आनंद प्रधान।

आखिर वही हुआ जिसका डर अंदर-अंदर सबको था लेकिन इसे स्वीकार करने के लिए बहुत कम लोग तैयार थे। बहुतेरे विश्लेषकों और राजनीतिक पंडितों को उम्मीद थी कि 23 जून को कोई चमत्कार होगा और ब्रिटेन, यूरोप का हिस्सा बना रहेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके उलट ब्रिटेन के वोटरों ने मामूली बहुमत के साथ यूरोपीय संघ (ईयू) से बाहर निकलने यानी ब्रेक्जिट का फैसला किया। ब्रेक्जिट के पक्ष में करीब 52 फीसदी और यूरोपीय संघ के साथ रहने के पक्ष में 48 फीसदी वोट पड़े। यह एक ऐसा जनमत संग्रह था जिसके नतीजे को लेकर आखिर तक ब्रिटेन और यूरोप में लोगों की सांसें रुकी रहीं।

ब्रिटेन के वोटरों के फैसले को लेकर दुनिया के और देशों में भी इसी तरह की बेचैनी और दिलचस्पी थी। इस जनमत संग्रह में ब्रिटेन की जनता को यह फैसला करना था कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ का सदस्य बना रहेगा या यूरोप से जुदा अपनी अलग राह लेगा? जाहिर है कि फैसला आसान नहीं था। कांटे के मुकाबले में पलड़ा कभी ब्रेक्जिट (ब्रिटेन+एक्जिट) यानी यूरोपीय संघ को छोड़ने के पक्ष में और कभी ब्रेमिन (ब्रिटेन+रिमेन) यानी यूरोपीय संघ में बने रहने के पक्ष में झुक रहा था। जनमत संग्रह की रात बहुत लंबी और भारी हो गई थी।
नतीजों के उतार-चढ़ाव से बने सस्पेंस, तनाव और घबराहट को लंदन से लेकर ब्रसेल्स (ईयू के मुख्यालय) की सड़कों, घरों, पबों और टीवी

चैनलों के स्टूडियो में साफ देखा जा सकता था। नींदें पेरिस से लेकर बर्लिन तक और वाशिंगटन से लेकर दिल्ली तक उड़ी हुई थी। कहने की जरूरत नहीं है कि दोनों समूहों के बीच कड़ा, नजदीकी और तीखा मुकाबला था। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ महीनों में आए दर्जनों ओपिनियन पोल्स में दोनों के बीच मुश्किल से एक से दो फीसदी का फर्क दिखाई पड़ता था। आश्चर्य नहीं कि दोनों पक्षों के बीच का यह मामूली अंतर आखिर तक बना रहा। भ्रम और दुविधा का आलम यह था कि शुरू में करीब 20 फीसदी और आखिरी सप्ताह तक 11 फीसदी के वोटर यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वे किस ओर जाएं। इन अनिर्णीत वोटरों के कारण ही सस्पेंस और ज्यादा बढ़ गया था। यूरोपीय संघ को छोड़ने या उसके साथ रहने पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था।

सिर्फ ब्रिटेन और यूरोप का ही नहीं बल्कि दुनिया के और देशों का भी बहुत कुछ दांव पर था। जनमत संग्रह के नतीजों के रुझान के साफ होने के साथ ही दुनिया भर के शेयर और करेंसी बाजारों में भारी उथल-पुथल शुरू हो गई और बाजार लुढ़क गए। खुद ब्रिटेन की करेंसी पाउंड-स्टर्लिंग में 30 सालों में पहली बार रिकॉर्ड 9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। आशंका जाहिर की जा रही है कि इस फैसले के बाद वित्तीय गतिविधियों के केंद्र के बतौर लंदन की प्रमुखता को भी खतरा है। यही नहीं, इससे ब्रिटेन का व्यापार और निवेश भी प्रभावित होगा क्योंकि अब ब्रिटिश कंपनियों को यूरोपीय संघ के देशों के साथ व्यापार करना महंगा पड़ेगा। लेकिन ब्रिटिश वोटरों ने इसकी परवाह नहीं की। असल में ब्रिटिश वोटरों को सिर्फ दो विकल्पों- ब्रेक्जिट या ब्रेमिन के बीच चुनाव करना था लेकिन मुश्किल यह थी कि इन दोनों विकल्पों के साथ इतनी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक जटिलताएं जुड़ी थीं और उसकी इतनी तहें थीं कि उन्हें दो खानों/खांचों में बांटकर एक पक्ष का चुनाव करना बहुत मुश्किल था। दोनों ही विकल्पों में बहुत कुछ खोने और बहुत कुछ पाने के दावे थे जिन्हें उनके पैरोकारों ने और भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया था। लेकिन सबसे खास बात यह थी कि दोनों ही पक्ष किसी सकारात्मक आधार पर कम और डर दिखाकर ज्यादा समर्थन मांग रहे थे।

खासकर ब्रेक्जिट कैंप तो ब्रिटिश वोटरों को देश में आप्रवासियों और शरणार्थियों की बाढ़ आने का खतरा दिखाने से लेकर यूरोपीय संघ से ब्रिटेन की संप्रभुता के खत्म होने का डर दिखा रहे थे। उनका यह भी आरोप था कि यूरोपीय संघ के नौकरशाह ब्रसेल्स में बैठकर मनमानी कर रहे हैं और ब्रिटेन को बेवजह उनके बजट में अरबों पाउंड देना पड़ता है। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि ब्रिटेन में बृहत्तर यूरोप का हिस्सा बनने और यूरोपीय संघ की सदस्यता को लेकर हमेशा से एक संशय और मानसिक/वैचारिक अवरोध रहा है। ब्रिटेन अपनी ब्रिटिश पहचान के प्रति सतर्क और आग्रही रहा है। यही कारण है कि वह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक व्यापक और संयुक्त यूरोपीय प्रोजेक्ट के साथ कभी सम्पूर्ण और सक्रिय रूप से नहीं जुड़ पाया। आश्चर्य नहीं कि ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ के शेंगेन वीजा (सदस्य देशों के बीच बिना रोकटोक यात्रा) या उसकी मुद्रा यूरो को कभी स्वीकार नहीं किया। यही नहीं, वह इस यूरोपीय आर्थिक बाजार में देर से जुड़ा और अब सबसे पहले उससे निकल रहा है।

दरअसल, ब्रेक्जिट का फैसला किसी बड़े राजनीतिक भूकम्प से कम नहीं था। चूंकि इस भूकम्प का केंद्र ब्रिटेन और यूरोप हैं, इसलिए वहां इसका सबसे ज्यादा, गहरा और दूरगामी असर होने जा रहा है। लेकिन इस भूकम्प के झटके दुनिया भर के देशों में महसूस किए जा रहे हैं। आखिर ब्रिटेन दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। यूरोपीय संघ में वह जर्मनी के बाद दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था। ब्रेक्जिट का फैसला ऐसे समय में आया है जब खुद यूरोप 2007-08 के वैश्विक आर्थिक संकट से अब तक उबर नहीं पाया है। इस फैसले से संकट और गहरा हो सकता है। वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था से लेकर भारत समेत दुनिया के तमाम देशों पर इसका कहीं कम और कहीं ज्यादा असर होना तय है। इसकी वजह यह है कि वैश्वीकृत राजनीति और खासकर अर्थव्यवस्था में ब्रेक्जिट जैसे बड़े भूकम्प के तात्कालिक असर के साथ उसके बाद आने वाले छोटे-बड़े और भूकम्पों की आशंका बढ़ जाती है। इसके संकेत अभी से मिलने लगे हैं। खुद ब्रिटेन के अंदर ब्रिटेन से अलग होने और यूरोप के और देशों में ब्रिटेन की तरह यूरोपीय संघ से अलग होने की मांगें उठने लगी हैं। ब्रिटेन और यूरोपीय बाजारों की उथल-पुथल का संक्रमण दुनिया भर के बाजारों तक पहुंच कर उन्हें अस्थिर करने लगा है।

इस भूकम्प के पहले राजनीतिक शिकार खुद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन हुए हैं। वे ब्रिटेन को यूरोपीय संघ के साथ रहने यानी ब्रेमिन अभियान की अगुवाई कर रहे थे। उन्होंने इस मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने का फैसला करके एक बड़ा राजनीतिक जोखिम लिया था। उन्हें भरोसा था कि वे इसमें कामयाब रहेंगे लेकिन अब वे निश्चित ही पछता रहे होंगे। यही वजह है कि जनमत संग्रह के नतीजे आते ही उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे का भी ऐलान कर दिया। असल में, कैमरन ने पिछले आम चुनाव के दौरान यूरोप-विरोधी अति दक्षिणपंथी समूहों का समर्थन जीतने के लिए यह वायदा किया था कि वे इस मुद्दे पर जनमत संग्रह कराएंगे। यह वादा करते हुए उन्हें यह उम्मीद नहीं रही होगी कि यह उनके राजनीतिक करियर के अंत की वजह बन जाएगा।

लेकिन शेर की सवारी करने वालों के साथ यह खतरा हमेशा रहता है। कैमरन भी इसके अपवाद नहीं थे। यूरोप विरोधी और धुर दक्षिणपंथी ताकतों के साथ चुनाव के दौरान हेलमेल और गलबहियां और फिर जनमत संग्रह के दौरान उनका विरोध कैमरन को ले डूबा। उनके पास इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। असल में, ब्रेक्जिट के साथ कैमरन की स्थिति सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी में और देश में कमजोर हो गई थी। ऐसे में उनका जाना तय था। लेकिन बात यहीं खत्म होने वाली नहीं है। इस जनमत संग्रह के साथ देश के राजनीतिक समीकरण भी उलट-पुलट गए हैं। विभाजित कंजर्वेटिव पार्टी में नेतृत्व को लेकर होने वाली खींचतान, लेबर पार्टी में भ्रम और दुविधा, कमजोर पड़ती लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी और ब्रेक्जिट राजनीति की चैम्पियन यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेंट पार्टी (यूकेआईपी) के आक्रामक तेवर के बीच अगले कुछ महीनों में मध्यावधि चुनाव की सम्भावना दिखाई दे रही है।

यही नहीं, खुद ब्रिटेन के अंदर स्कॉटलैंड में ब्रिटेन से अलग होने की मांग और तेज होनी तय है क्योंकि स्कॉट मतदाताओं ने यूरोप के साथ रहने के पक्ष में वोट दिया। लंबे समय से ब्रिटेन से अलग होने की मांग कर रहे आयरलैंड में भी ऐसी ही मांग फिर जोर पकड़ सकती है। इसलिए ब्रिटेन में आने वाले महीने राजनीतिक अस्थिरता और कोलाहल के रहने वाले हैं। इस जनमत संग्रह को लेकर पूरा ब्रिटेन दोफाड़ हो गया था। दोनों समूहों ने जितना कड़वाहट भरा और जहरीला प्रचार अभियान चलाया, उस कारण ब्रिटिश समाज, राजनीतिक पार्टियां, बुद्धिजीवी, सिविल सोसायटी और मीडिया यानी ऊपर से लेकर नीचे तक सब विभाजित हो गए थे। कहा जा रहा है कि ब्रिटिश समाज हाल के दशकों में इतना विभाजित और कड़वाहट व नफरत से भरा कभी नहीं था। सवाल यह है कि क्या इस जनमत संग्रह के बाद ब्रिटिश समाज का यह विभाजन और उसके घाव भर पाएंगे? यह आसान नहीं होगा। इतना तय है कि इस जनमत संग्रह के बाद ब्रिटेन की राजनीति पहले जैसी नहीं रह जाएगी। खुद यूरोप इसके प्रभावों से बच नहीं पाएगा।

यूरोप के ज्यादातर देशों में इस समय जिस तरह से धुर दक्षिणपंथी समूहों और पार्टियों का उभार दिख रहा है, शरणार्थियों और आप्रवासियों की बाढ़ के कारण राष्ट्रवादी और अंध राष्ट्रवादी-जातीय भावनाएं जोर मार रही हैं, ऐसी ताकतों को इस फैसले से ताकत मिलेगी। दरअसल, यूरोपीय संघ की नीतियों को लेकर ब्रिटेन सहित यूरोप के अधिकांश देशों की आबादी के एक हिस्से खासकर श्रमिकों, निम्न और मध्यवर्गीय लोगों में गुस्सा है। यह गुस्सा 2007-08 के वैश्विक आर्थिक संकट और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के उसकी चपेट में आने और आर्थिक मंदी के लंबा खींचने के कारण और बढ़ा है। इसकी वजह यह है कि आर्थिक संकट से लड़ने के नाम पर पर यूरोपीय संघ के अधिकांश देशों ने किफायतशारी (आॅस्टरिटी मेजर्स) के उपायों के तहत सामाजिक सुरक्षा के बजट में भारी कटौती की है। इससे यूरोप के अधिकांश देशों में आम नागरिकों खासकर श्रमिकों, मध्यवर्गीय लोगों और युवाओं के जीवन स्तर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है।

ये किफायतशारी उपाय खत्म होने की बजाय स्थायी परिघटना बन गए हैं जिसके खिलाफ इस समय पूरे यूरोप में खासकर ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस, इटली से लेकर तमाम छोटे-बड़े देशों में आंदोलनों की लहर आई हुई है। इस लहर पर चढ़कर कई देशों में उग्र और धुर दक्षिणपंथी पार्टियां राष्ट्रवाद और लोकलुभावन राजनीति के कॉकटेल के साथ सत्ता की दावेदारी कर रही हैं। कई देशों में नए किस्म की वाम लोकतांत्रिक ताकतें भी इस गुस्से की अगुवाई कर रही हैं। इन दोनों के निशाने पर किफायतशारी की आर्थिक नीतियां और इन नीतियों का पैरोकार यूरोपीय संघ है जिसे लोग और स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

दरअसल, यूरोपीय संघ अपने मूल चरित्र में नव उदारवादी आर्थिकी का प्रोजेक्ट है। इसके तहत यूरोपीय साझा बाजार और साझा मुद्रा- यूरो की स्थिरता को बनाए रखने के लिए सदस्य देशों पर कई तरह की पाबंदियां हैं। उन्हें अपना बजट बनाते हुए इनका पालन करना अनिवार्य है। उदाहरण के लिए- यूरोपीय संघ के सदस्य देश अपने राष्ट्रीय बजट में राजकोषीय घाटा जीडीपी के तीन फीसदी से ज्यादा नहीं रख सकते। कहने की जरूरत नहीं है कि इन पाबंदियों के कारण सदस्य देशों के लिए सामाजिक सुरक्षा के बजट में बढोतरी तो दूर उलटे कटौती करनी पड़ रही है। दूसरी ओर, आर्थिक संकट से जूझने के नाम पर संकट में फंसे बड़े कॉरपोरेट्स और बैकों-वित्तीय संस्थाओं को सरकारी खजाने से भारी मदद दी गई है। जाहिर है कि इससे आम लोगों में भारी नाराजगी है। उन्हें लगता है कि यूरोपीय संघ बड़े कॉरपोरेट्स, बैंकों-वित्तीय संस्थाओं और अमीरों-अभिजात्यों के हितों का पैरोकार है। उनके लिए श्रमिकों, निम्न और मध्यवर्गीय लोगों को कुबार्नी देनी पड़ रही है।

इसी तरह यूरोपीय संघ के आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत गरीब और कमजोर देशों को लगता है कि ईयू वास्तव में कुछ अमीर देशों जैसे जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली के हितों को आगे बढ़ाता है और उन्हें उसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। दूसरी ओर, अमीर देशों में यह भावना जोर पकड़ रही है कि सीमाएं खुली होने और आवाजाही पर कोई पाबंदी नहीं होने के कारण यूरोपीय संघ के अपेक्षाकृत गरीब देशों के आप्रवासी नागरिक उनके देशों में आकर उनकी नौकरियां छीन रहे हैं।

इस तरह यूरोपीय प्रोजेक्ट एक ऐसे तीखे और गहरे अंतर्विरोध में फंस गया है जिसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति ब्रेक्जिट के रूप में हुई है। यह खतरे की घंटी है। ब्रेक्जिट यूरोपीय संघ के विचार और राजनीतिक-आर्थिक प्रोजेक्ट के भविष्य के लिए एक गंभीर चुनौती है। इससे पहले की यह एक संक्रामक रोग की तरह फैले और यूरोपीय संघ के विघटन का कारण बन जाए, इसके नेतृत्व को अपनी राजनीतिक और आर्थिक नीतियों और रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा और तुरंत समाधान के कदम उठाने होंगे। हालांकि यह कहना जितना आसान है उस पर अमल उतना ही मुश्किल है।

इसके बावजूद यह याद रखना होगा कि एक स्थिर, समृद्ध और शांतिपूर्ण यूरोप वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था की स्थिरता के लिए जरूरी है। खासकर वैश्विक अर्थव्यवस्था जिस डांवाडोल स्थिति में है, उसमें यूरोप से संकट का एक और ट्रिगर दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को भारी संकट में फंसा देगा। इस समय दुनिया का कोई देश यह नहीं चाहता है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। भारत के लिए भी यूरोपीय संघ और ब्रिटेन दोनों ही महत्वपूर्ण बाजार और निवेशक हैं। इसलिए वहां होने वाले उथल-पुथल से भारतीय अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी।
दुनिया के और देशों की तरह भारत भी इस तूफान के जल्दी गुजर जाने की उम्मीद कर रहा है। मगर सवाल यह है कि क्या ऐसा हो पाएगा? यह ब्रिटिश, यूरोपीय और वैश्विक राजनीतिक नेतृत्व की समझदारी, परिपक्वता और एकजुटता पर निर्भर करता है। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप, नाइजेल फैराज, मेरी ली पेन जैसे नेताओं के उभार से आश्वस्ति कम और आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं।