उमेश सिंह
गोरखपुर, फूलपुर और अब कैराना। पहले यहां ‘कमल’ खिला था। अब कुम्हला गया। आखिर ऐसा क्यों? कहीं- भगवाइयों ने देश में ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का जो गुब्बारा फुलाया था, वह सिकुड़ तो नहीं रहा है। या फिर भाजपा के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ पर ‘जातीय लोकतंत्र’ भारी पड़ रहा है। जातीय गुटबंदी से भाजपा कमजोर तो नहीं पड़ रही है। वैसे भी ‘जाति की जकड़न’ वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव और एक वर्ष पहले हुए यूपी विधानसभा चुनाव में पूरी तरह से टूटी तो नहीं लेकिन ढीली जरूर पड़ गई थी। लोगों को ऐसा लगा कि मानो अब जातिवादी राजनीति के दिन गए। लेकिन जाति की कारा बड़ी मजबूत है। जातीय अस्मिता खतरे में पड़ी और उसके कारण अनेक दलों और उनके नेताओं के सियासी अस्तित्व पर भी संकट के बादल छा गए। क्योंकि इन नेताओं को ‘सियासी- पोषण’ इन्ही जातियों की लामबंदी के कारण मिलता था। सिर पर आए आसन्न खतरे की आहट को उन्होंने महसूस कर लिया। मजबूरी में ही सही, एक दूसरे के धुर विरोधी भी एक ही टाट पर बैठ गए। सपा और बसपा के बीच की तल्खियां जग जाहिर हैं, फिर भी खुद के अस्तित्व को बचाने के लिए दोनों ‘हम साथ-साथ हैं’ का सियासी-राग अलाप रहे हैं। जो जातीय मत बिखरे थे, जब उनका बिखराव खत्म हुआ तो ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चिंगारी’ मानो बुझ सी गई। कारण और भी हैं, जिनके विस्तृत पड़ताल की जरूरत है। भाजपा भी सत्ता में आने के बाद सत्ताजनित विसंगतियों से घिरी हुई है। दूसरे दलों से आयातित नेताओं को ज्यादा तरजीह देने से कैडर आधारित पार्टी का कार्यकर्ता उदास और खिन्न है। हार के बाद मुरादाबाद में ही समीक्षा बैठक में चुनाव के दौरान ‘निष्क्रिय और उदासीन कार्यकर्ताओं’ को भी पराजय का एक कारण माना गया। दबे मन से बड़ी जंग नहीं जीती जाती है। कार्यकर्ताओं की नाराजगी भाजपा को भारी पड़ रही है।
उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में हुए उपचुनाव में विपक्षी गठबंधन ने जिस तरह से भाजपा को शिकस्त दी थी, वही हाल सूबे के पश्चिमी हिस्से कैराना संसदीय क्षेत्र और नूरपुर विधानसभा क्षेत्र में भी हुआ। गोरखपुर और फूलपुर के बाद कैराना का चुनाव दूसरी बड़ी प्रयोगशाला था जिसमें भाजपा के खिलाफ विपक्ष के गठबंधन को एक बार फिर सफलता मिल गई। भाजपा के विजय अभियान से हताश उसके सियासी विरोधियों की बांछें खिल गई हैं। कैराना और नूरपुर के परिणाम के बाद विपक्षी गठबंधन की गांठे और अधिक मजबूत हो गई हैं। चुनाव परिणाम ने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे राष्टÑÑीय लोकदल में नई जान फंूक दी है। रालोद के अजित सिंह और जयंत चौधरी विजय से इस कदर उत्साहित हैं कि अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नई सियासी पटकथा लिखने को बेताब हैं। इसी क्रम में छह जून को लखनऊ में अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के बीच सियासी गठजोड़ को लेकर महत्वपूर्ण चर्चा भी हुई।
कैराना में विपक्षियों के हाथ मात खाने के साथ ही भाजपा का ‘कमल’ उसके तीन दिग्गज नेताओं के क्षेत्र में ही कुम्हला गया। फूलपुर और कैराना लोकसभा क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो गोरखपुर ऐसा क्षेत्र है, जहां विपरीत परिस्थितियों में भी कमल खिलता रहा है। गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ बेहद प्रभावशाली रहे हैं। वैसे तो गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ अजेय बने रहे लेकिन कैराना में हुकुम सिंह और तब्बसुम हसन का परिवार पिछले तीन दशक से एक दूसरे से जीतता-हारता रहा। कभी हुकुम सिंह भारी पड़ते तो कभी हसन परिवार। फूलपुर डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य का क्षेत्र था, जहां से वर्ष 2014 में वे जीते थे। ये परिणाम सवाल उठा रहे हैं कि विपक्षियों के गठजोड़ ने क्या मोदी और योगी की लहर को कमजोर कर दिया है?
भाजपा के हुकुम सिंह को पिछले लोकसभा चुनाव में कैराना से पांच लाख पैंसठ हजार वोट मिले थे जबकि उनकी पुत्री मृगांका सिंह को तीन लाख बावन हजार वोट ही मिल पाए। यानी कि पिता के सापेक्ष पुत्री को दो लाख वोट कम मिले। यह हाल तब रहा जबकि पिता के असामयिक निधन के कारण उपचुनाव हुआ। भारतीय जनमानस की रचावट-बुनावट ऐसी है कि वह ऐसे मौकों पर अक्सर भावुक हो जाता है लेकिन कैराना में मृगांका सिंह के साथ ऐसा नहीं हुआ। एक महत्वपूर्ण तथ्य और है कि वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में कैराना में रालोद बयालीस हजार छह सौ वोट पाकर सिमट गई थी। नए सियासी गठजोड़ ने उसे कोमा से बाहर निकाल दिया है। नूरपुर विधानसभा क्षेत्र उपचुनाव में सपा के नईमुल हसन ने भाजपा प्रत्याशी अवनी सिंह को हरा दिया। कैराना चुनाव प्रभारी रहे सपा छात्र सभा के राष्टÑीय अध्यक्ष अनिमेष प्रताप सिंह ‘राहुल’ ने कहा कि ‘जनता समझ गई है कि झूठ बोलकर उसके साथ छल किया गया। इसी लिए भाजपा चुनाव हार रही है। जनता को विपक्ष के गठबंधन पर ज्यादा भरोसा है।’
ये चुनाव परिणाम भाजपा और उसके सहयोगी दलों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं हैं। इन उपचुनावों का महत्व एक साल बाद होने वाले आम चुनाव के लिहाज से बढ़ गया है। उत्तर प्रदेश के तीन लोकसभा उपचुनाव और एक विधान सभा उपचुनाव में मिली हार से भगवा खेमे में बेचैनी कम नहीं है। संगठित विपक्ष की इस तरह से जीत ने हार से पस्त कई दलों के लिए संजीवनी का काम कर दिया है। कैराना का सबसे ज्यादा लाभ पिछले चार वर्ष से कोमा में पहुंच चुके रालोद का मिल सकता है। उपचुनाव के दौरान अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी ने तकरीबन सौ नुक्कड़ सभाएं कीं और डोर-टू-डोर जन संवाद किया। गठबंधन के अन्य दलों के बड़े नेताओं की सक्रियता कैराना में कम रही फिर भी रालोद की प्रत्याशी तबस्सुम हसन जीतने में कामयाब रहीं। मायावती और अखिलेश की जोड़ी के साथ ही यदि कांग्रेस और रालोद भी विपक्ष के संभावित निमार्णाधीन गठबंधन के हिस्सा बन गए तो उत्तर प्रदेश में भाजपा को बड़ी चुनौती मिलने से इनकार नहीं किया जा सकता है। दरअसल यही वह प्रदेश है जिसने पिछले लोकसभा चुनाव में इकहत्तर सीटें जिताकर भाजपा को ‘लुटियंस की दिल्ली में’ सबसे मजबूत बना दिया था। ‘चुनावी चाणक्य’ कहे जाने वाले अमित शाह के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। भाजपा और उसके सहयोगी दलों के खिलाफ तैयार हो रहे महागठबंधन की काट वह किस तरीके से निकालते है। भाजपा को अपने सहयोगी दलों को बिदकने से रोकने के साथ ही महागठबंधन से निपटना भी है।
लोकसभा व विधानसभा उपचुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की प्रयोगशाला बनाने की कोशिशें तो की गर्इं लेकिन भाजपाइयों की रणनीति कारगर साबित नहीं हुई। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान देश में मोहम्मद अली जिन्ना प्रकरण खूब चर्चा में रहा लेकिन कैराना में जिन्ना बनाम गन्ना मुद्दा खूब उछला। जिन्ना पर गन्ना अंतत: प्रभावशाली साबित हुआ। किसानों का बकाया गन्ना मूल्य और कर्जमाफी- ये दो मुद्दे ऐसे रहे जिसके कारण भाजपा नेताओं को मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उपचुनाव को लेकर बसपा चुप्पी साधे रही लेकिन उसका कैडर कैराना में सक्रिय रहा। दलितों की नाराजगी का फायदा भी विपक्ष के गठवंधन को मिला। इसके साथ ही यह बात और उभरकर सामने आई कि भाजपा की ताकत से तभी मुकाबला किया जा सकता है जबकि विपक्ष एक साथ हो जाए। वैचारिक मतभेद भले हो लेकिन साथ लड़ो- तभी जीत मिलेगी। बसपा के राष्टÑीय महासचिव व मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड के प्रभारी रामअचल राजभर ने कहा कि ‘बसपा सुप्रीमो ने बिना मंच साझा किए ही तीनों जगह इतनी बड़ी सफलता दिला दी है। यदि मंच साझा करेंगी तो उसके परिणाम का अंदाजा लगाया जा सकता है। हमारी नेता ने कहा है कि वर्ष 2019 के चुनाव में हमे सम्मानजनक सीटे मिलेंगी, तभी हम गठबंधन करेगे।’ राजभर ने कहा कि ‘यही राय हमारी भी है।’
गौरतलब है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दर्जन भर से ज्यादा जिलों में मजहबी और जातीय आबादी ऐसी है कि वहां कैराना जैसे समीकरण हैं। कैराना में लगभग 32 फीसदी अल्पसंख्यक समुदाय के वोटर हैं। इसके आसपास सहारनपुर, रामपुर, अमरोहा, मुरादाबाद, बिजनौर और मुजफफरनगर में अल्संख्यकों की तादात कमोबेश अन्य क्षेत्रों के सापेक्ष औसतन ज्यादा है। बागपत, गाजियाबाद, बुलंदशहर सहित अन्य जिलों में भी मुसलमानों की अच्छी खासी बसावट है। इन सभी क्षेत्रों में जाट की मौजूदगी भी प्रभावपूर्ण स्थिति में है। इन क्षेत्रों में दलित आबादी भी कम नहीं है। ऐसे में यदि संभावित गठबंधन बना तो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए चुनौतियां कम नहीं होंगी। सियासत में भाजपा विरोधियों के एकजुट होने से जो नया समीकरण बना है, उसके कारण भाजपा के लिए पुराना फार्मूला ठीक से फिट नहीं हो पा रहा है। जबकि वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव और फिर उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा बहुसंख्यकों के मतों को अपने पाले में लाने में पूरी तरह से सफल रही। इस बार उपचुनाव में ऐसा नहीं है कि भाजपा नेताओं ने धु्रवीकरण करने के लिए कोई कोर कसर छोड़ी हो। चुनावी प्रचार में भाजपा नेताओं ने दंगे की याद दिलाई और कैराना से हुए पलायन का भी बार-बार जिक्र किया। यहां तक बोला गया कि विपक्ष जीतेगा तो पाकिस्तान में खुशियां मनाई जाएंगी लेकिन मतदाताओं की भावनाओं को भाजपा उभार नहीं पाई। जबकि अजित सिंह और जयंत चौधरी ने घर-घर जाकर जो भावुक अपील की, उसका मतदाताओं पर असर पड़ गया। किसान नेता चौधरी चरण सिंह का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करिश्माई प्रभाव रहा। वह जाटों के बीच लोकप्रिय रहे। चौधरी चरण सिंह वर्ष 1937 से चुनावी राजनीति में रहे और छपरौली उनका गढ़ था। वह देश के प्रधानमंत्री भी बने लेकिन उनके वंशज परंपरा की पूंजी को सम्हाल नहीं पाए। सिमटते-सिमटते यह हाल हो गया कि रालोद लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीत पाई। अजित सिंह और जयंत चौधरी दोनों खुद चुनाव हार गएै उत्तर प्रदेश विधानसभा में सिर्फ एक विधायक उनके पास था। वह भी उपचुनाव के पहले भाजपा के खेमे में चला गया। लोकसभा से लेकर विधानसभा तक एक भी प्रतिनिधि नहीं। कभी इस इलाके में चौधरी चरण सिंह शिखर पर थे। शिखर से ढलान की ओर गिरावट शुरू हुई तो लुढ़कते-लुढ़कते अजित सिंह व जयंत चौधरी तक आते-आते शून्य की ओर पहुंच गई। इस शून्यता को देख जाटों में चौधरी परिवार के प्रति गहरी संवेदना पैदा हो गई। पिता-पुत्र ने घर-घर जाकर जन संवाद शुरू किया। वैसे भी जन मानस की सामाजिक मनोरचना है ऐसी है कि लोग ताकत के खिलाफ खड़े हो जाते हैं और जब विरोधी भी कमजोर होता है तो उसके साथ लोगों की जन भावनाएं जुड़ जाती हैं। ऐसा ही कुछ कैराना में रालोद के साथ हुआ।

अपनी ही कमजोरी से नहीं उबर पा रही भाजपा
स्थानीय नेतृत्व को उभारकर उनको मोर्चे पर लगाने का काम पार्टी स्तर पर बहुत कमजोर है। सियासी पयर्टन के शौकीन नेताओं को चुनाव के दौरान गले लगा लेना और फिर सांसद और विधायक बना देना उस वक्त तो बड़ी कामयाबी बताई गई लेकिन दूसरे दलों से दाखिल हुए इन लोगों के कारण भी स्थानीय स्तर पर कम परेशानी नहीं है। ये अपने साथ जिन लोगों को लेकर आए हैं, उनका काम तो कमोबेश प्राथमिकता से हो जाता है लेकिन खांटी भाजपाई बेचारे अपने काम के लिए हाथ मलते रह जा रहे हैं।
सत्ता में आने के बाद भाजपा के बड़े नेताओं की भाषा बूथ का कार्यकर्ता नहीं बोल पा रहा है। जो अमित शाह बोलें, वहीं भाषा बूथ का कार्यकर्ता भी बोलने लग जाए, तो स्थिति सुधर सकती है। लेकिन ऐसा तभी होगा, जबकि बूथ कार्यकर्ताओं की सुनवाई हो। लाठी डंडा खाकर संघर्ष करने वाला कार्यकर्ता यह एहसास ही नहीं कर पा रहा है कि उसकी सत्ता आ गई है। दरअसल भाजपा कार्यकर्ता सक्रिय तो दिख रहा है लेकिन वह दबे और खिन्न मन से सियासी लड़ाई के मैदान में है। उसकी आंखें तो भरी-भरी हैं लेकिन हाईकमान से मुस्कुराने की एडवाइजरी जारी हो जाती है। आखिर वह कैसे मुस्कुराए? क्या मुस्कुराने-खिलखिलाने वाली परिस्थितियां हैं? इसकी एक नजीर फैजाबाद सहकारी बैंक चुनाव के जरिए देखी जा सकती है। भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष अखंड प्रताप सिंह खांटी भाजपाई हैं लेकिन ऐन वक्त पर फैजाबाद सहकारी बैंक चुनाव में निदेशक पद पर पार्टी ने विधानसभा चुनाव में सपा से भाजपा में आए गिरीश पांडेय डिप्पुल को अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया। भाजपा की जिला इकाई डिप्पुल के पक्ष में लगी रही लेकिन अखंड सिंह बारह मतों से चुनाव जीत गए। बुरे दिनों में भी जो पार्टी का डंडा और झंडा थामे रहा, उसकी ऐसी गति होगी तो कैडर बेस कार्यकर्ताओं में खिन्नता तो जरूर ही आएगी। अखंड सिंह ने कहा कि हम विचारधारा के लोग हैं। आखिरी दम तक भगवाई ही बने रहेंगे लेकिन कर्मठ नेताओं की उपेक्षा से कार्यकर्ताओं का मनोबल गिर गया है। मनोबल उठाने के लिए जरूरी है कि पार्टी सुख-दुख में अपने पुराने साथियों को तवज्जो दे। 