मंटो का घर

निशा शार्मा। लीक से हटकर जिन्दगी को जीने वालों में सआदत हसन मंटो का नाम शिखर पर है। मंटो ने लिखा है कि ‘ये मेरा नाम है, लेकिन कुछ लोग प्रगतिशील साहित्य को सआदत हसन मंटो भी कहते हैं। सआदत हसन मंटो का जन्म 11 मई, 1912 को पंजाब के लुधियाना जिले के समराला गांव में हुआ। वह मूल रूप से कश्मीरी थे।

सआदत हसन को लिखने का शौक था या नहीं ये तो नहीं पता पर लिखना हसन की आदत थी। कहते हैं कि सआदत हसन के क्राँतिकारी दिमाग़ और अतिसंवेदनशील हृदय ने उसे मंटो बना दिया था। लिखने को लेकर मंटो से बेहतर मंटो को कोई नहीं जानता है।

‘मैं क्यों लिखता हूं?’ सवाल का जवाब मंटो कुछ यूं देते थे -“ये एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूं, क्यों पीता हूं, लेकिन इस लिहाज़ से अलग है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं। लेकिन जब लिखता हूं तो मुझे नक़दी के रूप में कुछ ख़र्च नहीं करना पड़ता….।”

साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ मंटो ने अपनी पढ़ाई भी जारी रखनी चाही जिसके तहत उन्होंने 1934 में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। मंटो उस समय सिर्फ 22 साल के थे। हालांकि अलीगढ़ में मंटो ज़्यादा टिक नहीं सके। अमृतसर, लाहौर फिर मुंबई की ओर उनकी बेचैन रूह ने रूख किया। उन्हें शायद उस समय लगा होगा कि मुंबई उनकी मंजिल है जिसके चलते उन्होंने यहाँ कुछ पत्रिकाओं का संपादन और फ़िल्मों का लेखन किया। लेकिन मुंबई भी मंटो को चार साल से ज्यादा रोक नहीं पाई। अगर उनकी पूरी जिन्दगी को देखें तो पता लगता है कि उनकी जिन्दगी एक जगह कभी नहीं रूकी ।

मंटो उन अफ़सानानिगारों में से एक रहे हैं जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही मुल्क़ों में एकसार मशहूर हुए हैं। मंटो के नाम विवाद जरूर रहे लेकिन इस कथाकार ने औरतों पर बहुत कुछ लिखा जो शायद वैसे नहीं देखा और परखा गया जैसा की उसे परखा जाना चाहिए था।

अपनी कहानी के महिला पात्रों के चुनाव के बारे में मंटो ने कहा है, “मेरे पड़ोस में अगर कोई महिला हर दिन अपने पति से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़रा भी हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई महिला अपने पति से लड़कर और आत्महत्या की धमकी दे कर सिनेमा देखने चली जाती है और पति को दो घंटा सख़्त परेशानी में देखता हूं तो मुझे हमदर्दी होती है।”

120511074902_manto_03मंटो की सबसे छोटी बेटी नुसरत ने मंटो की कहानी ‘सड़क के किनारे’ का ज़िक्र करते हुए कहा था कि मेरे पिता औरत के दर्द को समझते ही नहीं थे अपनी लेखनी से बखूबी समझाते भी थे। नुसरत एक साक्षात्कार में कहती हैं कि “एक मर्द होने के नाते आदमी के छोड़ देने से अकेली पड़ी औरत की तकलीफ़ को वो कैसे इतनी बारीकी से समझ सके। उस कहानी को पढ़ कर मुझे ऐसा लगता है मानों उनके पुरुष देह के भीतर एक औरत की आत्मा समाई हुई थी जिसने ये सब कुछ खुद महसूस किया है।”

मंटो की कहानियों में वेश्या के रूप में औरत की रूह, उसकी आत्मा और उसकी तकलीफ़ और कराह है। वह सेक्स-राइटर कतई नहीं था, वह तो इंसानियत का फनकार था। इंसानियत, मुहब्बत, दर्द और करूणा से भरा अफसाना निगार।

मंटो ने औरत के दर्द और त्रासदी पर क़लम उठाई, मगर उसे आन्दोलन बना कर नही, बल्कि उन्होंने औरत को इन्सान की तरह पेश किया हैं और समाज से पूछा कि आख़िर उनके साथ, ख़ासकर उसके एक विशेष वर्ग और विशेष स्थितियों में ज़्यादती क्यों?

मंटो की पत्नी का नाम सफिया था, जिनके बारे में वह अक्सर अपने साक्षात्कारों में जिक्र किया करते थे। एक जग वह कहते हैं कि  ‘सफिया न होती तो मंटो कैसे होता। कोई और सफिया तो दिखाओ जो मुझ जैसे आग के गोले को अपनी हथेलियों में छुपा ले।’

मंटो को मुंहफट कहा जाता रहा है, फ़हश यानी अश्लील लिखने के लिए उन पर मुक़दमा भी चलाया गया लेकिन वह कहते हैं कि “मुझमें जो बुराईयां हैं वह इस युग की बुराईयां हैं मेरे लिखने में कोई खोट नहीं। जिस खोट को मेरे नाम किया जाता है वह कमी मौजूदा व्यवस्था की है। मैं हंगामापसंद नहीं। मैं सभ्यता, संस्कृति और समाज की चोली क्या उतारुंगा जो है ही नंगी।”

हालांकि जिससे भी मंटो की बात करो वह यही कहता है कि मंटो में बस एक ही खराब आदत थी कि वो शराब पीता था। वह बहुत जिद्दी था शराब के लिए। वो यह भी जानता था कि शराब उसकी जिन्दगी को खत्म कर देगी लेकिन फिर भी उसे वो अपनी जिन्दगी कहता था।

यह वही फनकार था जिसके नाम को लेकर भी चर्चाएं गर्म रहा करती थी। अपने नाम के विवादों में होने को लेकर मंटो ने लिखा है कि  “मैं चीज़ों के नाम रखने को बुरा नहीं समझता, मेरा अपना नाम अगर न होता तो वो गालियां किसे दी जातीं जो अब तक हज़ारों और लाखों की तादाद में अपने आलोचकों से वसूल चुका हूं। नाम हो तो गालियां और शाबाशियां देने-लेने में बहुत सहूलियत होती है।”

तैंतालीस बरस की उथल-पुथल भरी छोटी-सी जिंदगी में इस शख्स ने अपना नाम आधुनिक उर्दू कथा-साहित्य के कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई और राजिंदर सिंह बेदी जैसे स्तम्भों के साथ स्थापित कर दिया था। मंटो सिर्फ़ 42 साल जिए, लेकिन उनके 19 साल के साहित्यिक जीवन से हमें 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख दिये।

मंटो अपने समय में ही नहीं आज के समय में भी उतने ही विवादास्पद लेखक हैं जितने की उस समय रहा करते थे। 18 जनवरी 1955 में मंटो ने अपने उन्हीं तेवरों के साथ, इस दुनिया को अलविदा कह दिया जिनके साथ वह तमाम उम्र जिये। यह वही फनकार था जिसने अपनी क़ब्र की तख़्ती खुद ही लिखी थी और उस पर लिखा था “यहां मंटो दफ़्न और उसके साथ ही दफ़्न है कहानी का फ़न।”