अजय विद्युत। 

आइए बारिशों का मौसम है। सूरज चाचा ने जितना तपाना था तपा लिया। अब ठंडी बूंदों का जादुई असर है जो या तो आपको बचपन में ले जाता है या जवानी में। बूढ़ा तो किसी को होने ही नहीं देता। जैसे नए सिरे से जीवन की शुरुआत। खुशी को हम गाकर या नाचकर ही व्यक्त करते हैं। सो बारिश में भी एक से एक गीत हैं जो प्रकृति के और प्रणय के सूत्रों से जीवन को गूंथते हैं। आज संगीत का एक बड़ा स्रोत एफएम रेडियो है। युवाओं में पढ़े लिखे, आधुनिक और पश्चिमी फैशन से प्रभावित लोग भी बारिश के मौसम में पुराने गाने ही ज्यादा सुनते हैं। वजह क्या है। नए बन नहीं रहे या भा नहीं रहे। बारिश हो तो इस बर्गर-पिज्जा युग में भी पकोड़ा ही क्यों याद आता है? ये तमाम बातें भी करेंगे हम। प्रकृति के साथ संपूर्ण मानवता के इस उत्सव में हमारे साथ हैं साहित्य के क्षेत्र में नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते कवि
कुमार विश्वास…

बॉलीवुड के पुराने वर्षा गीत ही युवाओं को भाते हैं। ऐसा क्यों?
संगीत तो एक उपकरण या आभूषण है। मूल आत्मा शब्द है। तो पहले जब गीत तैयार होते थे फिल्मों में तो वे दो तरीके के थे। एक तो कवि सम्मेलनों और मुशायरों से गए कवि और शायर फिल्म इंडस्ट्री पर राज कर रहे थे। मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर, कैफ भोपाली, कैफी आजमी, गोपालदास नीरज, पंडित नरेंद्र शर्मा, भरत व्यास। ये सब वे लोग हैं जो साधना से आए थे। जिन्होंने कविता की पृष्ठभूमि, अदब की तहजीब, ग्रामीण बोध- इन सब चीजों को जिया था निजी रूप से। और उन्हें उस परंपरा का ज्ञान था कि कौन सी बात कैसे कही जाती है और सुनी जाती है। ये सब उन्हें पता था।

अब क्या है?
अब वह शब्द विन्यास मूलत: हिस्सा ही नहीं है उस प्रक्रिया का। किसी ने एक धुन गुनगुना दी। किसी ने उस धुन के ऊपर चेप दिया। तो संगीतकारों की एक विशेष प्रक्रिया होती है डमी लिरिक्स बनाना। जब वो धुन बनाते हैं तो उसमें डमी लिरिक्स भर लेते हैं। बाद में वो डमी लिरिक्स दी जाती हैं गीतकारों को कि आप इस पर लिखिए। आजकल डमी लिरिक्स को ही लिरिक्स माना जाने लगा है। जो आपने डमी लिरिक्स बनाई वो ही फाइनल है। बोलेंगे कि यही अच्छा लग रहा है, इसे चलने दो। कोई दिक्कत नहीं है। तो नए गानों में शाश्वत तत्व शून्य है। है ही नहीं। उनमें कोई यूनिवर्सल वैल्यू नहीं है। और आपको अंतत: ट्रैंकुएलिटी में जो चीज छुएगी वह शाश्वत छुएगी। तो इसीलिए पुराने गीतों का दौर अभी भी जिंदा है। लोग पुराने गीत पसंद करते हैं, गाना चाहते हैं।

यानी नए के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है?
नए गीतों में भी जब जब कविता आती है, तब तब वह सुना जाता है। चाहे वह फिल्म का हो या गैर फिल्मी। अभी राहत फतेह अली खान ने गजल कम्पोज की- तेरी आंखों के दरिया का उतरना भी जरूरी था/ जरूरी था कि हम दोनों तवाफ-ए-आरजू करते/ मगर फिर आरजुओं का बिखरना भी जरूरी था… उसे कम से कम दस करोड़ लोगों ने यूट्यूब पर देखा। इसका मतलब कि उसमें कविता का तत्व था तो लोगों ने देख लिया, सुन लिया।

वर्षा को लेकर हम इतने एक्साइट क्यों रहते हैं?
भारत ऐसा सौभाग्यशाली देश है जहां छह ऋतुएं होती हैं। भारत मूलत: मध्यमवर्ग में और गांवों में बसता है। ग्रीष्म काटे नहीं कटता। खेत में समस्या है, सड़क पर समस्या है, जलती लू है। ऐसे में जब बारिश आती है तो वह प्रकृति का उत्सव नहीं बल्कि उसमें प्रकृति में जीने वाले सब लोगों का उत्सव है। पशु पक्षियों का, पेड़ों का, उनकी पत्तियों का, मनुष्यों का सबका उत्सव है कि आनंद आ गया- वाह, क्या बात है। तो ये जो उत्सवधर्मिता है इसकी वजह से बारिश और उसके गीतों के प्रति बहुत ज्यादा लगाव है और लोक में तो बरखा के गीत अत्यंत प्रचलित हैं। वर्षा ऋतु में मल्हार खूब गाए जाते हैं लोक में। दूसरे वर्षा ऋतु ग्रीष्म की बुवाई और कटाई दोनों के बाद एक ऐसा समय होता है जब किसान को खेत में कम जाना होता है चौमासे में। तो यह उसका अधिक सोशलाइजेशन का समय है। इसीलिए गाने और संगीत में उसकी रुचि ज्यादा होती है। वर्षा ऋतु में प्रकृति उत्सव करती है, नाचती है, आनंदित होती है। और उत्सवों का प्रारंभ है यहां से। इसके तुरंत बाद जब अगली ऋतु आएगी तो उत्सव आने शुरू हो जाएंगे दशहरा-दीवाली आदि।

मेरी पसंद/ बादड़ियो गगरिया भर दे
बादड़ियो गगरिया भर दे/ प्यासे तन-मन-जीवन को/ इस बार तो तू तर कर दे/ बादड़ियो गगरिया भर दे
अंबर से अमृत बरसे/ तू बैठ महल में तरसे/ प्यासा ही मर जाएगा/ बाहर तो आजा घर से/ इस बार समन्दर अपना/ बूंदों के हवाले कर दे/ बादड़ियो गगरिया भर दे…
सबकी अरदास पता है/ रब को सब खास पता है/ जो पानी में घुल जाए/ बस उसको प्यास पता है/ बूंदों की लड़ी बिखरा दे/ आंगन मे उजाले कर दे/ बादड़ियो गगरिया भर दे…

सबके और खासकर ‘गूगल’ पीढ़ी के लिए वर्षा का आनंद इतना मादक क्यों है?
आप मॉडर्न यूथ को लें तो गर्मी के बाद भीगना उसे आनंदित करता है। धुली धुली सड़कें, धुला धुला पूरा मंजर, धुले धुले पेड़, हाईवे पर मनोरम दृश्य- ये सब अपने आप में उसके लिए मादक विषय हैं। इसीलिए वह उत्सवधर्मिता में रहता है। और अब तो यह होने लगा है कि वर्षा कुछ जगहों पर नहीं है या नहीं पहुंच पा रही है तो वॉटर पार्क्स में रेन डांस होने लगा है। वे कृत्रिम वर्षा में भीगने नाचने का आनंद लेते हैं। जब स्त्री का शारीरिक सौंदर्य भी विषय बन गया सुंदरता का… और जो कि बहुत आवश्यक है कि अगर ईश्वर ने उसे सुंदरता दी है तो उसे वह क्यों न दिखाए… तो राजकपूर ने वर्षा का बहुत जबरदस्त इस्तेमाल किया। राजकपूर ने अपना शुरुआती करियर लाइटमैन के रूप में शुरू किया था। उन्हें बिजली की और पानी की बहुत समझ थी। कितनी लाइट कहां से पड़े तो उसका क्या प्रभाव होगा। तो उन्होंने बाद में अपनी फिल्मों में बारिश का जो इस्तेमाल किया, ब्लैक एंड व्हाइट ब्यूटी के साथ नरगिस के चौड़े फेस पर जो उन्होंने बूंदें फैलार्इं वो बाद में लैंडमार्क बन गए। क्योंकि राजकपूर बड़े शोमैन थे और उनके हिसाब से भी इंडस्ट्री खूब चली। तो युवाओं पर उसका भी बहुत असर पड़ा।

बारिश को तो सबसे ज्यादा पारिश्रमिक लेने वाले कवि भी सेलिब्रेट करते रहे हैं?
शुरुआती दौर में मेरा जो सबसे पॉपुलर गीत हुआ वह बारिश पर था- बादड़ियो गगरिया भर दे। लोग खूब झूमते, गाते, डांस करने लगते थे। उसे अभी आपको व्हाट्सएप पर भेज दूंगा। बेसिकली उसमें अध्यात्म है। लेकिन लगता है कि भीगती हुई लड़की के ऊपर लिखा गया गीत है। देश में और विदेश में आधा दर्जन से ज्यादा कवि सम्मेलन मैं ऐसे झेल चुका हूं जहां प्रोग्राम के बीच में बारिश हो गई। जब जब ऐसा हुआ मैंने उठकर उसी गीत को भीगते हुए गाया। उससे बड़ा अद्भुत सा माहौल हर जगह बना। मैंने मन से सुनाया तो लोगों ने मन से सुना। अभी होल्कर क्लब जो इंदौर का बहुत महंगा, मशहूर और बड़े लोगों का क्लब है वहां कार्यक्रम करने गया था। शुरुआती दौर में ही जब एंकर मेरे बारे में बोल रहा था बारिश पड़नी शुरू हो गई। आयोजक काफी डर से गए। लोग उठकर जाने लगे। उनमें कलेक्टर और तमाम आईएएस भी सपरिवार आए हुए थे। तभी मैंने माइक हाथ में लेकर यही गीत सुनाना शुरू कर दिया। फिर मैंने देखा कि सारी जनता उसी बरसते पानी में भीगते हुए रुक गई और मेरे साथ साथ गाने भी लगी। तो बड़ी ताकत है उस गीत की। इस गीत को ओपिनियन पोस्ट के पाठकों के सामने जरूर रखिएगा।

आधुनिक संस्कृति में रंगे युवाओं को पुराना चलन ही क्यों भाता है?
मॉडर्नाइजेशन या टाइम के साथ कंटेंपरेरी होना ये कंटेंट की पैकिंग है। मन तो वही हिंदुस्तानी है हर आदमी का। ये सब पांच हजार साल की परंपरा के लोग हैं। वह खून में है। तो उसी हिसाब से गाएंगे, झूमेंगे, सुनेंगे। बाकी सब तो धंधेबाजी है। लगता है कि ऐसा है पर है कुछ नहीं। इसीलिए न उनके मन के अंदर पुराना गाना बसता है, पुरानी बात बसती है। उन्हें बारिश होते ही लगता है कि पकौड़ी खानी चाहिए। उन्हें बारिश होने पर ऐसा कभी नहीं लगता कि चलो, पिज्जाहट में पिज्जा खा लेता हूं। बड़े से बड़े मॉडर्न लड़के-लड़की को लगता है कि बारिश हुई तो पकौड़ी खालें। पिताजी ने खाया, दादा ने भी खाया, घर में बनता देखा- इसलिए वह उनके अंदर है।