अभिषेक रंजन सिंह ।

राजनीति और धर्म का कॉकटेल लोकतंत्र में कई बार किसी दल के लिए टॉनिक का काम कर जाता है तो कई बार किसी के लिए जहर। पंजाब और हरियाणा में इस कॉकटेल का इस्तेमाल काफी पुराना है। यहां हर चुनाव में सियासी दलों की कोशिश धार्मिक रहनुमाओं को अपने पक्ष में मोड़ने की होती है ताकि उनके अनुयायियों का थोक और एकमुश्त वोट मिल सके। दोनों राज्यों में धार्मिक संतों और उनके डेरों का काफी असर है। यही वजह है कि चुनाव करीब आते ही सियासी पार्टियां डेरों की दहलीज पर दस्तक देने लगती हैं। पंजाब और हरियाणा में तकरीबन नौ हजार छोटे-बड़े डेरे हैं। पंजाब विधानसभा चुनाव की घड़ी जैसे-जैसे नजदीक आ रही है धार्मिक डेरों की दहलीज पर सियासी पार्टियां माथा टेकने की होड़ में शामिल हो गई हैं। यह बात और है कि डेरे अभी अपने पत्ते नहीं खोल रहे हैं।

हरियाणा विधानसभा चुनाव में डेरा सच्चा सौदा ने भाजपा का खुलकर समर्थन किया था। भाजपा को मिली कामयाबी के पीछे डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की वह अपील थी जिसमें उन्होंने अपने अनुयायियों से भाजपा के पक्ष में वोट करने को कहा था। हालांकि इससे पहले तक डेरा सच्चा सौदा को कांग्रेस समर्थक माना जाता था। हरियाणा के कई विधानसभा चुनावों में डेरा प्रमुख का आशीर्वाद कांग्रेस को मिला है लेकिन वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में डेरा सच्चा सौदा ने न सिर्फ भाजपा को समर्थन देने का ऐलान किया बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों की डेरा प्रमुख ने जमकर तारीफ की। खासकर स्वच्छ भारत मिशन और बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान की। जानकारों के मुताबिक डेरा सच्चा सौदा के समर्थकों की संख्या करीब पांच करोड़ है। इनमें से 65 लाख से अधिक मतदाता पंजाब और हरियाणा में हैं। पंजाब की 117 विधानसभा सीटों में से 65 सीटें मालवा इलाके से आती हैं। नतीजतन यहां किसी पार्टी की हार और जीत में डेरा समर्थकों की बड़ी भूमिका है। डेरा प्रमुख बाबा राम रहीम ने पंजाब चुनाव को लेकर अभी तक कोई घोषणा नहीं की है। मगर माना जा रहा है कि भाजपा को इस बार भी डेरा सच्चा सौदा का समर्थन मिलेगा। पंजाबी ट्रिब्यून के वरिष्ठ पत्रकार चंद्रजीत भुल्लर कहते हैं, ‘डेरा सच्चा सौदा के लाखों अनुयायी हैं। अगर चुनाव से पहले डेरा प्रमुख किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान की अपील करेंगे तो उसका काफी असर पड़ेगा।’

पंजाब के दोआबा इलाके में जालंधर, नवांशहर, कपूरथला और होशियारपुर जिले आते हैं। इन जिलों में छोटे बड़े हजारों डेरे हैं जो करीब सौ-डेढ़ सौ साल पुराने हैं। जालंधर जिला मुख्यालय से पंद्रह किलोमीटर दूर बल्लां गांव में डेरा सचखंड है। यह डेरा बल्लां के नाम से भी मशहूर है। साल 1895 में स्थापित डेरा सचखंड दलितों खासकर रविदासियों का सबसे बड़ा डेरा है। ओपिनियन पोस्ट ने आगामी पंजाब विधानसभा चुनाव में डेरों की भूमिका को लेकर डेरा सचखंड प्रमुख संत निरंजन दास से बात की तो उन्होंने राजनीति से अपने रिश्ते को नकार ही दिया। निरंजन दास का कहना है, ‘उनका डेरा धार्मिक संगठन है और राजनीति से इसका कोई लेना-देना नहीं है।’ डेरा सचखंड के मुख्य सेवादार हरदेव बताते हैं, ‘चुनाव और राजनीति से इस डेरा का कोई संबंध नहीं है। श्रद्धालुओं के पैसों से डेरा का संचालन होता है। हम लोग सरकार से एक पैसे की मदद नहीं लेते हैं।’

पंजाब में फरवरी में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती, पंजाब के उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल और कांग्रेस नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह यहां आकर अपनी हाजिरी लगा चुके हैं। डेरा सचखंड से जुड़े संत या सेवादार बेशक चुनाव में किसी पार्टी को समर्थन देने की बात से इनकार करते हों लेकिन बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम को यहां के संतों का आशीर्वाद हमेशा मिलता रहा है। पंजाब में बहुजन समाज पार्टी भले ही एक मजबूत पार्टी न बन सकी हो लेकिन यहां के दलितों का कुछ वोट बसपा के खाते में जाता रहा है। गुजरात के ऊना में दलित युवकों की प्रताड़ना का जिक्र मायावती अपनी अधिकांश रैलियों में करती हैं। वह ऊना भी गर्इं और अपने पंजाब दौरे में भी उन्होंने हालिया दलित उत्पीड़न की घटनाओं का जिक्र किया। बसपा को सूबे के दोआबा इलाके से काफी उम्मीदें हैं क्योंकि यहां दलितों की अच्छी आबादी है। यही वजह है कि मायावती समय-समय पर डेरा सचखंड का दौरा करती रहती हैं। उन्हें पता है कि इस डेरे के पास काफी बड़ा जनाधार है।

डेरों की दलील भले ही यह हो कि राजनीति से उनका कोई सरोकार नहीं है लेकिन डेरों के कार्यक्रमों में अमूमन राजनेताओं को देखा जाता है। सियासी पार्टियां भी इस मुद्दे पर खुलकर नहीं बोलतीं। फिर भी उन्हें यह कहने से गुरेज नहीं है कि डेरे इसी समाज के अंग हैं और उनसे परहेज करने का कोई औचित्य नहीं है। राजनीति में नए दौर का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी भी इस सोच से अछूती नहीं है। वह पंजाब में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रही है लेकिन सूबे में डेरों की अहमियत से पार्टी पूरी तरह वाकिफ है। यही वजह है कि पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल जब भी पंजाब आते हैं तो डेरों की दर पर जाना नहीं भूलते।

डेरा ब्यास के नाम से मशहूर राधा-स्वामी डेरा अमृतसर जिले में है। करीब सात किलोमीटर के दायरे में यह डेरा फैला हुआ है। यह पंजाब के सबसे बड़े डेरों में शुमार है। बाबा गुरिंदर सिंह ढिल्लो इसके प्रमुख हैं। डेरा सचखंड की तरह डेरा राधा-स्वामी भी राजनीति से अपने रिश्तों के बारे में इनकार करता है। लेकिन चुनाव से पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, आप संयोजक अरविंद केजरीवाल, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और पूर्व हॉकी खिलाड़ी व विधायक परगट सिंह समेत कई बड़े नेताओं का हाल में डेरा ब्यास आना और डेरा प्रमुख से लंबी बातचीत करना कई सवालों को जन्म देता है।

गौरतलब है कि पंजाब के उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के साले विक्रम सिंह मजीठिया की शादी राधा-स्वामी डेरा प्रमुख गुरिंदर सिंह ढिल्लो की भतीजी जैनब ग्रेवाल से हुई है। बादल और मजीठिया परिवारों के ढिल्लो परिवार से अच्छे संबंध किसी से छुपे नहीं हैं। लिहाजा सत्तारूढ़ शिरोमणि अकाली दल को उम्मीद है कि इस रिश्तेदारी का चुनावी फायदा उसे चुनाव में मिलेगा। मंगाराम ब्यास में एक रेस्तरां चलाते हैं। वह डेरा राधा-स्वामी के अनुयायी भी हैं। वह बताते हैं, ‘राजनीति से डेरों का कोई वास्ता नहीं है लेकिन डेरों की अपील चुनावी नतीजे बदलने के लिए काफी है।’

शिरोमणि अकाली दल वैसे तो परंपरावादी कट्टर सिख संस्कार की हिमायती रही है और डेरावाद के खिलाफ रही है। उसकी नजरों में डेरा परंपरा की वजह से सिख धर्म को नुकसान पहुंच रहा है। मगर जब चुनाव आता है तो वोट की खातिर पार्टी ने कभी भी डेरों का समर्थन लेने से गुरेज नहीं किया। गौरतलब है कि डेरा सचखंड और शिरोमणि अकाली दल के बीच एक बड़े मतभेद की वजह यह है कि साल 2009 में डेरा सचखंड ने अलग रविदासिया धर्म और अमृतवाणी पवित्र ग्रंथ का ऐलान कर दिया। इस घोषणा के बाद पंजाब में तनाव की स्थिति पैदा हो गई थी। साल 2009 में ही डेरा सचखंड के उप प्रमुख संत रामानंद की हत्या वियना (आॅस्ट्रिया) में अज्ञात हमलावरों ने कर दी। संत रामानंद की हत्या आज भी रहस्य है। डेरा सचखंड के अनुयायी कट्टर सिख संगठनों को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं।

जालंधर में कपड़े की दुकान चलाने वाले परमजीत सिंह चीमा बताते हैं, ‘पंजाब नशे और भ्रष्टाचार के दुष्चक्र में फंस चुका है। राजनीतिक दलों को नई पीढ़ी की जिंदगी से कोई मतलब नहीं है। सिर्फ सत्ता बदलने से इस सूबे का भला नहीं होगा। पंजाब की जनता अपने नुमाइंदे चुनने को लेकर भ्रमित है। यहां हजारों डेरे हैं और करोड़ों की संख्या में उनके अनुयायी। साधु-संतों की कृपा से जब लोगों के जीवन में खुशहाली आ सकती है तो डेरा प्रमुखों को चाहिए कि वे चुनाव में भी अपने अनुयायियों से अच्छे उम्मीदवारों को जिताने की अपील करें। इसी बहाने राजनीति में बुरे लोगों की बजाय अच्छे लोग आएंगे। ऐसे काफी लोग हैं जो राजनीतिक शुचिता के लिए चाहते हैं कि डेरों की ओर से चुनाव में ईमानदार छवि के उम्मीदवारों को चुनने के लिए अपील जारी हो।’

दोआबा इलाके में लगभग डेढ़ दर्जन डेरे ऐसे हैं जिनका संबंध दलितों से है। पंजाब में इन डेरों की शुरुआत करीब सौ साल पहले बाबू मंगत राम के आदि धर्म आंदोलन से हुई थी। यहां रविदासियों, कबीर पंथियों, वाल्मीकियों, मजमी सिखों और कम्बोज जाति के अलग-अलग डेरे हैं। दलितों को छुआछूत से मुक्त कराने और बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए इन डेरों की स्थापना हुई थी। पंजाब में दलित मतदाता अलग-अलग खेमों में बंटे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले दलित मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा डेरा सचखंड से जुड़ा हुआ है। खास बात यह है कि दोआबा के दलित सूबे के दूसरे हिस्सों के दलितों से अलग हैं। यहां के दलितों की आर्थिक स्थिति काफी मजबूत है क्योंकि इनमें से ज्यादातर परिवारों का कोई न कोई सदस्य अप्रवासी भारतीय (एनआरआई) है। दलित मुद्दों की समझ रखने वाले महेश चंद्र के अनुसार, ‘पंजाब में दलित समुदाय सामाजिक और राजनीतिक रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश के मुकाबले कहीं ज्यादा सशक्त है। इसकी वजह डेरों के माध्यम से चलाया गया धार्मिक आंदोलन था।’

नोटबंदी के समर्थन में डेरा
नोटबंदी के केंद्र के फैसले पर जहां राजनीतिक पार्टियों में संग्राम छिड़ा हुआ है, वहीं इसे लेकर लोगों की राय बंटी हुई है। कांग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियां चुनाव में इसे मुद्दा बनाना चाहती हैं लेकिन उनकी परेशानी यह है कि पंजाब के ज्यादातर डेरे इस फैसले के समर्थन में हैं। डेरा सचखंड ट्रस्ट के प्रबंधक राम प्रकाश के मुताबिक, भ्रष्टाचार और कालेधन को रोकने में नोटबंदी एक प्रभावी कदम है। नोटबंदी को डेरा का समर्थन मिलने से विपक्षी पार्टियां पंजाब में न तो खुलकर विरोध कर पा रही हैं और न ही प्रदर्शन। हालांकि कांग्रेस रबी फसलों की बुआई के समय किसानों को नोटबंदी से होने वाले नुकसान के बारे में जरूर बता रही थी। करतारपुरा गांव के किसान दलजीत का कहना है कि नोटबंदी से थोड़ी-बहुत परेशानी तो हुई लेकिन अब कोई दिक्कत नहीं है।

आप फैक्टर
आम आदमी पार्टी पंजाब विधानसभा चुनाव पहली बार लड़ रही है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को सूबे में अच्छी सफलता मिली। सूबे की चार संसदीय सीटें जीतने के बाद पार्टी के हौसले बुलंद हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव को ढाई वर्ष हो चुके हैं और इस दौरान हालात काफी बदल गए हैं। पार्टी के कद्दावर नेता रहे सुच्चा सिंह छोटेपुर की बगावत ने आम आदमी पार्टी को काफी हद तक पंजाब में कमजोर कर दिया है। इसके अलावा पंजाब के प्रभारी संजय सिंह पर टिकट बंटवारे को लेकर जिस तरह के संगीन आरोप लगे हैं उसका जवाब भी पार्टी को देते नहीं बन रहा। अकसर मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाले अरविंद केजरीवाल भी उनसे जुड़े सवालों से परहेज करते हैं। आम आदमी पार्टी पंजाब में अकाली दल-भाजपा सरकार को सत्ता से बेदखल करना चाहती है। मौजूदा सरकार के प्रति सत्ता विरोधी लहर के सहारे वह कामयाब होना चाहती है। यही वजह है कि पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल अपनी हर सभा में अकाली-भाजपा सरकार को भ्रष्टाचार और नशे के मुद्दे पर घेरते हैं। पंजाब में सरकार बनने पर उन्होंने बिक्रम सिंह मजीठिया को गिरफ्तार करने की खुली चुनौती दी है। हालांकि इसकी शिकायत मजीठिया ने अदालत से की है जो केजरीवाल के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। अकाली दल और भाजपा नेताओं का कहना है कि बेवजह के आरोप लगाना अरविंद केजरीवाल का शगल बन गया है। इसलिए पंजाब की जनता उन्हें अब गंभीरता से नहीं लेती। वैसे अब तक पंजाब में चुनावी मुकाबला दो पार्टियों के बीच ही सीमित था लेकिन आम आदमी पार्टी के उतरने से लड़ाई त्रिकोणीय हो गई है।

आप की मौजूदगी से अकाली-भाजपा और कांग्रेस अपने वोट बैंक को बचाने की कोशिशों में जुटे हैं। वैसे तो सूबे के दलित मतदाता इन सभी पार्टियों के साथ जुड़े हैं लेकिन सभी की कोशिश यही है कि ज्यादा से ज्यादा दलितों को अपने साथ जोड़ा जाए। इसी मकसद से पिछले दिनों भाजपा ने प्रदेश में कई दलित सम्मेलन आयोजित किए। वहीं कांग्रेस ने दलितों को लुभाने के लिए अलग से घोषणा पत्र बनाने का ऐलान किया है। इस मामले में अरविंद केजरीवाल ने इनसे दो कदम आगे बढ़कर ऐलान किया कि पंजाब में सरकार बनने पर उप मुख्यमंत्री दलित समुदाय से होगा। हालांकि उनके इस बयान की आलोचना सोशल मीडिया में काफी हुई। सोशल मीडिया में कई दलित चिंतकों ने केजरीवाल पर तंज कसते हुए कहा कि जिस राज्य में दलितों की आबादी 32 फीसद है वहां दलित मुख्यमंत्री क्यों नहीं होना चाहिए। उप मुख्यमंत्री का पद दलितों के लिए झुनझुना है। इसे वंचित समुदाय के लोग भी समझते हैं।

त्रिकोणीय मुकाबले से किसे फायदा
सूबे में अकाली-भाजपा सरकार दस वर्षों से सत्ता पर काबिज है। अमूमन सत्ता विरोधी लहर का नुकसान सत्तासीन पार्टी को झेलना पड़ता है। लेकिन अकाली-भाजपा इससे परेशान नजर नहीं आ रही। विरोधी पार्टियां अकाली-भाजपा के इस अति आत्मविश्वास से हैरान हैं। दरअसल, मौजूदा सरकार की इस बेफिक्री की वजह आम आदमी पार्टी है। अकाली-भाजपा को यकीन है कि उसके खिलाफ पहले जो वोट सीधे कांग्रेस के पाले में जाता वह अब आम आदमी पार्टी की वजह से बंट जाएगा। इससे चुनाव में उसे कम नुकसान होगा। आम आदमी पार्टी को लेकर कांग्रेस सबसे ज्यादा चिंतित है। पार्टी नेताओं को लगता है कि कहीं दिल्ली की तरह कांग्रेस का वोट बैंक आम आदमी पार्टी के पक्ष में न चला जाए। दलित वोट सूबे में कांग्रेस का मजबूत आधार रहा है। पिछले कई चुनावों में बहुजन समाज पार्टी कांग्रेस के इस वोट बैंक में सेंध लगाती रही है लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी की वजह से दलितों में भी असमंजस की स्थिति है। हालांकि आम आदमी पार्टी के पास फिलहाल कोई प्रभावी दलित चेहरा नहीं है, इसलिए कांग्रेस का एक खेमा अपने दलित वोट बैंक को एकजुट मान रहा है। जालंधर के सिविल लाइंस में फल का कारोबार करने वाले रामवीर बताते हैं कि किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिलने की सूरत में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी गठजोड़ कर सरकार बना सकते हैं। मगर उनका यह भी कहना है कि अगर आम आदमी पार्टी ऐसा करेगी तो जनता के बीच उसकी साख खराब हो सकती है जो उसके भविष्य के लिए सही नहीं है। दिल्ली में पार्टी ऐसी गलती कर चुकी है। जालंधर के ही सामाजिक कार्यकर्ता मनोहर लाल का कहना है, ‘आम आदमी पार्टी की वजह से अकाली-भाजपा विरोधी मतों का बिखराव होना तय है। ऐसे में सत्ताधारी पार्टी को इसका लाभ मिल जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।’

अकाली-भाजपा की रणनीति
शिरोमणि अकाली दल अपने पंथिक एजेंडे के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में प्रभावशाली है तो भाजपा हिंदू बहुल शहरी क्षेत्रों में मजबूत है। गठबंधन के तहत भाजपा सूबे में अमूमन दो दर्जन सीटों पर चुनाव लड़ती रही है। आगामी विधानसभा चुनाव में भी कमोबेश सीटों के बंटवारे का फार्मूला यही रहेगा। अकाली दल ने किसानों को अपने पक्ष में गोलबंद करने के लिए मार्च 2016 में सतलुज यमुना नहर भूमि संपत्ति अधिकार स्थानांतरण विधेयक 2016 पास कर एक बड़ा दांव चला। इस विधेयक में किसानों की उस भूमि को वापस करने का प्रावधान किया गया जिसे सतलुज यमुना लिंक नहर बनाने की खातिर अधिगृहीत किया गया था। अकाली दल ने अपने परंपरागत पंथिक सिख मतदाताओं को खुश करने के लिए भी एक विधेयक पारित किया। इसके तहत सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब का अपमान करने वाले को उम्रकैद की सजा का प्रावधान किया गया है। वहीं गठबंधन की सहयोगी भाजपा भी हिंदू मतदाताओं को लुभाने के लिए हिंदुत्व से जुड़े कई मुद्दों पर सक्रिय है। भाजपा गौ रक्षा के लिए देश में बनी विदेशी शराब और बीयर की प्रत्येक बोतल पर क्रमश: दस और पांच रुपये टैक्स लगाने पर विचार कर रही है। इस मद से आए धन का इस्तेमाल बेसहारा गौवंश और नई गोशालाएं बनाने के लिए किया जाएगा। 