मनोज कुमार

जिंदगी हमेशा थ्री ईडियट्स की कहानी नहीं होती। उसमें रैंचो के चलाए जैसे स्कूल नहीं होते। न ही हैप्पी एंडिंग हो सकने की गारंटी। असल जिंदगी में 99.99 परसेंट का कट आॅफ, एडमिशन का तनाव, पिछड़ जाने का भय होता है। और अगर बदकिस्मती से कोई फेल है तो उसके सिर पर बैठी जबरदस्त फ्रस्ट्रेशन होती है। लेह में एक स्कूल इन सारी बातों को चुप कराता हुआ सिर्फ उनका स्वागत करता है जो दसवीं के इम्तहान में फेल हो चुके हैं। स्टूडेंट्स एजूकेशन एंड कल्चर मूवमेंट आॅफ लद्दाख (स्कमॉल) एक ऐसा ही स्कूल है। स्कूल के फाउंडर सोनम वांग्चू बताते हैं, ‘कम नंबर पाने वाला या फिर फेल होने वाला बच्चा बेकार नहीं है। हमारा स्कूल इस विचार के साथ चलता है। हम बच्चे को वह सब करने की आजादी देते हैं जो वह करना चाहता है और उसके मन में आई निराशा को दूर करते हैं।’ यह सब कैसे होता है? वे कहते हैं, ‘यहां कोई फिक्स सिलेबस नहीं, कोई टीचर नहीं, कोई ऐसा नियम नहीं जो बच्चे को रूटीन स्कूल का बोध कराए। यहां बातचीत के जरिये ही पढ़ाया जाता है। जब बच्चा कंफर्टेबल हो जाए तो हम उसके उस सब्जेक्ट की तरफ जाते हैं जिसमें वह कमजोर है। एक से डेढ़ साल में न केवल उसका खोया आत्मविश्वास लौट आता है बल्कि उस विषय में मजबूत भी हो जाता है जिसमें वो फेल था।’

क्यों आया यह आइडिया
लद्दाख की भौगोलिक परिस्थतियां ऐसी हैं कि वहां आने जाने के रास्ते थोड़े मुश्किल हैं। बेहतर कनेक्टिविटी न होने से बच्चे ज्यादा मूव नहीं कर पाते। इस वजह से वे बाहरी दुनिया से एक तरह से कटे ही रहते हैंं। इससे दिक्कत यह हुई कि बच्चे अंग्रेजी और मैथ में बेहद कमजोर होते चले गए। दसवीं तक तो जैसे तैसे काम चलता रहता था। असली दिक्कत आती थी दसवीं के बाद। क्योंकि तब बच्चे को बोर्ड में बैठना पड़ता था। बोर्ड क्योंकि अंग्रेजी और मैथ को ज्यादा तवज्जो देता है। बस बच्चे यहां फेल हो जाते थे। सोनम ने बताया, ‘बहुत ज्यादा बच्चे फेल हो रहे थे। कोई उनकी ओर ध्यान ही नहीं दे रहा था कि यह क्यों हो रहा है। लद्दाख शिक्षा में पिछड़ रहा था। बच्चों में फ्रस्ट्रेशन आ रही थी, इधर अभिभावक परेशान हो रहे थे।’ सोनम हालांकि इंजीनियर हैं, लेकिन उनका ध्यान इस समस्या की ओर पहले गया। रिसर्च की। फेल बच्चों से बातचीत की। बहुत सी बातचीत और लंबे रिसर्च के बाद सामने आया कि कसूर बच्चों का नहीं है। हमारे एजूकेशन सिस्टम का है जिसकी वजह से बच्चे फेल हो रहे हैं। तब समस्या यह थी कि इस बात को समझे कौन? कैसे एजूकेशन के सिस्टम में बदलाव हो। कोई यह बात मानने को तैयार ही नहीं था।’

आखिर उन्होंने स्कूल स्थापित कर दिखाया कि वह सही हैं। 2002 में 30 बच्चों से स्कूल शुरू किया गया। अभिभावकों को मनाना मुश्किल काम था। अभिभावक तैयार ही नहीं होते थे कि ऐसा भी हो सकता है। उनका यही सवाल होता था कि क्या इस तरह से भी बच्चों को पढ़ाया जा सकता है। उन्हें मुश्किल से समझाया। एक सिलेबस तैयार किया गया। इसके बाद बच्चों को स्कूल में लाकर उन्हें इस सिलेबस के साथ पढ़ाया गया। एकदम से चौंकाने वाले परिणाम सामने आए। पहले ही साल फेल होने वाले ज्यादातर बच्चे पास हो गए। फिर क्या था। देखते ही देखते आसपास के लोगों में स्कूल के प्रति विश्वास पैदा होने लगा। उन्होंने अपने बच्चे स्कूल में डालने शुरू कर दिए। अब स्थिति यह है कि उन्हें चुनना पड़ता है कि किन बच्चों को दाखिला देना है। चुनने का तरीका भी अलग है। यहां यह देखा जाता है कि कौन सा बच्चा ज्यादा कमजोर है या कितनी बार फेल हो गया है। सबसे ज्यादा बार फेल होने वाले को दाखिले के लिए चुना जाता है। आज इस स्कूल में 220 बच्चे पढ़ रहे हैं। यहां सिर्फ उन्हें सवा साल से लेकर दो साल तक रखा जाता है। वांग्चू ने बताया, ‘इन बच्चों का आत्मविश्वास जैसे ही लौटता है वे उस विषय में बेहतर हो जाते हैं और तब उन्हें वापस भेज दिया जाता है ताकि वे अपनी आगे की पढ़ाई कर सकें।’

वह सिलेबस क्या है जिससे यह क्रांतिकारी परिवर्तन आया? इस सवाल पर सोनम ने बताया, ‘कुछ नहीं। दरअसल हो यह रहा था कि बोर्ड के सिलेबस का तरीका एक ही है, हमारे यहां दिक्कत यह आ रही थी कि बच्चे बाहरी दुनिया से कटे हुए थे। उन्हें बहुत सी चीजों का पता ही नहीं होता था। बच्चे उस चीज को समझते हैं जिसे अपने आसपास देखते हैं। अब क्योंकि जो उन्हें पढ़ाया जा रहा था वह उनके आसपास तो था नहीं। इसलिए वे रट्टा मारते थे। जो कामयाब नहीं था। हमने किया कि उस सिलेबस में लोकल उदाहरण रखे। उन्हें स्थानीयता के तरीके से समझाया, अंग्रेजी और मैथ में यह प्रयोग बहुत सफल रहा। इसके लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी। क्योंकि कोई भी तय ढर्रे से खुद को बदलना ही नहीं चाहता। सरकारी सिस्टम का हाल हर जगह वही है। शुरुआत में मुझे भी बहुत लोगों ने भला बुरा बोला। पर धीरे धीरे सब ठीक होता चला गया।’

‘स्कूल में जिसका जो मन आए वह करे। कोई पेंटिंग करना चाहे या खेती करना। किसी को मशीनों का शौक है या किसी की दिलचस्पी आर्किटेक्चर में। या फिर नाचने गाने में। यहां सबको आजादी है अपनी मर्जी से काम करने की। इस बहाने स्कूल में खेत भी हैं और कला भी।’

एक घंटा एडवांस…
हमारी घड़ी में पौने दो बजे थे। स्कूल की घड़ी में पौने तीन बजे हुए थे। अरे आपके स्कूल की घड़ी तो गलत समय दे रही है। स्कूल में आए एक गेस्ट ने स्टाफ को टोका। जवाब आया- ‘नहीं, यह सही टाइम है। हमारे स्कूल की घड़ी एक घंटा एडवांस है। यानी हम सामान्य समय से एक घंटा पहले चल रहे हैं।’ ऐसा क्यों? सोनम वांग्चू ने बताया, ‘स्कूल समय के साथ नहीं समय से एक घंटा आगे चल रहा है। लेकिन किसी प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए नहीं। आत्मनिर्भर होने के लिए। एक घंटा एडवांस चल कर स्कूल में शाम के वक्त सूरज की ऊर्जा का पूरा इस्तेमाल कर पाते हैं।’

डोनेशन से चलता है स्कूल
वांग्चू कहते हैं, ‘स्कूल का खर्च डोनेशन से चलता है। साथ ही देश- विदेश के प्रोफेशनल यहां नियमित तौर पर पढ़ाने आते हैं। बच्चों से सिर्फ खाने का खर्च 13 सौ रुपये प्रतिमाह लिया जाता है। रहने-पढ़ने का कोई चार्ज नहीं। यदि कोई बच्चा यह पैसा भी न चुका पाए तो भी उसे यहां रहने दिया जाता है।’