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एक तथ्य यह भी है कि पार्टी के कई विधायकों ने लोकसभा चुनाव से खुद को दूर रखा. उन्होंने उम्मीदवारों को वह समर्थन नहीं दिया, जिसकी जरूरत थी. इसकी वजह यह बताई जा रही है कि ऐसे विधायक अपने नेता यानी अरविंद केजरीवाल के रवैये से नाराज हंै.

चार साल पहले दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी आखिर क्यों लोकसभा चुनाव 2019 में हार गई? कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन की बात थी. यह दावा था कि गठबंधन हो जाता, तो भाजपा को कड़ी चुनौती मिलती. लेकिन, नतीजों ने तो अलग ही तस्वीर पेश कर दी. किसी भी एक सीट पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार मिलकर भी भाजपा उम्मीदवार से ज्यादा वोट हासिल नहीं कर पाए. दिल्ली विधानसभा का चुनाव अब महज आठ महीने बाद होना है. महज 18.1 प्रतिशत वोट शेयर के साथ लोकसभा चुनाव में तीसरे नंबर पर रही आम आदमी पार्टी किस नैतिक बल के सहारे अगला चुनाव लड़ेगी, यह बड़ा सवाल है. भाजपा 56.5 प्रतिशत वोट शेयर के साथ पहले नंबर पर तो है ही, लेकिन आम आदमी पार्टी के लिए इससे भी बड़ी चुनौती और परेशानी का सबब रही कांग्रेस, जिसने लोकसभा चुनाव में 22.5 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया. 2012 में आम आदमी पार्टी के गठन के बाद से अब तक जितने भी चुनाव हुए, उनमें से इस लोकसभा चुनाव में आप का सबसे बुरा प्रदर्शन रहा. 2013 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 29.5 प्रतिशत था. दिलचस्प रूप से 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में उसका वोट शेयर बढक़र 54 प्रतिशत हो गया. 2017 के दिल्ली नगर निगम चुनाव में उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी, तब भी उसका वोट शेयर 26 प्रतिशत था.

सवाल है कि आम आदमी पार्टी की स्थिति इतनी खराब क्यों रही? आप के उम्मीदवारों ने अपने प्रचार में सरकार के प्रदर्शन को भुनाने की कोशिश की थी. आतिशी तो दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था को आधार बनाकर चुनाव लड़ीं. अरविंद केजरीवाल और पूरी पार्टी का फोकस इस पर रहा कि अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल जाता है, तो लोगों को क्या-क्या फायदा होगा. लेकिन चुनाव नतीजों से साबित हो गया कि दिल्ली वालों के लिए पूर्ण राज्य का मुद्दा ज्यादा गंभीर नहीं रहा. जिन 18 प्रतिशत मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया, उन्हें पार्टी का कोर वोटर कहा जा सकता है, जो आम तौर पर गरीब तबका (झुग्गी-झोपड़ी) माना जाता है. इसके अलावा आम आदमी पार्टी को किसी और तबके से वोट मिला हो, कहना मुश्किल है. खुद अरविंद केजरीवाल ने भी माना कि मुस्लिमों के वोट उन्हें नहीं मिले, जो कभी थोक में इस पार्टी को मिलते थे.

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दिल्ली की सभी सात सीटों पर चुनाव लड़ी आम आदमी पार्टी के तीन उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई. इनमें चांदनी चौक सीट से पंकज गुप्ता, नॉर्थ-ईस्ट सीट से दिलीप पांडेय और नई दिल्ली सीट से बृजेश गोयल शामिल हैं. विधानसभा क्षेत्रों के लिहाज से देखें, तो 70 में से 65 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा का परचम लहराया. मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी की जगह कांग्रेस को अपना पसंदीदा विकल्प माना और उस पर भरोसा किया. दिल्ली के 70 विधानसभा क्षेत्रों में से पांच विधानसभा क्षेत्र ऐसे रहे, जहां सबसे अधिक वोट कांग्रेस को मिले. दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के किसी उम्मीदवार को एक भी विधानसभा क्षेत्र में सर्वाधिक वोट (भाजपा-कांग्रेस के मुकाबले) नहीं मिले.

क्या रही गलती

सबसे बड़ी गलती या कमी तो यह कि पिछले चार सालों में आम आदमी पार्टी अपने कार्यकर्ताओं और वॉलंटियर्स को साथ जोड़े रखने में असफल रही. मु_ी भर कार्यकर्ता ही पार्टी के साथ हैं, जो सरकार या पार्टी में अहम पदों पर हंै और सरकार या पार्टी से फायदा उठा रहे हैं. समर्पित कार्यकर्ता अब इस पार्टी में ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे. इस तथ्य को खुद पार्टी के कई पुराने नेता स्वीकारते हंै. अपने चुनावी वादे पर कायम रहने और उन्हें पूरा करने के बजाय अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ती दिलचस्पी और नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला करने जैसी गलतियां भी आम आदमी पार्टी के लिए भारी पड़ीं. पार्टी के स्थापित नेताओं और विधायकों का भी क्षेत्र के लोगों से अब वह रिश्ता नहीं रहा, जो पहले हुआ करता था. विधानसभा क्षेत्रों के विभिन्न वार्डों में स्वराज मॉडल पर संगठन तैयार करने की बात कही गई थी, जिसे आज तक पूरा नहीं किया गया. नतीजतन, नाराज कार्यकर्ता और समर्थक धीरे-धीरे भाजपा में शिफ्ट होते गए. अब तो बड़ी तेजी से वे कांग्रेस की तरफ भी जाते दिख रहे हैं. कम से कम चुनाव नतीजों से तो यही साबित होता है. एक तथ्य यह भी है कि पार्टी के कई विधायकों ने लोकसभा चुनाव से खुद को दूर रखा. उन्होंने उम्मीदवारों को वह समर्थन नहीं दिया, जिसकी जरूरत थी. इसकी वजह यह बताई जा रही है कि ऐसे विधायक अपने नेता यानी अरविंद केजरीवाल के रवैये से नाराज हंै.

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हंै कि दिल्ली के मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को इसलिए भी नकार दिया कि वे केजरीवाल को राष्ट्रीय नेता के तौर पर न देखकर उन क्षेत्रीय क्षत्रपों के तौर पर देख रहे हंै, जो अपने राज्य में आम आदमी के लिए कुछ बेहतर मूलभूत काम कर रहे हैं. मतदाताओं के एक वर्ग ने इस पैटर्न पर भी वोट किया कि मुख्यमंत्री केजरीवाल रहें, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ही रहेंगे. अगले विधानसभा चुनाव में भी इस तर्क के सहारे अगर आम आदमी पार्टी निश्चिंत रहती है, तो उसे एक बार फिर हार का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि इस बार उसकी प्रतिद्वंद्वी न सिर्फ भाजपा, बल्कि कांग्रेस भी होगी, जिसने लोकसभा चुनाव में साबित कर दिया कि वह दिल्ली की दूसरे नंबर की पार्टी है और आम आदमी पार्टी तीसरे

नंबर पर है.