उमेश सिंह

वे विचार से ग्लोबल और निहायत लोकल भी हैं। उनमें कबीर की सुरति है तो बे्रख्त का असर भी। उनमें देहाती-जीवन की लोकगंध है। उनके शब्दों में जीवन के बीज छिपे हैं, जो अंकुरित हो विशाल बरगद बन ताप वाले दिनों में सघन शीतल छाया देते हैं। वे लोक की लय-ताल को देशज शब्दों में ढालते हैं। उनका रहिवास रहा दिल्ली लेकिन ओढ़ी हुई विद्वता से दूर ‘धुर देहाती’ भी बने रहे। उनमें संघर्षों का तूर्यनाद है तो जिजीविषा और संभावना भी कम नहीं। हिंदी को देश व भोजपुरी को घर मानते रहे और दोनों को दोनों में ढूंढते भी रहे। वे अपनी ही जड़ों में सृजनात्मकता के सूत्र तलाशते रहे। उज्जवल परंपराएं उनके लिए खाद-पानी थीं। उसे शब्दों में ढालते-पिरोते रहे। साहित्य के शिखर सम्मान ज्ञानपीठ से अलंकृत हुए। बात हो रही है बलिया के चकिया गांव में जन्मे कवि केदारनाथ सिंह की। वे चले गए। हिंदी की खौफनाक क्रिया ‘जाना’ को घटित कर गए। हिंदी का भोजपुरी स्वर मौन हो गया, शांत हो गया।
कवि केदारनाथ सिंह फैजाबाद पुस्तक मेले में तीन वर्ष पहले आए थे। उनसे कई घंटे बातचीत हुई। उनमें बच्चों जैसी सरलता और तरलता थी। चेहरे पर रह-रह कर हल्की सी मुस्कान फैल जाती थी। उस समय कवियों-साहित्यकारों की ओर से पुरस्कार वापसी का दौर चल रहा था। जब इस बाबत उनकी राय जानने की कोशिश की तो उन्होंने कहा कि हथियार सहेजने होंगे, लड़ाई लंबी खिंचेगी। ‘मंच और मचान’ कविता पर बहुत देर तक चर्चा करते रहे। यह कविता कैसे पैदा हुई, इसका भी जिक्र उन्होंने किया। चीना बाबा की चर्चा करते हुए वे स्मृतियों में खोते जा रहे थे। कहा कि चीना बाबा के बारे में सुना तो मैं भी उन्हें देखने पहुंच गया। पुलिस ने भिक्खु को हवालात में डाल दिया था। वे कुछ भी खा-पी नहीं रहे थे। कई दिनों से चीना बाबा यूं ही पड़े रहे। उनके दर्शन के लिए महिलाओं की भीड़ जमा होने लगी और वहीं पर ‘पूरी-कड़ाही’ भी चढ़ने लगी। भिक्खु के बारे में अपनी कविता सुनाने लगे- ‘पत्तों की तरह बोलते/ तने की तरह चुप/ एक ठिंगने से चीनी भिक्खु थे वे/ जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे/ चीना बाबा।’ उनसे बातचीत के दौरान डॉ. सदानंद शाही, डॉ. अनिल सिंह और स्वप्निल श्रीवास्तव भी मौजूद थे। इससे पूर्व वर्ष 2011 में डॉ. अनिल सिंह के आमंत्रण पर साकेत महाविद्यालय में आए थे। यह वर्ष नागार्जुन, शमशेर बहादुर और केदारनाथ अग्रवाल का शताब्दी वर्ष था। इन्हीं कवियों पर उनका व्याख्यान हुआ था। भारत भूषण सम्मान से अलंकृत डॉ. अनिल सिंह ने कहा कि भाषा और बिंबों का जादू रचने वाले मेरे प्रिय कवि केदारनाथ सिंह हमेशा के लिए चुप हो गए। उनकी स्मृति को प्रणाम।
केदारनाथ सिंह की कविताओं में गांव-गिरांव के जीवन की गंध थी। उनके मानस की रचना में ब्रेख्त और बांग्ला के जीवनानंद दास का असर भी था। उन्होंने उदात्त मानवीय मूल्यों को स्थान दिया है, इसीलिए उनकी कविताओं में नारे नहीं मिलेंगे। उनकी कविताएं जीवन के संघर्षों को उजागर तो करती हैं लेकिन संभावनाओं की नई-नई राहें भी खोजती हैं, दिखाती रहती हैं। कवि केदार नाथ सिंह का काव्य संग्रह ‘जमीन पक रही है’, ‘यहां से देखो’, ‘बाघ’ तथा ‘अकाल में सारस’ तथा प्रमुख लेख एवं कहानियों में ‘मेरे समय के शब्द’, ‘कल्पना और छायावाद’, ‘हिंदी कविता- बिंब विधान’ और ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ आदि प्रमुख हैं।
बलिया के चकिया गांव में पैदा हुए कवि केदारनाथ सिंह काशी से गोरखपुर होते हुए दिल्ली पहुंचे। काशी से भौगोलिक रूप से दूर रहते हुए भी उनके रोम-रोम में काशी ही रमती थी। उन पर दशाश्वमेध और मणिकर्णिका घाट का भरपूर प्रभाव था, जहां हर क्षण चिताएं जलती रहती हैं। ‘बनारस’ कविता में काशी का अद्भुत वर्णन उन्होंने किया है- ‘अद्भुत है इसकी बनावट/ यह आधा जल में/ आधा मंत्र में/ आधा फूल में/ आधा शव में/ आधा नींद में/ आधा शंख में/ अगर ध्यान से देखो/ तो यह आधा है/ और आधा नहीं है।’ उनकी कविताओं में जीवन संघर्ष के स्वर के साथ संभावनाओं की बारीकी से तलाश भी रहती है- ‘उसका हाथ/ अपने हाथों में लेते हुए मैंने सोचा/ दुनिया को/ हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए/’ केदारनाथ सिंह की कविताओं में देशज संस्कृति अपने भरपूर ठाठ के साथ अभिव्यक्त होती है- ‘झरने लगे नीम के पत्ते/ बढ़ने लगी उदासी मन की/ उड़ने लगी बुझे खेतों से/ झुर-झुर सरसों की रंगीनी/ धूसर धूप हुई मन पर ज्यों/ सुधियों की चादर अनबीनी।’ केदारनाथ सिंह ने ‘जाना को हिंदी की खौफनाक क्रिया’ कहा है।
उनकी एक कविता बरबस याद आ रही है- ‘यह पृथ्वी रहेगी/ मुझे विश्वास है/ यदि और कहीं नहीं/ तो मेरी हड्यिों में यह रहेगी/ जैसे पेड़ के तने में रहते हैं दीमक/ जैसे दाने में रह लेता है घुन/यह रहेगी/ प्रलय के बाद भी रहेगी/ यदि और कहीं नहीं रही तो/ मेरी जुबान और मेरी नश्वरता में यह रहेगी। और एक सुबह मैं उठूंगा/ मैं उठूंगा पृथ्वी समेत जल और कच्छप समेत/ मैं उठूंगा और चल दूंगा / उनसे मिलने जिससे वादा है कि मिलूंगा।’ कवि केदारनाथ सिंह वहां जाकर तो उस असीम में एकाकार हो गए होंगे, लेकिन यहां उदास कर गए। वे अपनी कविताओं के जरिये हमेशा याद किए जाएंगे, जिसमें जीवन के बीज छिपे हैं। 