Mamta Banerjee

Mamta Banerjeeनीले बॉर्डर वाली सफेद साड़ी, पैरों में हवाई चप्पलें पहनने और साधारण-सी दिखने वाली ममता बनर्जी हिंदुस्तान की राजनीति की शेरनी साबित हो रही हैं. वैसे तो, आक्रामक राजनीति पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की शुरू से पहचान रही है. कोलकाता में सीबीआई अधिकारियों को हिरासत में ले लेना भले ही कानून और मर्यादा का उल्लंघन हो, लेकिन यह ममता के लिए कोई नई बात नहीं है. राजनीति का यह उनका अपना अंदाज है. ममता के मौजूदा बगावती तेवर एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं. इससे वह साफ तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाले नेताओं की सूची में सबसे ऊपर पहुंच गई हैं. साथ ही, उन्होंने पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाममोर्चा को एक ऐसे चकव्यूह में फंसा दिया है, जिससे निकल पाना दोनों ही पार्टियों के लिए नामुमकिन है.

2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सक्रियता दिखाकर ममता ने यह तो बता दिया कि वह राष्ट्रीय राजनीति की एक अहम किरदार बनना चाहती हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी वह ऐसा करना चाहती थीं. तब उन्होंने अन्ना हजारे से हाथ मिलाकर राष्ट्रीय राजनीति में दखल देने की कोशिश की थी, लेकिन वह प्लान चौपट हो गया था. इस बार ममता पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरी हैं. उन्हें पता है कि राजनीति संख्या का खेल है. वह लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत कर विपक्ष की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनना चाहती हैं, ताकि अगर किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं मिला, तो वह कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनकर प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन सकें. यही वजह है कि वह एक मंझे हुए शतरंज के खिलाड़ी की तरह अपने दांव चल रही हैं.

सवाल यह है कि ममता की इस आक्रामकता के पीछे छिपी वजह क्या है? क्या वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे निकल कर मोदी को चुनौती देना चाहती हैं या फिर भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस एवं वाममोर्चा को पश्चिम बंगाल में एक साथ नेस्तोनाबूत करने में जुटी हैं? ममता की रणनीति समझने के लिए बंगाल का चुनावी समीकरण समझना बहुत जरूरी है.

पश्चिम बंगाल में कुल 23 जिले हैं, जबकि 42 लोकसभा सीटें हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य में 27.1 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. तीन जिले ऐसे हैं, जिनमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या पचास प्रतिशत से ज्यादा है. मसलन मुर्शिदाबाद में 66, मालदा में 52 और उत्तर दिनाजपुर में 50 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं. दक्षिण 24 परगना और बीरभूम दो ऐसे जिले हैं, जहां मुस्लिमों की संख्या 35 प्रतिशत से ज्यादा है. इसके अलावा आठ जिलों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 25 प्रतिशत से ज्यादा है. ये जिले उत्तर 24 परगना, नादिया, हावड़ा, पूर्वी मेदिनीपुर, पश्चिमी मेदिनीपुर, कूच बिहार, दक्षिण दिनाजपुर एवं पूर्वी बर्धमान हैं. मतलब साफ है कि 42 सीटों में करीब 30 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में हैं.

पश्चिम बंगाल में केवल तीन जिले ऐसे हैं, जहां मुस्लिम आबादी दस प्रतिशत से कम है, इनमें बांकुरा, पुरुलिया एवं दार्जिलिंग शामिल हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी केवल दो सीटें जीत पाई थी. पहली सीट दार्जिलिंग, जहां मुस्लिम आबादी छह प्रतिशत है और दूसरी पश्चिम बर्धमान, जहां मुस्लिम आबादी 10 प्रतिशत के आसपास है. मुस्लिमों के प्रभाव वाली सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन काफी कमजोर रहा था. तृणमूल कांग्रेस के पास फिलहाल 34 सीटें हैं. अब तक जितने भी सर्वे हुए हैं, उनमें तृणमूल कांग्रेस इन सीटों पर आज भी मजबूत नजर आ रही है. लेकिन, ममता की नजर उन छह सीटों पर है, जिन्हें कांग्रेस और वाममोर्चा ने जीता था. इसकी वजह 2014 के नतीजे हैं.

2014 में वाममोर्चा ने अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया. 2004 में वाममोर्चा ने 42 में से 32 सीटें जीती थीं, जो 2009 में घटकर 15 और 2014 में केवल दो रह गईं. सीपीएम नेता मोहम्मद सलीम राजगंज सीट से जीते. यह उत्तर दिनाजपुर जिले में पड़ती है, जहां मुस्लिम आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा है. सीपीएम के दूसरे सांसद बदरूद्दोजा खान हैं, जो मुर्शिदाबाद सीट पर विजयी हुए, जहां 66 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. ध्यान देने वाली बात यह है कि इन दोनों ही जगहों पर दूसरे नंबर पर तृणमूल नहीं, बल्कि कांग्रेस थी. जहां तक बात कांग्रेस की है, तो वह 2014 में चार सीटें जीतने में सफल रही थी. इनमें से दो सीटें मालदा से थीं, एक जांगीपुर और एक बहरामपुर थी. मालदा में 52 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. यहां एबीए गनी खान चौधरी के परिवार का वर्चस्व रहा है. वह कांग्रेस के बड़े नेता थे. मालदा दक्षिण की सीट उनके भाई अबु हसेम खान चौधरी ने जीती थी. इस सीट पर भाजपा दूसरे स्थान पर रही, लेकिन तृणमूल कांग्रेस चौथे स्थान पर रही. इसी तरह मालदा उत्तर सीट एबीए गनी खान चौधरी की भतीजी मौसम बेनजीर नूर ने जीती. यहां भी नूर का मुकाबला तृणमूल से नहीं, बल्कि सीपीएम से रहा. ममता की पार्टी तीसरे स्थान पर रही. कांग्रेस की तीसरी सीट जांगीपुर है, जिसे अभिजीत मुखर्जी ने जीता था. जांगीपुर संसदीय क्षेत्र मुर्शिदाबाद जिले में आता है. इस जिले में 66 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. ध्यान देने वाली बात यह है कि तृणमूल कांग्रेस यहां तीसरे स्थान पर रही थी. दूसरे स्थान पर सीपीएम थी. बहरामपुर में अधीर रंजन चौधरी 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट पाकर चुनाव जीते थे. यह सीट मुर्शिदाबाद जिले में पड़ती है, जहां 66 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. तृणमूल कांग्रेस को यहां केवल 19.54 प्रतिशत वोट मिले थे.

पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों से एक बात तो साफ है कि भले ही सीटें कम आई हों, लेकिन मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में कांग्रेस और वाममोर्चा का दबदबा बरकरार है. मुर्शिदाबाद और मालदा जैसे इलाकों में तृणमूल कांग्रेस का तीसरे स्थान पर रहना इस बात का सुबूत है कि 2014 में पश्चिम बंगाल का मुस्लिम समुदाय पूरी तरह से ममता के साथ नहीं था. जहां तक सवाल भाजपा का है, तो पश्चिम बंगाल में करीब 30 ऐसी सीटें हैं, जिन्हें वह जीत नहीं सकती. भाजपा के पास बंगाल में न तो कोई बड़ा नेता है और न जमीनी स्तर पर संगठन. बंगाल में भाजपा की तुलना तृणमूल कांग्रेस के साथ कतई नहीं हो सकती. न ही वह ममता के लिए कोई खतरा है. इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि अगर भाजपा बंगाल में कमजोर है, तो ममता क्यों भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ आग उगल रही हैं? इसकी दो वजहें हैं. ममता जानती हैं कि मुस्लिम मतदाता किसी भी सूरत में भाजपा को वोट नहीं देने वाले हैं. वे उसे ही वोट देंगे, जो भाजपा से लड़ता और उसे हराता नजर आएगा. मतलब साफ है कि मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए उन्होंने भाजपा विरोध का बिगुल उठा रखा है. दूसरी वजह यह है कि ममता को अपने लिए सबसे बड़ा खतरा वाममोर्चा और कांग्रेस के संभावित गठबंधन से महसूस हो रहा है. अगर वाममोर्चा और कांग्रेस का गठबंधन हो जाता है, तो ममता की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. उन्हें पता है कि वाममोर्चा और कांग्रेस अगर एकजुट हो गए, तो कई मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में उनकी छुट्टी हो सकती है. जैसा कि 2014 के नतीजों से साफ-साफ साबित होता है. इसलिए ममता ने सीधे मोदी से टक्कर लेने का फैसला किया.

ममता की रणनीति साफ है. वह चुनाव आते-आते खुद को मोदी का सबसे बड़ा दुश्मन साबित करने में जुटी हैं, ताकि बंगाल में मुस्लिम वोटों का बंटवारा न हो. भाजपा को बंगाल में बड़ा बनाकर और उसका डर दिखाकर वह मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन पक्का कर रही हैं. वह यह भी जानती हैं कि पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी दो-तीन जिलों में ही अपने पांव पसार सकती है, लेकिन वाममोर्चा और कांग्रेस के गठबंधन में तृणमूल को जड़ से उखाडऩे की क्षमता है. मुर्शिदाबाद और मालदा जैसे मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में तृणमूल को मजबूत करने के लिए ममता ने एक मास्टर स्ट्रोक खेला, जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया. ब्रिगेड परेड मैदान की रैली के बाद उन्होंने मालदा से कांग्रेस की सांसद मौसम नूर को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. नूर एबीए गनी खान चौधरी के परिवार से हैं. मालदा और उसके आसपास के इलाकों में इस परिवार का सिक्का चलता है. मौसम नूर के तृणमूल में शामिल होने से कांग्रेस को जहां बड़ा झटका लगा है, वहीं ममता की स्थिति मजबूत हुई है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि कांग्रेस को चार और वाममोर्चा को दो सीटें मालदा और मुर्शिदाबाद से ही मिली हैं. ममता की नजर अब इन सीटों पर है. वह जानती हैं कि मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन हासिल करने के लिए उन्हें मोदी का सख्त विरोध करना होगा. इसी रणनीति का नतीजा है कि ममता ने योगी आदित्य नाथ का हेलिकॉप्टर बंगाल की धरती पर उतरने नहीं दिया, अमित शाह को रथयात्रा निकालने से मना कर दिया. लड़ते हुए वह सुप्रीम कोर्ट तक गईं. इतना ही नहीं, शिवराज सिंह चौहान को उन्होंने रैली करने की अनुमति नहीं दी. ममता का एक ही मकसद है. वह मोदी, भाजपा और आरएसएस के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में अपनी छवि बनाने में जुटी हैं. लेकिन, इस रणनीति का दूसरा और सबसे अहम पहलू यह है कि ममता के मोदी विरोध की निगाह तो भाजपा पर है, लेकिन निशाना कांग्रेस और वाममोर्चा हैं. अगर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस वाममोर्चा, कांग्रेस और भाजपा से अलग-अलग लड़ती है, तो ममता का परचम 2019 में 2014 से ज्यादा ऊंचाई पर लहराएगा. और, अगर कांग्रेस और वाममोर्चा का गठबंधन हो जाता है, तो ममता का भाजपा और मोदी विरोध इससे भी ज्यादा मुखर हो जाएगा. ताकि, मुस्लिम मतदाताओं को लगे कि पश्चिम बंगाल में अगर भाजपा-आरएसएस को घुसने से कोई रोक सकता है, तो वह केवल ममता बनर्जी हैं.