राजीव थपलियाल
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और उत्तराखंड की हरीश रावत सरकार की कार्यशैली का एक बड़ा फर्क योग्य अधिकारियों को फ्रंट लाइन में लाने को लेकर है। मोदी सरकार ने देशहित को सर्वोपरि रखते हुए श्रेष्ठता के आधार पर सेना प्रमुख और खुफिया प्रमुखों का चयन कर सुर्खियां बटोरी हैं तो हरीश सरकार ने सियासी हित के आगे घुटने टेकते हुए श्रेष्ठता को दरकिनार कर बेहतर काम कर रहे अधिकारियों को पदों से हटा कर चर्चा पाई है। देश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में घोटाले का पर्दाफाश करने वाले भारतीय वन सेवा (आईएफएस) के बहुचर्चित अधिकारी संजीव चतुर्वेदी जैसा अधिकारी उत्तराखंड को मिला लेकिन हरीश सरकार उन्हें अच्छी पोस्टिंग तक नहीं दे सकी। सामाजिक चिंतक और वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल के शब्दों में कहें तो यह उत्तराखंड की बिडंबना ही है कि हमेशा राजहित के आगे जनहित कमजोर पड़ा है।

रास न आए पांडियन
उत्तराखंड का नाम भले ही निजी शिक्षा के मामले में विख्यात हो लेकिन यहां सरकारी शिक्षा की हालत देश के अन्य भागों की तरह ही खराब है। शिक्षकों की बड़ी तादाद का फायदा अपने राजनीतिक हित के लिए साधने वाले नेताओं का फायदा अब यही शिक्षक अपने लिए उठाने लगे हैं। धीरे-धीरे शिक्षकों का यह वोट बैंक अपनी मनमानी के आगे सरकारों को झुकाने की ताकत रखने लगा है। स्कूलों और पढ़ाई की बदहाली की फिक्र यहां गौण है और जिस भी अधिकारी ने इसकी चिंता गंभीरता से की उसे जिम्मेदारी से हटना पड़ा। ऐसे ही अधिकारियों में शुमार हैं आईएएस अधिकारी डी. सैंथिल पांडियन। शिक्षा सचिव के पद पर रहते हुए पांडियन सूबे की शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने में पुरजोर तरीके से जुटे थे। स्कूलों में पढ़ाने की बजाय ट्रांसफर-पोस्टिंग के खेल में लगे रहने वाले शिक्षक नेताओं पर उन्होंने नकेल कसी। स्कूलों में हाजिरी और गुणवत्ता बढ़ाने के लिए उन्होंने अधीनस्थों को कसा। यहां तक कि कई मामलों में उन्होंने मंत्रियों की निजी सिफारिशों तक को दरकिनार कर दिया। पांडियन दो टूक कहते रहे हैं, ‘वे खुद एक शिक्षक के बेटे हैं इसलिए उनकी दिक्कतें समझते हैं लेकिन बच्चों के भविष्य के आगे किसी भी नाजायज मांग के लिए कोई समझौता नहीं चलेगा।’ पांडियन की इस कार्यशैली से शिक्षक वर्ग नाराज होता रहा। गाहे-बगाहे उनके साथी अधिकारी भी उनके इस रवैये से खुश नहीं रहे लेकिन आमजनों के बीच उनकी छवि निखरती गई। लोग पांडियन के काम को सराहने लगे और उनकी गिनती चुनिंदा ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों में होने लगी। पांडियन लंबे समय तक शिक्षा मंत्री के लिए भी ढाल बनकर काम करते रहे लेकिन चुनाव नजदीक आते ही उन्हें अपने पद से रुखसत होना पड़ा। वोट बैंक के आगे सरकार नतमस्तक हो गई और शिक्षा के सुधार में जुटे पांडियन को सचिव पद से हटा दिया गया।

हटा दिए जनता के एसएसपी दाते
कभी उत्तरकाशी जिले में अपनी तैनाती के दौरान पायलट बाबा के गुर्गों की गुंडागर्दी पर लगाम लगाने वाले आईपीएस अधिकारी डॉ. सदानंद दाते की छवि ज्वाइनिंग के पहले दिन से ही सौम्य, कर्मठ और ईमानदार अधिकारी के रूप में बन गई। भाजपा के शासनकाल में बतौर एसपी पहली नियुक्ति उन्हें उत्तरकाशी जनपद में मिली। वहां पायलट बाबा के आश्रम में रहने वाले लोगों से स्थानीय ग्रामीण बेहद परेशान थे। बाबा के चेलों द्वारा बदसलूकी किया जाना आम था। लोगों का आरोप आश्रम में गलत कामों को लेकर था जहां विदेशी युवतियां ठहरा करती थीं। हथियारों के दम पर उनके चेलों ने आतंक मचा रखा था। भाजपा की सरकार होने के कारण कोई भी अधिकारी पायलट बाबा के खिलाफ ग्रामीणों की मदद नहीं कर पाया। डॉ. सदानंद दाते ने जब जिले की कमान संभाली तो बगैर किसी की परवाह के आश्रम के खिलाफ कार्रवाई की और ग्रामीणों को आंतक से मुक्त कराया। उस इलाके में अब तक शांति है।

प्रदेश में जब कांग्रेस की सरकार आई तो दाते को एसटीएफ की कमान दी गई। इस जिम्मेदारी को भी उन्होंने बखूबी अंजाम दिया और कई जटिल केस सुलझाने के कारण जनता में उनकी प्रतिष्ठा और बढ़ी। दाते के इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर हरीश सरकार ने उन्हें देहरादून जिले में एसएसपी तैनात किया। दाते यहां भी अपने काम पर खरे उतरे। पुलिसिया छवि के विपरीत उनकी ईमानदारी और सरलता ने जनता के बीच उनकी अलग छवि बना दी। सही व्यक्ति के पक्ष में दाते हमेशा खड़े दिखे। पुलिस-प्रशासन की जानकारी रखने वालों की मानें तो आखिर में यही कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी उन पर भारी पड़ गई। डॉ. दाते ने कुछ ऐसे असामाजिक तत्वों के खिलाफ कार्रवाई की जिनके आकाओं के तार सल्तनत से जुड़े थे। उनका काम कुछ नेताओं के साथ ही कुछ अधिकारियों के स्वार्थों में आड़े आया तो सरकार पर दबाव बनाया गया और अंतत: एक ईमानदार अधिकारी को पद से चलता कर दिया गया।

अशोक कुमार पर भारी पड़े छापे
उत्तराखंड विजिलेंस विभाग के मुखिया आईपीएस अधिकारी अशोक कुमार ने रिश्वतखोरों के खिलाफ ताबड़तोड़ कार्रवाई कर कीर्तिमान बनाया। राज्य गठन के 15 सालों में जहां मात्र 150 रिश्वतखोर अधिकारियों-कर्मचारियों की गिरफ्तारी हो पाई वहीं अशोक कुमार ने अपने सवा साल के कार्यकाल में ही 50 सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों को भ्रष्टाचार के आरोप में सलाखों के अंदर भेजा। इस अवधि में उत्तराखंड में पहली बार किसी पीसीएस अधिकारी को एसडीएम रहते हुए रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया तो नोटबंदी के बाद एक सरकारी वकील को भी एक मुकदमे के मामले में रिश्वत लेने के आरोप में जेल जाना पड़ा। शुरुआत में तो सरकार ने अशोक कुमार की खूब पीठ थपथपाई लेकिन भ्रष्टाचार उन्मूलन की जद में जब अपनों पर बन आई तो उन्हें विजिलेंस विभाग से हटा दिया गया।

गुंज्याल पर भी गिरी गाज
उत्तराखंड के लोकप्रिय पुलिस अधिकारियों में शुमार आईपीएस संजय गुंज्याल को उन लोगों की दुआएं लगती होंगी जिनकी गाढ़ी कमाई प्रॉपर्टी के नाम पर ठगने वालों से उन्होंने रकम लौटवाई। गढ़वाल डिवीजन के पुलिस महानिरीक्षक के तौर पर गुंज्याल का खौफ खनन माफिया, प्रॉपर्टी माफिया के साथ ही अन्य अपराधियों में था। बगैर सिफारिश के भी गुंज्याल के कार्यालय में जो पहुंचा उसे कानूनी तौर पर हरसंभव मदद मिली। गुंज्याल की यही कार्यशैली चुनावी सीजन में जब कुछ नेताओं और उनसे जुड़े माफिया के लिए दिक्कत पैदा करने लगी तो सरकार ने उन जैसे जनलोकप्रिय अधिकारी को भी पद से हटाने से गुरेज नहीं किया।

संजीव चतुर्वेदी मांगते रह गए पोस्टिंग
एम्स घोटाले को उजागर करने वाले बहुचर्चित आईएफएस अधिकारी संजीव चतुर्वेदी कांग्रेस सरकार से अपने लिए एक अच्छी पोस्टिंग मांगते रह गए लेकिन सरकार ने उन्हें किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठाना उचित नहीं समझा। बगैर काम के लंबे समय तक इधर-उधर घुमाने के बाद उन्हें वन संरक्षक अनुसंधान के पद पर भेज दिया गया है। ऐसे अधिकारी से सरकार का परहेज लोगों की समझ से बाहर है।

यहां उलट गई सरकार
कामकाज को लेकर जनता के बीच साफ सुथरी छवि वाले अधिकारियों को हटाना जहां लोगों की समझ से बाहर हो वहीं अधिकारियों के प्रति सरकार का खास प्रेम भी अखरता आया है। इन्हीं में से एक थे उत्तराखंड राज्य विद्युत निगम (यूपीसीएल) के प्रबंध निदेशक एसएस यादव। लगातार कई मामलों में भ्रष्टाचार के आरोप यादव पर लगते रहे। यहां तक कि भाजपा ने पांच लाख रुपये रिश्वत लेने का आरोप लगाते हुए यादव का एक स्टिंग वीडियो जारी किया। इसके बावजूद सरकार यादव को बेदाग बताती रही। नोटबंदी के बाद अचानक कुछ ऐसा हुआ कि यादव बगैर बताए राज्य से बाहर चले गए और लौटे तो इस्तीफा दे दिया।