मैत्रेयी पुष्पा ।

मर्दों के इस समाज में औरत तो औरत है। चाहे वह छोटी बच्ची हो, जवान हो या प्रौढ़ अथवा वृद्धा। युवतियों और महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं और उनके वीडियो भी बनाए जा रहे हैं। एक तो वे आसानी से हाथ नहीं आतीं वो विरोध और जद्दोजहद करती है उसे घेरने में इनको दिक्कत आती है लेकिन यह भी एक धंधा है। इसलिए चार छह लोग मिलकर उसको घेरते हैं और उसे घेरते हुए वीडियो बनाते हैं। फिर ये वीडियो बेचे जाते हैं। सैडेस्टिक प्लेजर वाले जो लोग जो उन्हें देखना चाहते हैं, वे खरीदते हैं। ये बात छोटी बच्चियों से बलात्कार के मुकाबले थोड़ी कठिन है। छोटी बच्ची तो विरोध भी नहीं कर सकती। उसे कहीं से भी उठा सकते हैं। आप उसे टॉफी, आइसक्रीम किसी भी चीज का लालच देकर आसानी से भरमा सकते हैं। नासमझी की उम्र है, वह नहीं समझेगी कि इसके पीछे आपकी मंशा क्या है। वह तो बच्ची होती है, भोली होती है। तो ऐसे लोगों के लिए उसे उठाना आसान होता है। इसलिए ऐसी ज्यादातर घटनाएं होती हैं। वरना हमने तो अपने जमाने में (हालांकि जमाना यह भी हमारा ही है) जब हम झांसी की तहसीलों में बीहड़ों में स्कूल कॉलेजों में पढ़ते थे या फिर पढ़ने के बाद दिल्ली आ गए… ऐसी घटनाएं नहीं सुनी थीं। बलात्कार की घटनाओं का विश्लेषण करने वाले लोग हमसे कहते हैं कि आप सुनतीं कैसे? तब संचार के इतने साधन कहां थे? अखबार में कुछ आता ही नहीं था, टीवी-इंटरनेट था ही नहीं! मोबाइल और वीडियो बनते नहीं थे तो आप कैसे देखतीं? …ऐसी बात नहीं है। जिन क्षेत्रों में हम रहते थे वहां टीवी, वीडियो, इंटरनेट की कोई जरूरत नहीं थी। कोई घटना होती थी तो वह छिपाए नहीं छिपती थी। छोटी से छोटी घटना जैसे किसी के घर कोई मेहमान भी आया तो एक घंटे के भीतर पूरे गांव को मालूम पड़ जाता था। …तो ये तो केवल बहाना है कि ऐसी घटनाएं पहले भी थीं लेकिन अब तकनीक इतनी विकसित हो गई है कि खुलासे जल्दी आ रहे हैं। मैं निन्यानवे फीसदी दावे के साथ कहती हूं कि इतनी वीभत्स घटनाएं पहले नहीं होती थीं जैसा कि आज बच्चियों के साथ इतना खूंखार व्यवहार किया जा रहा है। मैं बार बार यह सोचने की कोशिश करती हूं कि एक सात साल की बच्ची उसमें आपको क्या मिल रहा है, कितना सेक्स है उसमें! जो शरीर विकसित ही नहीं हुआ आप उसके साथ बलात्कार कर रहे हैं। फिर तो आपको बच्ची ही नहीं कोई मादा जानवर भी मिले तो भी आप यही करेंगे।

ये जो एक अपराधी नस्ल पैदा हुई है उसका एक कारण तो मैं यह मानती हूं कि हमारी व्यवस्था बहुत लचर है। मैं तो देखती भी हूं और सुनती भी हूं शायद और लोग भी देखते-सुनते होंगे कि… पुलिस नहीं सुनती। थाने नहीं सुनते। सब टालने की कोशिश करते हैं। कोर्ट सालो साल लगा देते हैं। तो अपराधी को पता है कि हम जो अपराध कर रहे हैं उसका हश्र क्या होगा। वह अब डर नहीं रहा बल्कि और बेखौफ हो गया है। यह हुई एक बात। दूसरी बात हमारे यहां तो नई तकनीक आई है मोबाइल से वीडियो बनाने की, फिर तमाम अश्लील वीडियो की इंटरनेट पर भरमार है जो वीडियो कंप्यूटर सब जगह उपलब्ध हैं उन्हें बच्चे भी देख रहे हैं और बड़े भी। यह भी काफी हद तक जिम्मेदार है ऐसी घटनाओं के लिए- मैं यह बात मानती हूं और मानती रहूंगी। मैं बात को थोड़ा खोलकर कहूं तो पहले कुछ अश्लील किताबें बिका करती थीं। मुझे याद है उनके नाम कुछ इस तरह होते थे- भांग की पकौड़ी। उनमें सभी प्रकार के संभोगों के वर्णन होते थे। उन्हें जो लोग पढ़ते थे उनमें काम वासना बहुत तगड़े रूप से जागती थी। वे इसीलिए पढ़ी भी जाती थीं। लेकिन अब तो पढ़ने की जरूरत भी नहीं है देखने की सुविधा है। तो जो लोग इन अश्लील वीडियो को देखते हैं वो अपने को रोक भी नहीं पाते और जो हाथ आती है उसी को पकड़ते हैं। जो चीजें हमें सुविधा और जानकारी बढ़ाने के लिए दी गई थीं उनका दुरुपयोग हम किस हद तक कर रहे हैं यह इन छोटी बच्चियों से बलात्कार और फिर पाशविक हिंसा की घटनाओं से सिद्ध हो रहा है। क्या बच्ची, क्या जवान, ये तो वृद्धा को भी नहीं छोड़ते। तो ये वो कामान्ध जोश है जो होश खो देता है। मैं कहती हूं कि तकनीक के इस दुरुपयोग पर रोक लगनी चाहिए। फिर मेरे खिलाफ तर्क दिया जाएगा कि विदेशों में तो कब से चल रहा है ये। लेकिन विदेशों में क्या क्या हो रहा है सारी बातें तो हमें पता नहीं चलतीं, लेकिन वे यह समझ चुके हैं कि यह किसलिए है और किसलिए नहीं है। हमारे देश में इसको ऐसे लिया जा रहा है जैसे कोई जादू का पिटारा हाथ लग गया हो जो हमें आनंद देगा। इसे मौज मजे का साधन मान लिया गया है। यही कारण है कि जो बच्ची हाथ आती है उसे बहला फुसला कर दुराचार करते हैं। अंग काट लेते हैं और वीभत्सता ऐसी कि कहा नहीं जा सकता, यह इसलिए कि जब अपराध करते हैं तो उसके बाद कुछ सूझता नहीं हिंसा के सिवा। अपराध करने वाला बाद में और भी खतरनाक और खूंखार अपराधी के रूप में सामने आता है। कई बार उस बच्ची को पहचाना न जा सके इसलिए भी उसके शरीर के साथ वीभत्सता करते हैं। अपराधियों को लगातार संदेह रहता है कि कहीं वह जीवित न रह जाए। इसे राक्षसी व्यवहार कहना भी गलत है क्योंकि राक्षस भी ऐसा नहीं करते होंगे जैसा हम आजकल देख रहे हैं। हम सोच रहे हैं कि हे भगवान हम किस दुनिया में हैं और इस दुनिया से हम कहां चले जाएं?
ये घटनाएं उस देश में हो रही हैं जहां एक तरफ कहा जाता है कि हम कन्याओं के पांव पूजते हैं। हमारे बुंदेलखंड में न सिर्फ बच्ची के पांव पूजे जाते हैं बल्कि भूलवश अगर उसे अपना पैर भी छू जाए तो उसके पांव छूते हैं। ऐसा रिवाज है। तो एक तरफ कन्या पूजन करते हैं, देवी पूजन पर कन्याओं को जिमाते हैं… और एक तरफ ये सब हो रहा है। वो भी आप हैं और ये भी आप ही हैं। हमारा सारा पुरुषवर्ग मदांध कामांध हो चुका है। जिन्होंने स्त्री के सम्मान की कस्में खाई हैं कि हम तो उसे पूजते हैं। मां हमारी पूज्य है, बेटी हमारी पूज्य है- ये सब नारे झूठे हैं। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: (जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवताओं का निवास होता है)… ये बकवास है, महिलाओं को बहकाने के लिए है। ये सब होता तो आप बलात्कार करते? मेरी जब लोगों से बहस होती है तो वे ये तर्क देते हैं- हमारे तो कई देवताओं ने बलात्कार किया है इंद्र को देखिए गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ क्या किया, ब्रह्मा को देखिए अपनी बेटी के साथ किया। जो तीन देव अनसूया जी के पास आए थे वे उनके पति का रूप धरकर ही आए थे। तो जो हमारे ग्रंथ हैं वे झूठे हैं या सच हैं। अगर वे यह सदेश दे रहे थे कि हमारे देव भी बलात्कार करते थे तो हम स्त्री जाति होने के कारण उन्हें नहीं मानते। दूसरे तर्क दिए जाते हैं कि अगर ग्रंथ कहते हैं तो शायद ऐसा रहा हो क्योंकि जब जाबाला से उसका बेटा जाबाल सवाल करता है कि मेरे पिता कौन हैं, तो वह उत्तर देती है- मैं तो ऋषियों मुनियों की सेवा में रहती थी, उनमें से तू किसका बेटा है मुझे नहीं पता। …तो इसका क्या मतलब हुआ? ऋषि मुनि बलात्कार ही करते होंगे- या सहमति से संबंध बनाते होंगे। एक पुरुष एक स्त्री के साथ बलात्कार कर सकता है क्योंकि वह शारीरिक रूप में अधिक सक्षम है स्त्री के मुकाबले। हां, संबंध बनते हैं सहमति से। इसलिए बलात्कार और सहमति से संबंध में फर्क है।
मंदसौर, सतना ही क्यों… रोज कहीं न कहीं बच्चियों के साथ वीभत्स बलात्कार की घटनाएं खबर बन रही हैं। जैसे कसाई बकरे को काटता है तो उनके लिए वह बच्ची ऐसी ही थी। लेकिन बात केवल बच्ची की नहीं संपूर्ण स्त्री जाति की है। वह बच्ची भी स्त्री जाति की ही है। और स्त्री हमारे समाज को हमेशा एक भोग की वस्तु लगी है। स्त्री चाहे पैदा हुई हो या मरने की कगार पर हो इनके लिए औरत ही है और औरत नहीं बल्कि वह मादा है। आप स्त्री को चाहे किसी पद पदवी पर बिठा दो। कोई पद पदवी मायने नहीं रखती है। मर्दांे की निगाह में वह स्त्री पहले है, बाद में कुछ और है। अभी सोशल मीडिया पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी खूब ट्रोल की गर्इं। औरत होने के कारण वे पुरुषवादी समाज के लिए आसान शिकार थीं। अगर ऐसा न होता तो कोई प्रियंका चतुर्वेदी से यह कहता कि अपनी लड़की ला मैं उसके साथ बलात्कार करूंगा। प्रियंका चतुर्वेदी की दस साल की बेटी है। वहीं विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पर महिला होने को लेकर इतनी भद्दी भद्दी टिप्पणियां की जातीं! सुषमा और प्रियंका के लिए मैंने लिखा कि पद तो तुमने अपनी योग्यता से प्राप्त कर लिया लेकिन पद पाकर तुम स्त्री होने से सुरक्षा थोड़े ही पा गर्इं। हो तो तुम औरत ही और कभी नहीं माना जाएगा कि तुम देश की विदेश मंत्री हो या पार्टी प्रवक्ता हो… पहले यह माना जाएगा कि तुम स्त्री हो। सबसे पहले आपको क्या माना जाता है। स्त्री को नागरिक भी नहीं माना जाता। उसकी नागरिकता की रक्षा भी नहीं होती। उसके पद की गरिमा की रक्षा जो खैर उसके बाद ही होगी! मर्दांे की पहली नजर में औरत मादा है।
पुरुषवादी सोच पर आधारित इस समाज के पास औरतों के खिलाफ एक हथियार है जिसे कोई भी कुंद नहीं कर पा रहा वह है- बलात्कार। आप शारीरिक हिंसा में सेक्सुअल हिंसा मिलाते ही हैं तभी आपको जीत मालूम होती है। घरेलू हिंसा से लेकर बाहरी हिंसा तक ये चीज पूरी फैली हुई है। मारपीट के साथ सेक्सुअल हिंसा जैसे पुरुषों का विजय चिह्न हो। इस प्रकार की मानसिकता वाले मर्द सोचते हैं कि जब तक हमने स्त्री पर सेक्सुअल हिंसा कर विजय नहीं पाई तब तक हमने औरत का कुछ जीता ही नहीं। एक कहावत है कि एक बुढ़िया से पूछा गया कि औरत की सच्चाई क्या है? बुढ़िया ने कहा कि औरत की सच्चाई के बारे में जितना ज्यादा छुपाया जा सके उतना अच्छा है। लेकिन एक बात सुनो ऐसा कहा जाता है कि अगर औरत के पास जाओ तो अपना कोड़ा ले जाना मत भूलना। …ये न जाने कब कहा गया होगा लेकिन अभी तक वही चल रहा है, वरना औरतों के साथ इतनी हिंसा क्यों हो रही है। औरत को शुरू से ही कमजोर माना गया है। इसीलिए लड़की के जन्म पर चाहे तुम कितने ही ढोल बजा लो, उसके पैदा होने से उसके मां बाप ज्यादा खुश कभी नहीं होते हैं। ये ऊपरी बातें हैं कि हम तो बहुत खुश हुए। झूठ बोलते हैं। खुश इसलिए नहीं होते लड़की पैदा होती है उसके साथ ही ये खतरे भी पैदा हो जाते हैं… उसके साथ कब हिंसा, सेक्सुअल हिंसा या सामाजिक हिंसा हो जाए। औरत जबसे जन्म लेती है और मरण तक ये सारी बातें उसकी जिंदगी से जुड़ी हुई हैं। मैं बड़े परिप्रेक्ष्य में जोर देकर कहूंगी कि ‘इसीलिए’ …वह स्वतंत्रता का कितना ढोल बजाए वह कभी स्वतंत्र नहीं हो पाती है। उसे चारों तरफ से घेरे हुए हैं लोग… आज भी घेरे हुए हैं, कल भी घेरे हुए थे, आगे भी कब तक घेरे रहेंगे -नहीं कह सकते। मैं बार बार कहती हूं कि 1947 में देश ने आजादी पाई लेकिन स्त्री तो आज भी आजाद नहीं है। वह तो पुरुषों की आजादी थी। मुगल चले गए, अंग्रेज चले गए। लेकिन ‘आप’ (पुरुष) तो हैं। स्त्री को तो आपने आज तक आजाद नहीं होने दिया। अब तो आपका शिकंजा पैदा हुई बच्ची से लेकर अस्सी साल की बूढ़ी तक पर है। इसको हम आजादी मानेंगे… नहीं ना! हमें झूठे ढकोसले, दिलासाएं, आश्वासन देकर बराबर ठगा जा रहा है। पहले तो घरेलू हिंसा अधिक थी अब तो बाहरी हिंसा भी उतनी ही है जैसे बाहरी लोगों को भी स्त्री को मारने पीटने बलात्कार करने का हक हो।
एक व्यक्ति एक स्त्री से बलात्कार करता है, लेकिन कई घटनाएं हुर्इं कि चार या ज्यादा लोगों ने एक स्त्री को घेर लिया। और ये सामूहिक बलात्कार बढ़ा है फूलन देवी के जमाने से। तो मैं तो कहती हूं कि हर लड़की को फूलन देवी होना चाहिए, बल्कि होना ही चाहिए। पीछे चाहे जो भी कुछ होता रहे कम से कम उन चार छह को मार तो देगी। सामूहिक बलात्कार दरअसल पाशविक बलात्कार है। जैसे पशु करते हैं किसी की शर्म नहीं। नंबर लगा कर करते हैं। यहां आदमी आदमी नहीं पशु है।
स्त्रियों के साथ पाशविक व्यवहार और बलात्कार के खिलाफ तो उन पुरुषों को ही मुहिम चलानी चाहिए जो अपने में कुछ पुरुषार्थ रखते हैं। उनको आगे आना ही चाहिए क्योंकि उनको स्त्रियों को नहीं समझाना है, पुरुषों को समझाना है। फिर बहन, बेटी, पत्नी तो उनके घर भी हैं। …पर होता कुछ नहीं। एक घटना चर्चित हो जाए तो कुछ दिन हल्ला मचता है, फिर सब शांत। चैनल वाले खबरें बेचकर टीआरपी बढ़ाने में जुटे हैं। उनकी लोगों को जागरूक करने की मंशा नहीं है। वो विजुअल डालकर चटखारेदार पैकेज बनाते हैं। फिर उसे पूरा दिन चलाते हैं। तो जो सैडेस्टिक प्लेजर बलात्कारी ले रहा है वह चैनलों पर भी दर्शकों को परोसा जा रहा है और उसका चस्का लगाया जा रहा है। लड़की किस हालत में पड़ी है- यह भी दिखाया जाता है और इस तरह के वहशी लोग उसका आनंद लेते हैं। जहां विजुअल नहीं मिलता वहां नाटकीय रूपांतरण कर उसे फिल्म की तरह दिखाते हैं। क्या जरूरत है कि इस चीज को फैलाया जाए। क्या आप समाज में सुधार, स्त्रियों के प्रति अच्छे व्यवहार की बातों को भी इसी तरह फैलाते हैं? नहीं… इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कोई पॉजिटिव चीज नहीं आएगी। चैनलों को बेचने के लिए स्त्री ही चाहिए चाहे मनोरंजन जगत की नाचती गाती गुड़िया हो या समाज की पीड़ित की दुर्दशा। कैमरा उसका शरीर ही दिखाएगा। ये स्तर हो गया है मीडिया का आजकल। स्त्री उत्पीड़न की ऐसी वीभत्स घटनाओं को बढ़ाने में मीडिया भी काफी योगदान कर रहा है हालांकि यह एक अलग विमर्श का विषय है।

 फिर कहूंगी कि पोर्न और नशा जिसमें ड्रग्स से लेकर शराब तक न जाने कितने तरह के नशे शामिल हैं वो रेप की घटनाओं का बड़ा कारक है। एक शराब ऊपर से पोर्न- डबल नशा हो जाता है। फिर व्यक्ति अपने को रोक नहीं पाता। उसका विवेक मर जाता है। फिर उसे कुछ नहीं सूझता सिवा सेक्स के। बलात्कार के बाद हिंसा बड़ा आवश्यक सा लक्षण है। बलात्कार तो खुद ही हिंसा होता है। और फिर जो पीड़िता के शरीर की चीरफाड़ कर डालता है वह सेक्स के बाद की ही हिंसा है। ऐसी घटनाओं के बढ़ने की वजह नशा, पोर्न का फैलता बाजार, इन पाशविक घटनाओं का बड़े पैमाने पर मीडिया में प्रचार प्रसार ये सभी हैं। पोर्न देखते हैं, बलात्कार करते हैं, बलात्कार का वीडियो बनाते हैं और उसे बेच देते हैं। ये वीडियो चैनलों पर चलते हैं।

तो स्त्री सुरक्षा कहां पाए? कहां आप स्त्री को रहने ही नहीं देंगे। फिर आपके परिवार में स्त्री कहां से आएगी। हरियाणा में देख लीजिए वो औरतों को खरीद खरीद कर ला रहे हैं। एक तो उसे जन्मने नहीं देते, जन्म ले ले तो ऐसा बर्ताव।

मेरी उम्र सत्तर की है। मैंने वह जमाना भी देखा है जब लड़की थी और पढ़ती थी। तहसील के लड़कों के कॉलेज में पढ़ती थी। हम गांव में रहते थे और लड़कियों के पढ़ने के लिए इंटर कॉलेज तब नहीं होते थे। हम बीहड़ के रास्ते स्कूल जाते थे। तब हमें बलात्कार क्यों नहीं सुनाई पड़ा। एकाध घटनाएं हुर्इं लेकिन वह लड़कों की तरफ से नहीं हुर्इं। वो प्रिंसिपल या बड़ी उम्र के टीचरों की तरफ से हुर्इं छेड़खानी आदि की।

स्त्रियों के लिए महिला मंगल, समाज कल्याण स्कीमें चलती थीं। गांव गांव बालबाड़ी केंद्र चलते थे बच्चों के लिए। योजनाएं अब भी हैं। बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ- सारी बेटियां पढ़ गर्इं… पढ़ गर्इं तो बचाना मुश्किल हो गया… किससे बचाएं बेटी को… उन्हीं मर्दांे से! कांग्रेस की सरकार हो चाहे और दलों की सरकारें हों- ये योजनाएं इसलिए फ्लॉप हुर्इं क्योंकि इन पर गंभीरता से काम नहीं हुआ। मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह बात अच्छी लगी कि रात बेटा देर से घर आए तो उससे भी पूछा जाना चाहिए कि वह कहां था? बहुत बड़ी बात है। लेकिन मां-बाप में पूछने की हिम्मत है। उनके लिए लड़का तो संतान है लेकिन लड़की लड़की है संतान नहीं है। पैसे वाले और पढ़े लिखे घरों में भी कोई बहुत अलग हाल नहीं मिलेगा, आपको। मां-बाप में बेटे से सवाल करने की हिम्मत नहीं है। वे खुद उसे छूट देते हैं कि ये तो लड़का है और उसकी तमाम बुरी आदतें और मनमानियां खारिज करते हुए उसके लिए बड़ी से बड़ी सौगात जुटाने के जतन में जिंदगी गला देते हैं। समाज ऐसा ही है आज भी। तो घर से ही लड़कियों को बराबरी कहां मिलती है। उसके शोषण के रूप बदलते रहते हैं लेकिन शोषण स्त्री का हर रूप में होता है।

एक सर्वे आया था और मैंने फेसबुक पर लिखा था कि वह सही है और महिलाएं भारत में सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। तमाम लोग मेरे पीछे पड़ गए थे मेरी बात समझने के बजाय। पार्टी पॉलिटिक्स के दौर में कोई बात कहना भी कठिन हो गया है। कहा गया कि इतनी असुरक्षित तो महिलाएं नहीं हैं भारत में। अरे, तुम छोटी छोटी बच्चियों को नहीं बचा पा रहे हो… तुम किस मुंह से कह रहे हो कि महिलाएं असुरक्षित नहीं हैं। हमारी छोटी बच्ची सड़क पर नहीं जा सकती है। पहले तो यह डर होता था कि कहीं कोई दुर्घटना न हो जाए, कोई उठा न ले जाए… अब तो यह डर है कि कहीं उसके साथ भी बलात्कार न हो जाए। जो लड़कियां थोड़ी बड़ी समझदार हो गई हैं वो भी घर से ऐसे कफन बांधकर निकलती हैं कि हमारे साथ कहीं कोई हादसा न हो जाए… हर मां बाप यही सोचता है वह शाम को सुरक्षित घर लौट आए। इतना डर है लोगों में… और मैं अपनी देखी बात कह रही हूं, सुनी सुनाई नहीं।

कौन सा विभाग है जहां महिलाओं से गैरबराबरी और शोषण का बर्ताव नहीं होता। महिला पुलिस पर मैंने दो किताबें लिखी हैं- फाइटर की डायरी और गुनाह बेगुनाह। कम से कम पुलिस में तो महिला से यही उम्मीद की जाएगी कि उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। लेकिन उनके साथ ऐसे ऐसे हादसे होते हैं कि अपने को बचाना मुश्किल पड़ जाता है। ये मेरी आंखों देखी बातें हैं। करनाल का मधुबन पुलिस ट्रेनिंग सेंटर है। मैं वहां महीनों रही हूं और जो ट्रेनिंग देती थीं, बीस बीस साल की सर्विस कर चुकी थीं उनके साथ कहां कहां नहीं भागी फिरी। तब मैंने ये किताबें लिखीं। उसमें लिखा है कि लड़की कांस्टेबल या उससे ऊपर रैंक की हो… थाने में उसके साथ कैसा बर्ताव होता है। जब वे अपराधी को पकड़ने जाती हैं तो उन्हें अपने ही साथी पुलिसकर्मियों से बचना पड़ता है।

कम से कम समाज में थोड़ा डर जरूरी है और महिलाओं के सम्मान की रक्षा के लिए यह काम सरकार ही कर सकती है। इतना तो करने में खास दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि कोर्ट में बलात्कार के मामले जल्द से जल्द निपटाए जाएं। कोर्ट जो सजा दे सरकार उसे जल्द से जल्द अमल करवाए। सालों बाद भी दुराचारी खुले घूम रहे हैं। और पीड़िता के लिए जीवन मौत से बदतर हो चुका है। फिलहाल इतना हो जाए कि पीड़िता को हौसला मिले और अपराधी भयभीत हों… बाकी बड़ी बातें बाद की बात हैं।

(अजय विद्युत से बातचीत पर आधारित)