गुरु पूर्णिमा में ऐसा कौन सा रहस्य है कि शिष्य उत्सुकता से इसकी प्रतीक्षा करते हैं। ऐसे ही तमाम सवालों को लेकर शिक्षक और अब आध्यात्मिक गुरु पवन सिन्हा से लम्बी बातचीत की अजय विद्युत ने। प्रस्तुत हैं संपादित अंश।

साल में बारह-तेरह पूर्णिमाएं पड़ती हैं और हर पूर्णिमा का अपना एक वैशिष्ट्य है, लेकिन गुरु पूर्णिमा में क्या खास बात है और उसे दूसरों से अलग करती है?

-यह जो समय होता है, वह चंद्रमा की पूर्ण कलाओं के साथ होता है। पूर्णिमा का चंद्रमा पूर्ण कलाओं को लेकर आता है और शिष्य की गुरु से यह अपेक्षा होती है कि वह सारे गुणों के सात अवतरित होकर उनको ज्ञान दे। इसके ठीक अगले दिन से श्रावण का महीना प्रारंभ होता है, जिसमें सत्ताइस दिन श्रवण करना है। यह आजकल सावन कहलाने लग गया है। इसका अपभ्रंश सावन हो गया, मूलत: यह है श्रवण का महीना। किस चीज का श्रवण। चूंकि अब खेती नहीं हो रही है, पानी भर गया है। बारिश लगातार हो रही है, अन्य कोई कार्य कर नहीं सकते। मंगल कार्य इस समय में करते नहीं। घास, फूस, पत्ती और बेल व सब्जियां आदि हैं, वे दूषित हो गई हैं। इसलिए हम उनको ग्रहण भी नहीं करेंगे तो अधिकतम उपवास रखेंगे। बहुत सारी वनस्पति विष बन गई है तो उन्हें शिवजी को अर्पित कर देते हैं कि ‘लो भई, विष तुम्हारे हिस्से।’ दूध का सेवन भी इस समय नहीं किया जाता है क्योंकि गाय भी उसी खराब भोजन को खाकर विषैला दूध देती है। तो इस समय में मनुष्य जाति से यह अपेक्षा होती है कि वह गुरु दरबार में उपस्थित हों, उपवास रखें इन सत्ताइस दिन। और प्रात: व सन्ध्या श्रवण करें। चाहे शिव की कथा का श्रवण करें, उपनिषदों का श्रवण करें। पर श्रवण करें। और दिन भर में ऐसे कार्य करें, जैसे ध्यान, साधना और सुबह-शाम जो सुना है उसका अ•यास करें। तो गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु के पास हम पहुंच गए। फिर हमने श्रावण मास को मनाया, उसमें श्रवण किया और वह ज्ञान लेकर फिर हम ग्यारह महीने तक अपना कार्य करते हैं। यह मूलत: प्रथा है। हालांकि समय की बाध्यता के अनुसार, काल बदलने की वजह से बहुत सारी प्रथाएं अपने मूल स्वरूप में नहीं रह गई हैं। अब गुरु पूर्णिमा को तो लोग गुरु के समक्ष आ जाते हैं, लेकिन सत्ताइस दिन तक गुरु का सान्निध्य नहीं ले पाते। तो गुरु पूर्णिमा मूलत: श्रवण से और साधना से जुड़ी हुई है।

तो आधुनिक युग में अगले सत्ताइस दिन गुरु का ज्ञान जो पुस्तकों में है, उनका अध्ययन करें तो भी हम अपना काफी भला कर सकते हैं।

-अब कृषि प्रधान देश नहीं रहा। समाज में बहुत परिवर्तन आए हैं। मशीन पर बरसात का असर नहीं है और मनुष्य को मशीन के साथ कार्य करना है। साइबरनेटिक सोसाइटी है तो अब वह जितना कार्य करेगा, उतना ही लाभ है। मशीन रुकेगी नहीं तो मशीन चलानेवाला कैसे रुके। लेकिन जो आपने बताया है वह सबसे बढ़िया तरीका है कि गुरु से संदेश लेकर आएं और उसका पाठ करें, साधना करें… और बाकी दिनचर्या जैसी होती है, वैसी करें।

मशीनों के साथ मनुष्य की होड़ का युग है यह। व्यक्ति के जीवन में जटिलता और व्यस्तता दोनों चरम पर हैं। ऐसे में गुरु का कार्य कुछ बदला है?

-गुरु का जो दायित्व है, वह तो वही है। जैसे गुरु का दायित्व है तम से दिव्यता की ओर लेकर जाना। तो मशीन जब भी आएगी उससे तम बढ़ेगा क्योंकि मशीन भावनाओं को आहत करती है, उन्हें सुप्त करती है। जबकि वनस्पति भावनाओं को उभारती है इसीलिए कृषि प्रधान देश में साहित्य की रचना अधिक होती है। और एक मशीन प्रधान समाज में साहित्य की रचना कम भी होती है और वह साहित्य अलग किस्म का होता है। उर्दू साहित्य में दो विधाएं हैं दास्ताने हकीकी और दास्ताने रुहानी। तो मशीन आधारित जो समाज है उसमें दास्ताने हकीकी अधिक होती है, दास्ताने रुहानी बहुत कम। जैसे भावुकता या भाव, यह वहां बहुत कम होगा। तो ऐसे में गुरु का दायित्व और बढ़ गया कि मनुष्य कौन है, क्या है, कहां से आया है यह भी बताना है। फिर व्यक्ति में संवेदनाएं जगानी हैं क्योंकि संवेदनाएं नहीं जगेंगी तो प्रेम नहीं उपज सकता। सार्वभौमिक प्रेम संवेदनाओं से रहित हो ही नहीं सकता। तो गुरु को अब वे संवेदनाएं भी उत्पन्न करनी हैं जो आज से सौ-डेढ़ सौ साल पहले उत्पन्न नहीं करनी पड़ती थीं। संवेदनाएं उत्पन्न करने के बाद उन्हें रास्ता भी दिखाना है। और रास्ता दिखाना अब पहले के मुकाबले बहुत जटिल हो गया है क्योंकि पहले समय बहुत था। सुबह भी आपकी, शाम भी आपकी और रात भी आपकी। अब आपके पास अपने ही परिवार के लिए समय नहीं रह गया है जो हर वक्त आपके साथ हैं भौतिक रूप से। ऐसे में अभौतिक में जाने का समय पाना तो बहुत मुश्किल है। कम वह श्वास क्रिया करेगा, कब अपना पेट साफ करेगा, यह भी समायोजित  करके शिष्य को देना। तो अब तो गुरु का दायित्व और ज्यादा बढ़ गया है। और जो गुरु होगा वह यही चाहेगा कि मनुष्य अपने दायित्वों का श्रेष्ठ निर्वहन करते हुए मोक्ष प्राप्त करे। मोक्ष पुरुषार्थ चातुष्ट्य का अंतिम पद है और शिक्षा से बाहर की चीज है। इसे सिर्फ गुरु दे सकता है, जिससे वह भौतिक जीवन में भी संतुष्ट और सफल हो और उसके बाद अलौकिक जीवन में भी उसको वह सफलता मिले। अब गुरु का काम ज्यादा जटिल और मुश्किल हुआ है।