प्रियदर्शी रंजन

पिछले दिनों लोक संवाद कार्यक्रम में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार भाजपा के अघोषित आलाकमान व उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की मौजूदगी में कहा, ‘गलतफहमी मत पालिए, हम सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं, गठबंधन का नहीं।’ इस द्विअर्थी बयान के दो-तीन दिन बाद ही उन्होंने प्रदेश में होने वाले दो विधानसभा और एक लोकसभा उपचुनाव में किसी भी सीट पर पार्टी का उम्मीदवार खड़ा न करने का ऐलान कर दिया। यही नहीं, उन्होंने यहां तक कह डाला कि वे उपचुनाव में प्रचार करेंगे या नहीं इस पर फैसला पार्टी की कोर कमेटी करेगी। हालांकि एनडीए के दो अन्य घटक रालोसपा और हम में जहानाबाद सीट के लिए छिड़ी रार में भाजपा ने मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए जहानाबाद सीट पर जदयू को अपना उम्मीदवार लड़ाने का निमंत्रण दे दिया। बावजूद इसके, नीतीश कुमार के ये शब्द और दान में मिली जहानाबाद विधानसभा उपचुनाव की सीट ने एनडीए में उनकी हैसियत को पलट दिया है।

दरअसल, यह पहला मौका नहीं है जब नीतीश कुमार ने अपने ही शब्दों से यह साबित करने की कोशिश की है कि उनका या उनकी पार्टी का एनडीए में वो रुतबा नहीं रहा जिसके लिए वे जाने जाते थे। पिछले चार महीनों में करीब चार बड़े मौकों पर भाजपा के समक्ष नीतीश कुमार ने अपनी वर्तमान राजनीतिक हैसियत को उजागर किया है। इसमें उनका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपराजेय बताना, बिहार में भाजपा के लिए सीटें छोड़ना, आयोग के पदों पर भाजपा की मर्जी से सदस्यों को मनोनीत करना और सार्वजनिक मंच से यह मानना कि अब वे पीएम मैटेरियल नहीं हैं। राजनीतिक मंच के अलावा सरकार के स्तर पर भी नीतीश कुमार का कद कम हुआ है। केंद्र से बाढ़ राहत में मिलने वाली घोषित राशि का नहीं मिल पाना और जेड पल्स सुरक्षा मिलने के बाद भी ब्लैक कैट कमांडो न मिलने के बावजूद छोटी-मोटी बातों में भी मीन मेख निकालने वाले नीतीश ने दो बड़े मसले पर चुप्पी साध रखी है। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के मसले पर पत्रकारों के बार-बार पूछने पर भी नीतीश मुंह बंद रखना ही मुनासिब समझते हैं। मंत्रिमंडल से लेकर प्रशासन में नीतीश की वह धाक अब नहीं रही जिसके लिए वे जाने जाते थे। बढ़ते अपराध पर लगााम लगाने के लिए वे पुलिस अधिकारियों से गुहार लगा रहे हैं जबकि पहले सुशासन उनकी प्राथमिकता में शुमार था।

जाहिर है कि महागठबंधन को छोड़कर एनडीए में आने के बाद पीएम मैटेरियल और राष्ट्रीय नेता बनने की चाहत की तिलांजलि नीतीश कुमार ने खुद भी दे दी होगी मगर यह अनुमान राजनीतिक पंडितों को भी नहीं था कि कुछ महीनों में ही नीतीश कुमार की छवि का आकार- प्रकार इस तरह का होगा। वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश नीतीश कुमार के वर्तमान राजनीतिक हालात पर कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने यह कह कर चौंका दिया कि 2019 में नरेंद्र मोदी अपराजेय हैं। वे दो एक्सट्रीम पर गए हैं। एक तरफ तो वे नरेंद्र मोदी के इस कदर विरोधी थे कि उनसे हाथ मिलाना भी उन्हें पसंद नहीं था और आज इतने समर्पित हैं कि उनका मानना है कि नरेंद्र मोदी अपराजेय हैं। इससे समझा जा सकता है कि मोदी के प्रति नीतीश की चिढ़ कुछ ज्यादा थी और इस वक्त जो आत्मसमर्पण है वह भी कुछ ज्यादा ही है। जिस तरह से नीतीश का हृदय परिवर्तन हुआ है उससे तो साफ है कि उनका भविष्य अब एनडीए में ही है। भविष्य में कभी वो एनडीए से अलग होंगे तो भाजपा के खिलाफ बनने वाले गठबंधन में उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं मिलने वाली है। मुझे तो कई बार यह लगता है कि जिस तरह से उन्होंने भाजपा को कंधे पर चढ़ाकर एक बार फिर से उन्हें सरकार दी है, भले ही वे राज्य के मुख्यमंत्री हों, कहीं वे भविष्य में गोवा की उस महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की तरह न बन जाएं जिससे भाजपा ही वहां सब कुछ बन गई। गोवा की तरह कहीं बिहार में नीतीश पिछड़ न जाएं।’

अंग्रेजी अखबार द हिंदू के स्थानीय संपादक व बिहार के राजनीतिक जानकार अमरनाथ तिवारी के मुताबिक, ‘नीतीश कुमार पर राजनीतिक समीकरण का दबाव बनाने की बजाय भाजपा उनकी नब्ज को दबा कर दबाव बना रही है। हो सकता है कि इसके पीछे भाजपा की वही चाल कामयाब हो रही हो जो गुजरात में हार्दिक पटेल व उनके सहयोगी नेताओं के साथ आजमाया गया। सीडी प्रकरण से गुजरात में हार्दिक की छवि को काफी नुकसान हुआ। बिहार में लंबे समय से शासन कर रहे नीतीश कुमार के भी अच्छे और बुरे कर्मों का रिकॉर्ड भाजपा के पास होगा। मुख्यमंत्री एक मर्डर के मामले में नामजद हैं जिसकी सुनवाई भले ही कोर्ट में होगी लेकिन इसे जनता में प्रचारित-प्रसारित करने से मुख्यमंत्री की छवि पर ज्यादा दाग उभरेगा। नीतीश कुमार की कई कमजोर कड़ी का फायदा भाजपा उनके महागठबंधन सरकार में होने पर उठा रही थी। उस पर भाजपा अभी खामोश है। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने ही एक आरटीई से खुलासा किया था कि नीतीश कुमार सरकार का दुरुपयोग कर रहे हैं। एक खुलासे में मोदी ने पटना स्थित 7, सर्कुलर रोड का बंगला जो नीतीश के नाम पर आवंटित है, में पांच करोड़ रुपये से अधिक के खर्च का मसला उठाया था। जबकि नीतीश कुमार का सरकारी बंगला 1, अणे मार्ग है। नीतीश के नाम पर दिल्ली के लुटियन जोन में भी एक बंगला आवंटित है। मुख्यमंत्री के और भी कई निजी कारनामे हैं जिन्हें भाजपा समय आने उजागर कर सकती है।’

पिछले दिनों यह चर्चा जोरों पर थी कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व चाहता है कि नीतीश केंद्र की राजनीति में आएं क्योंकि देश को उनकी जरूरत है लेकिन उन्होंने दो टूक कह दिया कि बिहार छोड़ने के बाद वे आश्रम चले जाएंगे। एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि बिहार की सेवा भी देश की सेवा है। मैं बिहार में ही रहकर देश की सेवा करना पसंद करूंगा। सूत्रों के मुताबिक भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व चाहता है कि जदयू बिहार की सरकार को भाजपा के लिए छोड़ दे और नीतीश कुमार केंद्र में मंत्री बन जाएं। इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने नीतीश के नाम पर लुटियन जोन में ए टाइप का सरकारी बंगला अलॉट किया था। हालांकि एक राय यह भी है कि नीतीश का भाजपा के सामने नतमस्तक दिखना उनकी दिखावे की राजनीति भी हो सकती है। उनके पूर्व के इतिहास के आइने से देवांशु मिश्रा कहते हैं, ‘नीतीश कुमार इस तरह की राजनीति करने में माहिर हैं। झुक कर धूल झोंक देना उनकी राजनीति का हिस्सा रहा है। पहले भाजपा के साथ और बाद में लालू के साथ इसे वे दोहरा चुके हैं। महागठबंधन तोड़ने से पहले उन्होंने लालू एवं उनके परिवार के सामने खुद को निरीह के तौर पर पेश किया। भाजपा से गठबंधन तोड़ते वक्त भी उन्होंने बेचारा पॉलटिक्स का सहारा लिया था। महागठबंधन करते वक्त नीतीश ने लालू की बात में हामी भरी और समय पर असली रूप भी दिखा दिया। भाजपा को इस गफलत में नहीं रहना चाहिए कि नीतीश ने उनके सामने आसत्मसमर्पण कर दिया है। आने वाले चुनाव में वे मोलतोल की राजनीति के लिए माहौल तैयार कर रहे हैं।’

नीतीश के करीबी व राजनीतिक जानकार सुरेंद्र किशोर का भी मानना है कि भाजपा के सामने नीतीश ने आत्मसमर्पण नहीं किया है। वर्तमान हालात को राजनीति की मांग भर मानते हुए वे कहते हैं, ‘भाजपा नीतीश जैसे राजनीतज्ञ को झुकाने की गलती नहीं करेगी। भाजपा ने 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में शामिल रामविलास पासवान के साथ जो किया था उसे दुहराना नहीं चाहेगी। अटल सरकार से पासवान को किनारे लगा देने के बाद बिहार में एनडीए का जो हश्र हुआ वह संदेश भाजपा अभी नहीं भूली होगी। मोदी लहर पर लड़े गए पिछले लोकसभा चुनाव को अपवाद मान लें तो दो बड़े दलों के एक साथ आने के बाद चुनावी समर में उस गठबंधन की फतह तय होती है। भाजपा और जदयू के साथ आने से एनडीए को बिहार में मनोवैज्ञानिक बढ़त है। राजस्थान उपचुनाव में भाजपा की हार बता रही है कि इस बार लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को अपनी लहर के साथ दूसरे दलों के साथ की भी जरूरत होगी। जहां तक टिकट बंटवारे का सवाल है तो चार-पांच सांसदों के टिकट काट देने से भाजपा पर कोई असर नहीं पड़ेगा और जदयू को सम्मानजनक सीटें मिल जाएंगी।’

सुरेंद्र किशोर भी इस बात से इनकार नहीं करते कि सरकार की कुछ कमजोरियां हाल के दिनों में सामने आई हैं। उनके मुताबिक, राज्य में बढ़ते अपराध, विकास की मंद रफ्तार और रोजगार के कम होते अवसर से नीतीश की साख पर आने वाले दिनों में सवाल और गहरा होगा। नीतीश की फीकी पड़ती चमक को पहली बार मीडिया के सामने लाने वाले पूर्व विधान पार्षद प्रो. नवल किशोर चौधरी के मुताबिक, ‘नीतीश की राजनीति अब अस्ताचल के दौर से गुजर रही है। इसके पीछे बड़ी वजह है कि वे राजनीति में अपना भरोसा खो चुके हैं। शासन-प्रशासन से अब उन्हें वैसा सहयोग नहीं मिलता जैसे पिछली सरकारों में मिला करता था। इसके पीछे सरकार चलाने वालों का मानना है कि नीतीश की मुख्यमंत्री के तौर पर यह अंतिम पारी है।’

एनडीए के अन्य दलों से भी समस्या
जो घुटन नीतीश को महागठबंधन सरकार में रही कुछ वैसी ही समस्या या यूं कहें कि उससे भी बड़ी समस्या एनडीए सरकार में भी मौजूद है। महागठबंधन में अपने ही अंदाज में सरकार हांकने वाले नीतीश के लिए एनडीए में भाजपा और अन्य छोटे दलों को साथ ले चलना मुश्किल साबित हो रहा है। मंत्रिमंडल में दो विधायकों वाली पार्टी लोजपा को जगह देने के बाद भी रालोसपा और हम की महत्वकांक्षा पूरी न होने से इन दोनों दलों का नैतिक समर्थन नीतीश सरकार को नहीं मिल रहा है। वहीं भाजपा दूसरी बड़ी पार्टी होने के बाद भी सबसे बड़ी पार्टी जैसा अंदाज बयां कर रही है। इससे सरकार में नीतीश कुमार की वह साख नहीं बची है जो कभी 2005 और 2010 में एनडीए के साथ सरकार चलाने के दौरान रही। भाजपा उन्हें वह अहमियत नहीं दे रही जिसकी उम्मीद उन्हें महागठबंधन को छोड़ते वक्त थी। नीतीश के एक करीबी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि भाजपा ने जदयू को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल करने की शर्त बिहार में सरकार गठन के दौरान मान ली थी मगर अब अंगूठा दिखाए जाने से नीतीश पसोपेश में हैं। वक्त आने पर भाजपा को इसका जवाब भी वे जरूर देंगे। सूत्रों की मानें तो लोकसभा चुनाव में एनडीए की ओर से जदयू को बिहार में चार सीटें मिलने की ही संभावना है जिससे जदयू में भाजपा के प्रति रोष है।

भााजपा और जदयू में अगर तालमेल बैठ भी जाता है तो एनडीए के अन्य दलों से तालमेल बिठाना मुश्किल है। जदयू छोड़ कर अलग-अलग दल बनाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा के दलों के साथ जदयू का सुर ठीक नहीं है। लोजपा के पशुपति पारस को पहले मंत्री और बाद में विधान परिषद का सदस्य बनाए जाने के बाद मांझी ने भी एक मंत्री पद पर अपना दावा ठोक रखा है। वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार सुकांत की मानें तो पशुपति पारस को मंत्री बनाकर नीतीश कुमार ने एक तरफ दशकों से दलित राजनीति के दावेदार रामविलास पासवान को साध लिया है तो दूसरी तरफ दलित राजनीति में पैठ जमाने की जुगत भिड़ा रहे मांझी का पर कतर दिया है। मांझी चाहते हैं कि एनडीए में उनको वही भाव मिले जो रामविलास पासवान को मिलता है। पासवान ने नीतीश को साधकर अपने भाई पारस को मंत्री बनवा दिया। उसी तर्ज पर मांझी अपने बेटे संतोष के लिए मंत्री पद चाहते हैं लेकिन नीतीश इस मसले पर भाजपा से बात करने को कह कर मांझी से किनारा कर रहे हैं।

सूत्रों की मानें तो भाजपा ने मांझी के बेटे को मंत्री बनाने के पीछे यह शर्त रखी है कि संतोष को भाजपा में शामिल करवा दें। संतोष हम पार्टी के गठन से पहले कई सालों तक भाजपा के सक्रिय सदस्य रहे हैं। मांझी को संतुष्ट करने के लिए भाजपा ने उनके सामने राज्यपाल बनाने की भी शर्त रखी थी। मगर मांझी को डर है कि पकी उम्र में राज्यपाल बनना सक्रिय राजनीति से उनकी विदाई जैसा ही होगा। उनके राज्यपाल बनने के बाद पार्टी को संभालने की काबिलियत उनके बेटों में नहीं है। अगर उनके बेटे केंद्र या राज्य में मंत्री बन जाते हैं तो फिर हालात दूसरे होंगे।