बनवारी।
नाभिकीय प्रौद्योगिकी और व्यापार को नियंत्रित करने के लिए बनाई गई चार अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में से एक मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर) में भारत को सम्मिलित कर लिया गया है। एक दूसरी संस्था नाभिकीय आपूर्ति समूह (एनएसजी) की सदस्यता अभी हमें प्राप्त नहीं हो पाई। नाभिकीय आपूर्ति समूह की सदस्यता के लिए हमने मई 2016 में ही आवेदन किया था। जून के अंत में सियोल में होने वाली समूह की बैठक में भारत के आवेदन पर निर्णय होना था। लेकिन चीन भारत को समूह में सम्मिलित किए जाने का विरोध कर रहा है। समूह के सभी निर्णय सर्वसम्मति से होते हैं। इसलिए चीन के अड़ जाने के कारण सियोल की बैठक में भारत के आवेदन पर कोई निर्णय नहीं हो पाया। लेकिन सियोल की बैठक के अनिर्णय से भारत के समूह में सम्मिलित होने की संभावना समाप्त नहीं हुई। बल्कि भारत के आवेदन पर विचार करने के लिए एक प्रक्रिया आरंभ हुई है। अमेरिका सहित कई देशों को आशा है कि इस वर्ष के अंत तक इसके बारे में कोई सकारात्मक निर्णय हो जाएगा।
नाभिकीय आपूर्ति समूह में भारत को सम्मिलित किए जाने का चीन आरंभ से ही विरोध कर रहा है। सियोल की बैठक से ठीक पहले ताशकंद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से आग्रह किया था कि सियोल की बैठक में चीन सकारात्मक दृष्टि से निर्णय करे। समूह के अधिकांश सदस्य भारत को सम्मिलित किए जाने के पक्ष में हैं। केवल सात अन्य देशों की कुछ प्रक्रियात्मक सम्मतियां थीं। कुछ देश चाहते थे कि भारत को सदस्यता देते समय ही यह भी स्पष्ट कर दिया जाए कि नाभिकीय अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने वाले किसी देश को किस आधार पर समूह का सदस्य बनाया जा सकता है। कुछ देश पहले आधार घोषित करने के पक्ष में थे। केवल तुर्की भारत के साथ पाकिस्तान को भी सदस्य बनवाना चाहता था। लेकिन इन सभी देशों का अंत में रुख सकारात्मक हो गया था। पर चीन ने अपना विरोध अंत तक नहीं छोड़ा।
सियोल की बैठक में चीन बाधक अवश्य था, लेकिन अंतत: यह भारत की राजनयिक असफलता से अधिक चीन की राजनयिक असफलता सिद्ध हुई। बैठक से पहले चीन ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि नाभिकीय अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने वाले किसी देश को समूह में सम्मिलित किए जाने का मुद्दा विचाराधीन ही नहीं है। उसने भारत के आवेदन के ठीक बाद पाकिस्तान से भी समूह की सदस्यता के लिए आवेदन करवा दिया। वह जानता था कि नाभिकीय आपूर्ति समूह नाभिकीय मामलों में पाकिस्तान की संदिग्ध भूमिका को देखते हुए उसे समूह में सम्मिलित करने के लिए तैयार नहीं होगा। फिर भी चीन दोहराता रहा कि भारत और पाकिस्तान दोनों की स्थिति एक जैसी है। बैठक दक्षिण कोरिया में होने के कारण चीन को आशा थी कि उसकी आपत्ति पर ध्यान रखते हुए कोरिया भारत के आवेदन पर कोई चर्चा नहीं होने देगा। फिर भी एक अलग अनौपचारिक बैठक में इस मुद्दे पर तीन घंटे चर्चा हुई। बाद में अर्जंेटीना के प्रतिनिधि को इस मुद्दे पर सभी से बात करके कोई सबको स्वीकार्य रास्ता तलाशने के लिए अधिकृत किया गया। कोरिया के बाद समूह की अध्यक्षता इसी वर्ष स्विट्जरलैंड के पास चली जाएगी। भारत को आशा है कि इस वर्ष के अंत तक एक विशेष बैठक में समूह भारत को सदस्य बनाने का निर्णय कर सकेगा।
एक नाभिकीय शक्ति का दर्जा पाने में आज भारत के सामने जो समस्याएं आ रही हैं वे नेहरू युग की देन हैं। 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका द्वारा नाभिकीय बम गिराये जाने के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि भविष्य में अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन नाभिकीय शक्ति से ही निर्धारित होगा। भारत में होमी जहांगीर भाभा की पहल पर नाभिकीय ऊर्जा पर काम शुरू कर दिया गया था। लेकिन जिस समय भारत को नाभिकीय परीक्षण के द्वारा अपने आपको नाभिकीय शक्ति घोषित कर देना चाहिए था, उस समय नेहरू सरकार नाभिकीय अस्त्रों के विरुद्ध विश्व जनमत तैयार करने में लगी रही। इस दिशा में जो जनमत बना उसी का लाभ उठाकर बाद में नाभिकीय शक्तियों ने एक पूरा तंत्र खड़ा कर दिया, जो नाभिकीय शक्ति बनने के आकांक्षी अन्य देशों की बाधा बन सके। नाभिकीय प्रौद्योगिकी और व्यापार नियंत्रित करने के लिए चार अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं खड़ी कर दी गर्इं।
यह तंत्र खड़ा किए जाने से पहले पांच देश नाभिकीय परीक्षण करके अपने आपको नाभिकीय शक्ति घोषित कर चुके थे। अंतिम परीक्षण 1964 में चीन द्वारा किया गया था। हिरोशिमा पर बम गिराए जाने के 20 वर्ष के भीतर चार अन्य देशों का नाभिकीय शक्ति बन जाना एक-दूसरे की सहायता के बिना संभव नहीं था। सोवियत रूस पर यह आरोप लगते रहते हैं कि उसके वैज्ञानिकों ने अमेरिका से नाभिकीय बम संबंधी प्रौद्योगिकी चुराई। लेकिन ब्रिटेन को तो नाभिकीय शक्ति बनाने में अमेरिका का ही योगदान था। 1961 में फ्रांस ने पहला नाभिकीय परीक्षण किया था। चीन को नाभिकीय शक्ति बनाने में सोवियत रूस की भूमिका रही। चीन के जल्दी नाभिकीय शक्ति बनने का अनुमान अमेरिका को हो गया था। इसलिए जॉन एफ केनेडी के राष्ट्रपतित्व काल में भारत को नाभिकीय शक्ति बनने में सहायता देने की पेशकश हुई। लेकिन भारत ने अमेरिकी प्रस्ताव ठुकरा दिया। नाभिकीय शक्तियां तब तक नाभिकीय व्यापार की संभावनाएं विकसित कर चुकी थीं। दरअसल 1954 में नाभिकीय प्रौद्योगिकी के शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए उपयोग की नीति घोषित करते हुए अमेरिका ने अपनी कंपनियों को नाभिकीय प्रौद्योगिकी के उपयोग की छूट दे दी थी। उसके बाद नाभिकीय ऊर्जा के संयंत्रों का एक विश्व बाजार विकसित हो गया और इस व्यापार में अनेक और देश भागीदारी करने लगे। भारत में भी कनाडा द्वारा एक संयंत्र लगाया गया, जिसके लिए भारी पानी हमें अमेरिका से मिलता था।
1962 में हुए चीन के आक्रमण तक हम अपनी सुरक्षा को लेकर लापरवाह रहे। चीन से मिली पराजय के बाद नाभिकीय परीक्षण करने और भारत को नाभिकीय शक्ति बनाने की मांग उठनी आरंभ हुई। लेकिन कांग्रेसी नेतृत्व इन मांगों की उपेक्षा करता रहा। चीन के नाभिकीय परीक्षण करने के बाद यह मांग और मजबूत हुई। लेकिन तब तक नाभिकीय शक्ति का प्रसार रोकने का तंत्र खड़ा करने पर सहमति हो गई थी। एक जनवरी 1967 से नाभिकीय अप्रसार संधि लागू कर दी गई। उसके बाद नाभिकीय परीक्षण करने का अर्थ था विश्व बिरादरी के आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना। नेहरू युग के शांतिवादी पूर्वाग्रहों और अव्यावहारिक नीतियों के कारण हम वैज्ञानिक क्षमता होते हुए भी अपने-आपको नाभिकीय शक्ति घोषित करने से रह गए। भारत ने नाभिकीय परीक्षण करने का निर्णय 1974 में किया। उसे भी हमने प्रतिबंधों के डर से अपने-आपको नाभिकीय शक्ति घोषित करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया। अपने परीक्षणों को हमने शांतिपूर्ण उद्देश्य के लिए किए गए परीक्षण बताया। भारत पर आर्थिक प्रतिबंध फिर भी लगे। भारत ने अलबत्ता नाभिकीय अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए और अपना नाभिकीय कार्यक्रम जारी रखा। 15_YT_HOMI_2696152f
भारत द्वारा 1974 में किए गए परीक्षण के बाद ही नाभिकीय शक्तियों ने नाभिकीय प्रौद्योगिकी और सामग्री के व्यापार पर नियंत्रण रखने के लिए नाभिकीय आपूर्ति समूह का गठन किया था। नाभिकीय शक्तियों ने जो नियंत्रक प्रतिष्ठान खड़ा किया है, उसी के कारण भारत को उन्नत प्रौद्योगिकी प्राप्त करने में निरंतर अड़चनें आती रहीं। इसका काफी कुछ श्रेय हमारे वैज्ञानिकों को जाता है कि उन्होंने राजनीतिक ऊहापोह और अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण के बावजूद नाभिकीय और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत को बहुत पिछड़ने नहीं दिया। एक समय जब रूस ने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण हमें क्रायोजनिक इंजन देने में असमर्थता दिखाई थी, अपने वैज्ञानिकों के बल पर ही हमने क्रायोजनिक प्रौद्योगिकी स्वयं विकसित करने का निर्णय लिया था। कुछ वर्षांे के भीतर हमारे वैज्ञानिकों ने यह करके भी दिखा दिया। परीक्षण के बाद हम पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, उन्हें क्लिंटन के राष्ट्रपतित्व काल में हटाया जाने लगा था। राष्ट्रपति बुश ने भारत-अमेरिकी संबंधों को नई दिशा देने के लिए हमारे साथ एक नाभिकीय समझौता किया।
आज नाभिकीय शक्ति बनना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक नाभिकीय शक्ति के रूप में विश्व की स्वीकृति प्राप्त करना है। इसका रास्ता 2008 के भारत-अमेरिकी नाभिकीय समझौते से खुला था। उस समय अमेरिकी पहल पर नाभिकीय आपूर्ति समूह ने भारत को एकबारगी छूट देने का निर्णय लिया था। इसी कारण हम नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में अपने घोषित लक्ष्य पाने की स्थिति में आ गए हैं। लेकिन इस छूट को औपचारिक स्वरूप दिलाने के लिए भारत को अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधक तंत्र का अंग बनना आवश्यक है। पर मनमोहन सरकार कांग्रेस के वैचारिक पूर्वाग्रहों के कारण इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई। मोदी सरकार बनने के बाद ही इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाया जाना शुरू हुआ है।
मिसाइल प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण रखने वाली व्यवस्था का अंग बनकर पिछले महीने हमने पहली सफलता प्राप्त की। चीन उसका अंग बनने के लिए 2004 से आवेदन किए हुए है। लेकिन उत्तर कोरिया के मिसाइल कार्यक्रम में सहायता पहुंचाने के आक्षेपों के कारण अभी उसे इसका सदस्य नहीं बनाया गया। नाभिकीय आपूर्ति समूह का सदस्य वह 2004 में हो गया था। इसलिए वह भारत के रास्ते में रोड़े अटका रहा है। चीन ने पाकिस्तान को नाभिकीय और मिसाइल दोनों क्षेत्रों में सहायता दी है। पाकिस्तान के पास न वैसा औद्योगिक तंत्र है, न आर्थिक सामर्थ्य कि अपने बलबूते पर वह इन क्षेत्रों में इतना आगे बढ़ पाता। इसके लिए उसे चीन से सभी तरह की सहायता मिली है। चीन इस संदिग्ध भूमिका के कारण नाभिकीय आपूर्ति समूह के दूसरे सदस्यों को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है। स्वाभाविक है कि वह समूह में भारत का विरोध करते हुए अलग-थलग पड़ जाएगा। तब वह अपनी नीति बदलेगा या नहीं, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन उसे अकेला करना भी हमारी राजनयिक सफलता होगी।
चीन केवल नाभिकीय आपूर्ति समूह का सदस्य बनने में ही हमारी बाधा नहीं है। वह संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने में भी भारत की सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। हम आज तक यह नहीं समझ पाए कि चीन भारत के साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। चीन को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनवाने में भारत की निर्णायक भूमिका थी। अमेरिका चीन को नहीं भारत को सुरक्षा परिषद का सदस्य देखना चाहता था। लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने चीन के बदले भारत को सदस्य बनाए जाने से इनकार कर दिया। सभी विश्व मंचों पर भारत का चीन के प्रति सहयोगी रुख ही रहा है, जबकि चीन निरंतर असहयोगी रुख ही अपनाता रहा है। उसकी आशंका तिब्बत के कारण है या वह भारत को आगे बढ़ने देकर एक और गैर-यूरोपीय विश्व शक्ति पनपने नहीं देना चाहता? हम चीन के भारत विरोध को अब तक समझ नहीं पाए, इसलिए उसके बारे में कोई स्पष्ट नीति भी नहीं बना पाए। 1962 में चीनी आक्रमण के बाद चीन से हमारे संबंध समाप्त हो गए थे। बाद में संबंध बहाल हुए, लेकिन परस्पर विश्वास नहीं लौटा। नाभिकीय आपूर्ति समूह में चीन के व्यवहार से दोनों देशों के संबंधों में कुछ तनाव आना स्वाभाविक है। अब तक हम चीन से अपनी प्रतिस्पर्धा को प्रतिद्वंद्विता में बदलने के विरोधी रहे हैं। लेकिन चीन निरंतर एक प्रतिद्वंद्वी देश की ही तरह व्यवहार करता रहा है। चीन हमारी सुरक्षा को निरंतर जटिल बनाने में लगा हुआ है। वह पाकिस्तान को भारत विरोधी अस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। भारत को निकट भविष्य में चीन से किसी सहयोग की आशा छोड़कर ही अपनी सामरिक और राजनयिक प्राथमिकताएं तय करनी होंगी।