काछी समाज के लिए कोई चेहरा बचा है। बहुजन समाज पार्टी का इतिहास रहा है कि नेता पैदा करने में इस पार्टी को ज्यादा समय नहीं लगता है। लेकिन सत्ता में रहते नेता खड़ा करना एक बात है। और विपक्ष में रहते हुए विधानसभा चुनाव के छह माह पहले नेता खड़ा करना दूसरी बात।

इन दो नेताओं के जाने से जो शून्य पैदा हुआ है उसे चुनाव के पहले भर पाना बहुत मुश्किल होगा और बसपा को चुनाव में इसका नुकसान होना तय है। जेएनयू में प्रोफेसर डॉ. विवेक कुमार का तर्क है कि बसपा नेता आधारित नहीं बल्कि विचारधारा आधारित पार्टी है और लोग नेता से नहीं विचारधारा से जुड़ते हैं। बसपा ने स्वामी प्रसाद मौर्य समेत अनेक लोगों को जर्रे से अफताब बनाया वरना मौर्य को राजनीति में जानता कौन था।
मौर्य के अलग होने से बसपा की सोशल इंजीनियरिंग और वोटों के अंकगणित को झटका लगा है। यदि मौर्य बसपा से अलग हुए अन्य लोगों को इकट्ठा कर विकल्प खड़ा करने के प्रयास में सफल होते हैं तो बसपा की कठिनाई बढ़ सकती है। बसपा की ताकत सोशल इंजीनियरिंग रही है। प्रदेश के दलित वर्ग की आबादी की 55 प्रतिशत जाटव जाति के साथ अन्य दलित जातियों जैसे पासी अदि को जोड़कर बसपा ने ताकत खड़ी की। फिर अति पिछड़ी जातियों और मुस्लिम वर्ग के लोगों को टिकट देकर बसपा ने अपना आधार और मजबूत किया। बसपा के उभार के पहले अति पिछड़ी जातियां भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी के साथ थीं। बसपा में अति पिछड़ों की भागीदारी बढ़ने से इस वर्ग का बड़ा हिस्सा मायावती के साथ चला गया। कल्याण सिंह के कारण केवल लोध और कुर्मी जाति का एक हिस्सा भाजपा के साथ रहा। वहीं बसपा में अति पिछड़े वर्ग के अनेक नेता उभरे। जैसे सुखदेव राजभर जो विधानसभा के अध्यक्ष भी रहे और बसपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष रामअचल राजभर। यानी किसी भी दल को जाति विशेष का समर्थन हासिल करने के लिए उस वर्ग को प्रभावी प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा। बसपा ने यही किया भी। लेकिन जब उस नेता का कद बड़ा हो गया और वह पार्टी से बगावत कर अलग ही नहीं हुआ बल्कि मायावती पर गंभीर आरोप भी लगाए तो इसका पार्टी पर असर न पड़े- ऐसा बहुत मुश्किल है। पार्टी पर इसका असर अवश्य पड़ेगा।

मायावती या राजनीतिक विश्लेषक कुछ भी कहें 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले बहुजन समाज के नेताओं के पार्टी छोड़ने के सिलसिले को सामान्य घटना नहीं कहा जा सकता। स्वामी प्रसाद मौर्य और आर.के. चौधरी की बगावत के बाद यह सिलसिला अभी जारी है और विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव राजभर समेत अनेक नेता चुनाव के पहले पार्टी छोड़ सकते हैं। पार्टी से अलग होने वाले नेताओं का भविष्य क्या होगा इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है कि नेताओं की बगावत का 2017 के चुनाव में बसपा के प्रदर्शन पर क्या असर पडेगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में लोकसभा की एक सीट भी ना जीत पाने के बावजूद बसपा की ताकत को कम करके आंकना भूल होगी क्योंकि बसपा का 22-25 प्रतिशत वोट बैंक अभी भी उसके पीछे मजबूती से खड़ा है। बसपा की राजनीतिक ताकत सामाजिक समूहों या जातियों के साथ गठबंधन करने में निहित रही है और यही उसकी सोशल इंजीनियरिंग है। लेकिन बसपा की वर्तमान सोशल इंजीनियरिंग नीति कांशीराम की नीति से मेल नहीं खाती जिसका नारा था- जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी। फिर भी मायावती ने अपने दम पर न केवल 2007 में सत्ता हासिल की बल्कि प्रदेश की राजनीति में हनक बरकरार रखी है।

सेंटर फॉर स्टडी आॅफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक डॉ. ए.के. वर्मा का तर्क है कि ‘अब हालात बदल चुके हैं। बसपा के सामने सपा की चुनौती तो है ही, उधर भाजपा न केवल करो या मरो की शैली में चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है बल्कि बसपा की तरह सोशल इंजीनियरिंग की नीति के तहत छोटी संख्या बल के आधार पर छोटी छोटी जातियों के दलों के साथ गठबंधन कर जातिगत समीकरण साधने में लगी है। स्वामी प्रसाद मौर्य अपने पुराने साथियों को एकजुट करने की कवायद में लगे हैं। यदि वह नई पार्टी बनाते हैं तो उनके निशाने पर बसपा की सोशल इंजीनियरिंग ही होगी। बहनजी अपने पुराने सिपहसलार के हमले से अपना किला कैसे बचाती हैं यह देखना दिलचस्प होगा।