नरेन्द्र कोहली।

मॉरीशस में ग्‍यारहवां विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन पिछले सम्‍मेलनों से इस अर्थ में सर्वथा भिन्‍न था कि इसमें मॉरीशस सरकार भारत सरकार की बराबर की हिस्‍सेदार थी। इसलिए सरकारी लोगों की संख्‍या काफी अधिक थी। उद्घाटन सत्र और समापन सत्र काफी भव्‍य रहा। मंच पर दोनों सरकारों की विशिष्‍ट विभूतियां थीं। मुझे लगा कि मॉरीशस के आयोजक जैसे मुझे नहीं जानते थे, वैसे ही वे भारत के अनेक लोगों को नहीं जानते थे। अत: अनेक लेखकों को इतना बेगानापन लगा कि वह अपमानजनक था।

हम लेखकों का संबंध सत्रों और विषयों से होता है। मैं व्‍यक्तिगत रूप से नहीं जानता कि ये सत्र किसने बनाए थे और सत्रों के अध्‍यक्ष चुनते हुए उनके सामने कौन सी कसौटी थी। मेरा सत्र ‘‘हिंदी साहित्‍य में भारतीय संस्‍कृति’’ था। उसकी अध्‍यक्ष मॉरीशस की एक लेखिका और सह अध्‍यक्ष भारत के प्रो. हरीश नवल थे।

हम अपने सत्र का कमरा खोजते रहे। तीन बार कमरे बदले गए। कमरा मिला तो प्रो. हरीश नवल नहीं आए थे। सत्र डेढ़ घंटा विलंब से आरंभ हुआ। जाने हमारे श्रोता कहां थे। सत्र के पश्‍चात हिंदी की एक वरिष्‍ठ और प्रतिष्ठित लेखिका ने मुझसे कहा, ‘तुम ही थे कि अपना वक्‍तव्‍य दे आए। मेरे साथ यह सब हुआ होता तो मैं अपना पर्चा पढ़ने से इंकार कर देती।’ हमारे होटल आयोजन स्‍थल से दूर थे। एक बार प्रात: वहां जा कर रात के भोजन के पश्‍चात ही लौटना होता था। आप अपने व्‍यय पर टैक्‍सी ले कर आना चाहें तो वह बहुत महंगा सौदा था और इस बार जाने क्‍यों हमें दैनिक भत्ता भी नहीं दिया गया था। दिन में विश्राम नहीं हो सकता था। शौचालय प्रात: तो साफ होते थे किंतु संध्‍या समय तक पर्याप्‍त गंदे हो चुके होते थे। नलों में पानी समाप्‍त हो चुका होता था और टॉयलेट पेपर भी उपलब्‍ध नहीं होते थे। स्‍पष्‍ट था कि इतनी बड़ी संख्‍या में आए लोगों के लिए वह प्रबंध पर्याप्‍त नहीं था। संभवत: आगंतुकों की संख्‍या के प्रति आयोजकों का अनुमान सही नहीं था। भोजन और विमान यात्रा प्रबंध की बात करें तो इन सुविधाओं का स्तर सम्‍मानजनक था।