जेएनयू में  स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज के प्रो. संजय कुमार पांडेय से संध्या द्विवेदी  की बलूचिस्तान मामले पर बातचीत।

क्या स्वतंत्रता दिवस के मौके पर बलूचिस्तान का जिक्र तर्कसंगत था?

प्रधानमंत्री के भाषण में बलूचिस्तान का जिक्र सोची-समझी नीति है या नहीं है, अगर है तो यह कितना तर्कसंगत है इसका सीधा जवाब देना आसान नहीं है। इसके पीछे क्या कारण थे इस पर गहन विचार करना होगा। हां, यह जरूर लगता है कि कहीं न कहीं भारत सरकार की मंशा पाकिस्तान को यह बताने की रही होगी कि अगर आप हमारे मुल्क के भीतर मानवाधिकारों का मसला उठा सकते हैं तो आपको भी आवश्यकता है कि आप अपने घर में भी झांकें।

क्या यह केवल मानवाधिकार का मसला है या फिर कश्मीर का जवाब?
दोनों ही बातें हैं। कश्मीर पर पाकिस्तान जिस तरह का रुख अख्तियार किए हुए है, उसे देखते हुए यह भारत की तरफ से एक प्रतिक्रिया या हिदायत भी है कि आप हमारे आंतरिक मसलों में दखल न दें। हालांकि बलूचिस्तान और कश्मीर के मसलों में बड़ा फर्क है। बलूचिस्तान पर हमने कभी अपना दावा नहीं ठोका जबकि कश्मीर के भू-भाग पर पाकिस्तान दावा करता रहा है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में बलूचिस्तान, पाक कब्जे वाले कश्मीर को जोड़कर उठाया है। इसलिए लाजिमी है कि हम भी इनको जोड़कर देखें। पाकिस्तान मानता है कि बलूचिस्तान तो उसका आंतरिक मसला है लेकिन कश्मीर द्विपक्षीय मुद्दा है। उसकी दखल कश्मीर पर लगातार बनी रही है। जब पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर मसले को उठाया तो भारत ने भी इस मसले को द्विपक्षीय बताकर किसी तीसरे को दखल न देने की हिदायत दी।

बलूचिस्तान के पाकिस्तान और भारत के लिए क्या मायने हैं?
पाकिस्तान के लिए बलूचिस्तान के बहुत ज्यादा मायने हैं। जितना महत्व हमारे लिए कश्मीर का है उससे भी कहीं ज्यादा। बलूचिस्तान पाकिस्तान का करीब 40-44 प्रतिशत भूभाग है जबकि कश्मीर भारत का 5-10 प्रतिशत हिस्सा होगा। बलूचिस्तान पाकिस्तान का संसाधन संपन्न क्षेत्र है, खासतौर पर गैस के मामले में। ऐसे में पाकिस्तान बलूचिस्तान के जिक्र पर भड़केगा तो जरूर। हालांकि फिर वही बात आती है कि आप दूसरों के घर में दखल देंगे तो आपके घर में दूसरे भी दखल देंगे। भारत के लिए बलूचिस्तान कभी वैसा मुद्दा नहीं रहा जैसा पाकिस्तान के लिए कश्मीर है। पाकिस्तान कश्मीर मसले पर भारत पर वादाखिलाफी का आरोप लगाता है तो भारत के लिए भी जरूरी हो जाता है कि वह पाकिस्तान को भी याद दिलाए कि कुछ वादे उसने बलूचिस्तान और खान आॅफ कलात के साथ भी किए थे जिन्हें उसने कभी पूरा नहीं किया। पाकिस्तान कुछ ऐतिहासिक तथ्यों और दस्तावेजों का हवाला देता है कि भारत सरकार ने महाराजा हरिसिंह के साथ कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात की थी जिसे पूरा नहीं किया गया। या बाद में शेख अब्दुल्ला के समय में जिस तरह के विशेष संबंधों की बात कश्मीर के साथ हुई थी उसे नहीं निभाया। अगर भारत पर पाकिस्तान वादाखिलाफी का आरोप लगाता है तो उसे बलूचिस्तान के साथ किए गए वादों का भी हिसाब देना पड़ेगा। पाकिस्तान ने भी बलूचिस्तान को विशेष स्वायत्तता देने का वादा किया था। इसमें कहा गया था कि रक्षा, विदेश नीति, संचार के मसले पाकिस्तान की सरकार के तहत रहेंगे जबकि अन्य मामलों में बलूचिस्तान को स्वायत्तता दी जाएगी मगर इस वादे का एक अंश भी पूरा नहीं किया गया। उलटे वहां मानवाधिकारों का उल्लंघन होता रहा। जो आवाजें स्वयत्तता के लिए उठाई गर्ईं उनका दमन जारी है।

अगर यह सिर्फ मानवाधिकारों के हनन का मसला है तो फिर बलूचिस्तान का ही जिक्र क्यों? मानवाधिकारों का हनन तो पाकिस्तान के कई हिस्सों में हो रहा है?
मोहाजिरों का मसला भी है। मोहाजिर ऐसे लोग हैं जो विभाजन के बाद भारत से वहां गए थे। मोहाजिरों के साथ बदसलूकी बड़ा मसला रहा है। लेकिन यहां पर बलूचिस्तान का मसला उठाने का सीधा कारण है वादाखिलाफी के आरोप का जवाब देना। मैंने पहले ही आपको बताया है कि पाकिस्तान कहता है कि कश्मीर के मसले में हमने उन वादों को पूरा नहीं किया जो हमने किए थे तो बलूचिस्तान के मसले में उस पर भी यही आरोप हैं। आपने भी बलूचिस्तान को स्वायत्तता देने की बात कही थी लेकिन उसकी स्वायत्तता कम होती गई और वहां लगातार हिंसा बढ़ी है।

जैसा बांग्लादेश के मसले में भारत ने कदम उठाया था, वैसा ही कुछ बलूचिस्तान के मसले में उठा सकता है?
मुझे नहीं लगता कि कोई कदम उठाने की जरूरत है या फिर ऐसी सोच भारत सरकार की है। जैसा कि पाकिस्तान कहता है कि हम नैतिक समर्थन देते हैं या राजनीतिक समर्थन करते हैं, वैसा ही समर्थन हम भी करते हैं।

प्रधानमंत्री के भाषण में बलूचिस्तान के जिक्र की दुनियाभर में क्या प्रतिक्रिया हो सकती है?
अभी तो यह कहना मुश्किल है कि इसके क्या परिणाम होंगे। इस मायने में इसे लाभ के तौर पर देखा जा सकता है कि हमने बलूचिस्तान का जिक्र करके भारत पर कश्मीर के मामले में लगे वादाखिलाफी के आरोप को नकारा है। लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल यह होगी कि पाकिस्तान अभी तक हमपर इल्जाम लगाता रहा है कि भारत का बलूचिस्तान के मामले में अवांछनीय हस्तक्षेप रहा है, हमने उसे नकारा है। लेकिन इस बयान के बाद कहीं न कहीं इस आरोप को बल मिलेगा। हालांकि मेरी नजर में ऐसा नहीं लगता कि प्रधानमंत्री ने कुछ ऐसा कहा जिसे दखल माना जाए। मगर यह बात उठेगी जरूर। यह भी बात उठेगी कि जिस बात के लिए हम पाकिस्तान की निंदा करते हैं, कहीं वही तरीका हमने भी तो नहीं अख्तियार कर लिया। इसकी संभावना तो है। इसीलिए मैंने शुरू में कहा था कि यह मसला इतना सीधा और आसान नहीं है। मुझे जो समझ में आ रहा है वह यह कि बलूचिस्तान का जिक्र एक प्रतिक्रिया है। लेकिन और क्या क्या कयास लगेंगे, वैश्विक स्तर पर क्या प्रतिक्रिया होगी, अभी कहना मुश्किल होगा।

चीन, अफगानिस्तान और ईरान की भी इस जिक्र पर कुछ प्रतिक्रया होगी?
बिल्कुल, चीन पर तो इसका असर पड़ेगा ही। चीन ने तो बलूचिस्तान में अपना बंदरगाह ही बनाया हुआ है। चीन का जिस तरह से दखल पाकिस्तान पर है, भारत की इस प्रतिक्रिया से वह नाखुश तो होगा ही। बलूचों के कुछ इलाके अफगानिस्तान और ईरान में भी हैं। इन देशों पर इस प्रतिक्रिया का असर तो पडेÞगा ही। अफगान शायद इस बयान से नाखुश ही होगा।

क्या बलूचिस्तान पाकिस्तान से अलग हो सकता है?
मुझे नहीं लगता कि ऐसा होगा। बलूचिस्तान पाकिस्तान का 40-44 प्रतिशत हिस्सा है जबकि यहां की आबादी पाकिस्तान की कुल आबादी का सिर्फ 4-5 प्रतिशत है। इसलिए पाकिस्तान पूरी ताकत झोंक देगा विद्रोह को दबाने के लिए। पाकिस्तानी सेना बहुत ताकतवर है, साधन संपन्न है। इसलिए चाहकर भी बलूचिस्तान अलग नहीं हो सकता। दूसरी तरफ अमेरिका हो, चीन हो या रूस कहीं से भी बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के लिए समर्थन मिलने की संभावना नहीं नजर आती। मुझे नहीं लगता कि हिंदुस्तान से भी कुछ इस तरह का समर्थन मिलेगा। हम मुद्दा उठा सकते हैं, जिक्र कर सकते हैं, यह संदेश देने के लिए कि आप अगर हमारे आंतरिक मामलों में दखल देंगे तो हमारे पास भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं, आपकी कुछ ऐसी बातें हैं जिन पर हम आपको आड़े हाथ ले सकते हैं। इससे ज्यादा कुछ और करने की भारत की मंशा मुझे नजर नहीं आती है। इससे ज्यादा होनी भी नहीं चाहिए।

बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के लिए मांग कर रहे संगठन भारत के इस बयान को अपने पक्ष में ले रहे हैं। क्या यह संदेश जाना ठीक है?
अगर कहीं लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हो रहा है तो एक जिम्मेदार पड़ोसी होने के नाते हम चिंता व्यक्त कर सकते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। हम यह भी चाहते हैं कि इन संगठनों के साथ शांतिपूर्ण ढंग से बातचीत हो, सैनिक कार्रवाई को रोका जाए, उन्हें स्वायत्तता दी जाए। भारत सरकार खुद भी इस तरह का रवैया अपने देश में अपनाती रही है। हम असंतुष्ट संगठनों से बातचीत करते हैं। उत्तर पूर्व के बहुत सारे संगठनों से बातचीत करते रहे हैं और कर रहे हैं। पाकिस्तान को भी दमन का नहीं बल्कि बातचीत के जरिये इसका हल निकालना चाहिए।

स्पष्ट तौर पर हम क्या कहेंगे, हमने चिंता व्यक्त की है या समर्थन किया है?
हम तो इसे चिंता व्यक्त करना ही कहना चाहेंगे।

अब्दुल गफ्फार खान यानी सीमांत गांधी का जिक्र भी इन दिनों हो रहा है। बलूचिस्तान के मसले से वह कैसे जुड़े हैं?
अब्दुल गफ्फार खान नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस में थे। वह शुरुआती दौर में पाकिस्तान में विलय नहीं चाहते थे बल्कि भारत के साथ रहना चाहते थे। वह भारतीय नेशनल कांग्रेस और गांधी जी से प्रभावित थे। पख्तून लोग यह मानते हैं कि हमने उनका साथ नहीं दिया। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस तरह के गड़े मुर्दे उखाड़ना जरूरी है। मेरी निहायत निजी राय है कि इसे मानवाधिकारों के हनन को लेकर चिंता के तौर पर देखना चाहिए और एक चेतावनी के तौर पर भी कि देखिए आप अपनी हरकतों से बाज आइए। हमारे देश में दखल देना बंद कीजिए नहीं तो हम भी आपके मसलों को उठाएंगे। आपके दामन में जो दाग लगे हैं उन्हें सबके सामने लाएंगे। मुझे लगता है कि इस पूरे जिक्र को इन्हीं दो बातों में समेटना चाहिए।